कुछ रिश्तों के नाम नहीं होते. ऐसे ही एक रिश्ते की दास्तां है सुभद्रा कुमारी चौहान की कहानी मंझली रानी.
वे मेरे कौन थे? मैं क्या बताऊं? वैसे देखा जाय तो वे मेरे कोई भी न होते थे. होते भी तो कैसे? मैं ब्राह्मण, वे क्षत्रिय; मैं स्त्री, वे पुरुष; फिर न तो रिश्तेदार हो सकते थे और न मित्र आह! यह क्या कह डाला मैंने! मित्र? भला किसी स्त्री का कोई पुरुष भी मित्र हो सकता है? और यदि हो भी तो क्या इसे समाज बर्दाश्त करेगा? यहां तो किसी पुरुष का किसी स्त्री से मिलना-जुलना या किसी प्रकार का व्यवहार रखना भी पाप है. और यदि कोई स्त्री किसी पुरुष से किसी प्रकार का व्यवहार रखती है, प्रेम से बातचीत करती है. तो वह स्त्री भ्रष्टा है, चरित्र-हीना है, नहीं तो पर पुरुष से मिलने-जुलने का और मतलब ही क्या हो सकता है? खैर, न तो मुझे समाज से कुछ लेना-देना है, न समाज से कुछ सरोकार. समाज ने तो मुझे दूध की मक्खी की तरह निकाल कर दूर फेंक दिया है. फिर मैं ही क्यों समाज की परवाह करूं?
मेरे माता-पिता साधारण स्थिति के आदमी थे. परिवार में माता पिता के अतिरिक्त मुझसे बड़े मेरे तीन भाई और थे. मैं सब से छोटी थी. छोटी होने के कारण घर में मेरा लालन-पालन बड़े लाड़ प्यार में हुआ था. मेरे दो भाई बनारस हिन्दू-यूनिवर्सिटी में पढ़ते थे और दोनों से छोटा राजन मैट्रिक में पढ़ रहा था. मेरे पिता जी संस्कृत के पूरे पंडित थे और पुरानी रूढ़ियों के कट्टर पक्षपाती. यहां तक कि वे मेरा विहाह नौ साल की ही उमर में करके गौरीदान के अक्षय पुण्य के भागी बनना चाहते थे. कई लोगों के और विशेषकर मेरे भाइयों के विरोध के कारण, ही वे ऐसा न कर सके थे. जब मैं पांचवीं अंगरेज़ी में पढ़ रही थी और मेरी आयु चौदह साल के लगभग थी, तब मेरे माता-पिता को मेरे विवाह की चिन्ता हुई. वे योग्य वर की खोज में थे ही कि संयोग से ललितपुर के तालुकेदार राजा राममोहन हमारे क़स्बे में शिकार खेलने के लिए आए. क़स्बे से लगा हुआ ही एक बड़ा जंगल था, जहां शिकार खेलने का अच्छा मौक़ा था. उनका खेमा जंगल से बाहर क़स्बे के पास ही था. क़स्बेवालों के लिए यह एक खास तमाशा-भी हो गया था. उनके टेन्ट में कभी ग्रामोफोन बजता और कभी नाच-गाना होता है लोग बिना पैसे के तमाशा देखने को झुन्ड-के-झुन्ड जमा हो जाते. एक दिन मैं भी राजन और पिता जी के साथ राजा साहब के डेरे पर गई. मेरे पिता जी की राजा साहब से जान पहिचान हो हो गई थी. हम लोग उन्हीं के पास जाकर कुर्सियों पर बैठ गए. राजा साहब ने हमारा बड़ा सम्मान किया. लौटते समय उन्होंने हम लोगों को अपनी ही सवारी पर भेजा और साथ में बहुत से फल, मेवा और मिठाई इत्यादि भी रखवा दी! क़स्बे की कई लड़कियां और लड़कों ने मुझे राजा साहब की सवारी पर लौटते हुए उत्सुक नेत्रों से देखा. किन्तु उस सवारी पर बैठ कर मैं अनुभव कर रही थी कि जैसे मैं भी कहीं की रानी हूं. और मैंने उनकी ओर आंख उठाकर भी न देखा.
दूसरे दिन राजा साहब ने स्वयं पिता जी को बुलवा भेजा और उनसे मिलकर दो-तीन घंटे बाद जब पिता जी लौटे, तो इतने प्रसन्न थे कि उनके पैर धरती पर पड़ते ही न थे. ऐसा मालूम होता था कि वे सारे संसार को जीतकर आ रहे हैं. आते ही उन्होंने मेरी पीठ ठोंकी और मां से बोले, लो, इससे अच्छा और क्या हो सकता था? तारा का विवाह राजा साहब के मंझले लड़के से तै हो गया. माता-पिता दोनों ही इस सम्बन्ध से बड़े प्रसन्न हुए.
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मेरे भाइयों ने जब सुना कि तारा का विवाह, एक तालुकेदार के विलासी लड़के से, जो सामूली हिन्दी पढ़ा- लिखा है, तै हुआ है, तो उन्होंने इसका बहुत विरोध किया. किन्तु उनके विरोध को कौन सुनता था. पिता जी तो अपनी हठ पकड़े थे, उनकी समझ में इससे अच्छा घर और वर मेरे लिए कहीं मिल ही न सकता था. सबसे अधिक आकर्षक बात तो उनके लिए थी वह कि वर बहुत बड़े खानदान, बीस बिस्वे कनवजियों के घर का लड़का था. फिर राजा से रिश्तेदारी करके क़स्बे में उनकी इज़्ज़त बढ़ न जायगी क्या! इसके अतिरिक्त, विवाह का प्रस्ताव भी तो स्वयं राजा साहब ने ही किया था नहीं तो भला मामूली हैसियत के मेरे पिता जी यह प्रस्ताव कैसे ला सकते थे? सबसे बढ़कर बात तो यह थी कि दहेज के नाम से कुछ न देकर भी लड़की इतने बड़े घर में व्याही जाती थी; फिर भला इतने बड़े-बड़े आकर्षणों के होते हुए भी पिता जी इस प्रस्ताव को कैसे टाल देते?
पिता जी मेरी किस्मत की सराहना करके कहते, मेरी तारा तो रानी बनेगी. रानी बनने की ख़ुशी में मैं फूली-फूली फिरती थी! भाइयों का विरोध करना, मुझे अच्छा न लगता, किन्तु मैं उनके सामने कुछ कह न सकती थी. खैर, भाइयों के बहुत विरोध करने पर भी मेरा विवाह मंझले राजा मनमोहन के साथ हो ही गया.
फूलों से सजी हुई मोटर पर बैठकर मैं ससुराल के लिए रवाना हुई. हमारे क़स्बे और ललितपुर के बीच में केवल सत्ताइस मील का अंतर था; इसलिए बारात मोटरों से ही आई और गई थी. जीवन में पहली बार मोटर पर बैठी थी. मुझे ऐसा मालूम होता जैसे हवा में उड़ रही हूं. सत्ताइस मील तक मोटर पर बैठने के बाद भी जी न भरा था. यही चाहती थी कि रास्ता लंबा होता जाए और मैं मोटर पर घूमा करूं. किंतु क्या यह संभव था? आख़िर को एक बड़े भारी महल के जनाने दरवाज़े पर मोटर जाकर खड़ी हो गई. सास तो थी ही नहीं, इसलिए मेरी जिठानी बड़ी रानी जी परछन कर मुझे उतार ले गईं. मुझे एक बड़े भारी सजे हुए कमरे में बिठा दिया गया, स्त्रियां बारी-बारी से मुंह खोल के देखने लगीं. कोई रुपया, कोई छोटे-मोटे जेवर या कपड़े मेरी मुंह-दिखाई में दे-देकर जाने लगीं. मेरी जिठानी बड़ी रानी ने भी मेरा मुंह देखा, कुछ बोली नहीं, ‘उंह’ करके मेरी अंगुली में अंगूठी पहना दी.
मैंने सुना कि वे पास के किसी कमरे में किसी से कह रही थीं, देखा बहू को? क्या तारीफ के पुल बांध रहे थे. ससुर जी के कहने से तो बस यही मालूम होता था कि इंद्र की अप्सरा ही होगी! पर न रूप न रंग, न जाने क्यों सुंदर कह-कह के कंगले की बेटी ब्याह अपनी इज्जत हलकी की. रोटी-बेटी का व्यवहार तो अपनी बराबरी वालों में होता है, बिरजू की मां! पर ससुर जी तो इसके रूप पर बिलकुल लट्ट ही हो गए थे. मैं सुंदर नहीं तो क्या मुझे सुंदरता की परख भी नहीं है? न जाने कितनी सुंदरियां देखी हैं, यह तो उनके पैरों की धूल के बराबर भी न होगी. मालूम होता है, उमर के साथ-साथ ससुर जी की आंखें भी सठिया गई हैं, मंझले राजा को डुबो दिया.
बिरजू की मां उनकी हां में हां मिलाती हुई बोली, ‘सुंदर तो है रानी जी! जैसी आप लोग हैं वैसी ही है. पर अभी बच्ची है. जवान होगी तो रूप और निखर आएगा.’
बड़ी रानी तिलमिला उठीं और बोली, रूप निखरेगा पत्थर! होनहार बिरवान के होत चीकने पात. निखरने वाला रूप सामने ही दिखता है.
फिर वे जग विरक्ति के भाव में बोली, उंह, जाने भी दो, अच्छा हो या बुरा हमें करना ही क्या है?
जब मैं वहां अकेली रह गई, सारी औरतें चली गईं तो मेरी मां के घर की खवासन ने, सूना कमरा देखकर, मेरा मुंह खोल दिया. शीशा उठाकर मैंने एक बार अपना मुंह ध्यान से देखा, फिर रख दिया. ढूंढ़ने से भी मुझे अपने रूप-रंग में कोई ऐब न मिला.
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पहली बार केवल पांच दिन ससुराल में रहकर मैं अपने पिता के साथ मैके आ गई. ससुराल के पांच दिन मुझे पांच वर्ष की तरह मालूम हुए. मैंने जो रानीपने का सुनहला सपना देखा था, वह दूर हो चुका था. ससुराल से लौटकर मैंने तो कुछ नहीं कहा, किंतु खवासन ने वहां के सब हाल-चाल बतलाए. मां ने कहा, तो क्या रानी केवल कहने के लिए होती हैं? भीतर का हाल हमारे घरों से भी गया-बीता होता है?
मैं अपनी मां के साथ मुश्किल से महीना-सवा महीना ही रह पाई थी कि मुझे बुलाने के लिए ससुराल से संदेशा आया. राजाओं की इच्छा के विरुद्ध तिल भर भी मेरे पिता जी कैसे जाते? न चाहते हुए भी उन्हें मेरी विदाई करनी पड़ी. इतनी जल्दी ससुराल जाना मुझे ज़रा भी अच्छा न लगा; परंतु क्या करती, लाचार थी. सावन में, जबकि सब लड़कियां ससुराल से मैके आती हैं, मैं ससुराल रूपी क़ैदखाने में बंद होने चली. देवर के साथ फिर मोटर पर बैठी. इस बार मैंने अपना छोटा-सा हारमोनियम भी साथ रख लिया था.
फिर ससुराल पहुंची. पहली बार तो मेरे साथ मां के घर की खवासन थी, इस बार उस हारमोनियम और थोड़ी-सी पुस्तकों को छोड़कर कुछ न था. मेरा जी एक कमरे में चपुचाप बैठे-बैठे घबराया करता. घर में कोई ऐसा न था जिससे घंटे-दो घंटे बातचीत करके जी बहलाती. केवल छोटे राजा, मेरे देवर की बातें मुझे अच्छी लगती थीं. किंतु वे भी मेरे पास कभी-कभी, और अधिकतर बड़ी रानी की नज़र बचाकर ही आते थे. मैं सारे दिन पुस्तकें पढ़ा करती, पर पुस्तकें थी ही कितनी? आठ-दस बार पढ़ गई. छोटे राजा कभी-कभी मुझे अखबार भी ला दिया करते थे किंतु सबकी आंख बचाकर.
घर में सब काम के लिए नौकर-चाकर और दास-दासियां थीं. मुझे घर में कोई काम न करना पड़ता था. मेरी सेवा में भी दो दासियां सदा बनी रहती थीं पर मुझे तो ऐसा मालूम होता था कि मैं उनके बीच में क़ैद हूं, क्योंकि मेरी राई-रत्ती भी बड़ी रानी के पास लगा दी जाती थी. उन दासियों में से यदि मैं किसी को किसी काम से कहीं भेजना चाहती तो वे मेरे कहने मात्र से ही कहीं न जा सकती थीं, उन्हें बड़ी रानी से हुक्म लेना पड़ता था. यदि उधर से स्वीकृति मिल जाती तो मेरा काम होता, अन्यथा नहीं. इसी प्रकार हर माह मुझे ख़जाने से हाथ-ख़र्च के लिए डेढ़ सौ रुपए मिलते थे; किंतु क्या मजाल कि उनमें एक पाई भी महाराजा से पूछे बिना ख़र्च कर दूं. भीतर के शासन की बागडोर बड़ी रानी के हाथ में थी, और बाहर की महाराजा मेरे ससुर के हाथ में. मेरे पति मंझले राजा, बड़े ही विलासप्रिय, मदिरा-सेवी, शिकार के शौकीन और न जाने क्या-क्या थे, मैं क्या बताऊं! वे बहुत सुंदर भी थे. किंतु उनके दर्शन मुझे दुर्लभ थे. चार-छ दिन में कभी घंटे-आध घंटे के लिए वे मेरे कमरे में आ जाते तो मेरा अहोभाग्य समझो. उनकी रूप-माधुरी को एक बार जी-भर पीने के लिए मेरी आंखें आज तक प्यासी हैं किंतु मेरे जीवन में यह अवसर कभी न आया.
इस दिखावटी वैभव के अंदर मैं किसी प्रकार अपने जीवन को घसीटे जा रही थी. इसी समय मेरे अंधकारपूर्ण जीवन में प्रकाश की एक सुनहली किरण का आगमन हुआ.
छोटे राजा की उमर सत्रह-अठारह साल की थी. वे बड़े नेक और होनहार युवक थे. घर में पढ़ने-लिखने का शौक़ केवल उन्हीं को था. छोटे राजा मैट्रिक की तैयारी कर रहे थे और एक मास्टर बाबू उन्हें पढ़ाया करते थे. घर में आने-जाने की उन्हें पूर्ण स्वतंत्रता थी. घर में स्त्रियों की आवश्यक वस्तुएं बाहर से मंगवा देना भी मास्टर बाबू के ही जिम्मे था. इसलिए वे घर में सबसे ज़्यादा परिचित थे.
विवाह के बाद से ही बड़ी रानी मुझसे नाराज थीं. उन्हें मेरी चाल-ढाल, रहन-सहन ज़रा भी न सुहाती. वे हर बात में मेरे ऐब निकालने की फिराक में रहतीं. तिल का ताड़ बनाकर, मेरी ज़रा-ज़रा-सी बात को वे परिचित या अपरिचित, जो कोई आता उससे कहतीं. शायद वे मेरी सुंदरता को मेरे ऐबों से ढंक देना चाहती थीं. यही बात उन्होंने मास्टर बाबू के साथ भी की. वे तो घर में रोज़ ही आते थे, और रोज़ उनसे मेरी शिकायत होने लगी. किंतु इसका असर उलटा ही हुआ. मैंने देखा, तिरस्कार की जगह मास्टर बाबू का व्यवहार मेरे प्रति अधिक मधुर और आदरपूर्ण होने लगा.
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छोटे राजा को मेरा गाना बहुत अच्छा लगता. वे बहुधा मुझसे गाने के लिए आग्रह करते. मुझे तो अब गाने-बजाने की ओर कोई विशेष रुचि रह नहीं गई थी; किंतु छोटे राजा के आग्रह से मैं अब भी कभी-कभी गा दिया करती थी. एक दिन की बात है. जाड़े के दिन थे किंतु आकाश बादलों से ढंका था. मैं अपने कमरे में बैठी एक मासिक पत्रिका के पन्ने उलट रही थी. इतने में छोटे राजा आए और मुझसे बोले, मंझली भाभी कुछ गाकर सुनाओ.
मैंने बहुत टाल-मटोल की, किंतु छोटे राजा न माने और उन्होंने बाजा उठाकर सामने रख ही दिया. मैंने हारमोनियम पर गीत गोविंद का यह पद छेड़ा-
‘विहरत हरिरिह सरस बसन्ते.’
नृत्यति युवति जनेन् समं सखि विरहि जनस्य दुरन्ते.
ललित लवंग लता परिशीलन कोमल मलय समीरे.
मधुकर निकर करम्बित कोकिल कुजत कुंज कुटीरे.’
मास्टर बाबू भी, न जाने कैसे और कहां से, आए और पीछे चुपचाप खड़े हो गए. छोटे राजा की मुस्कुराहट से मैं भांप गई; पीछे फिर कर जो उन्हें देखा तो हारमोनियम सरका कर मैं चुपचाप बैठ गई.
वे भी हंसकर वहीं बैठ गए, बोले, ‘मंझली रानी! आप इतना अच्छा गा सकती हैं, मैंने आज ही जाना.’
छोटे राजा, ‘अच्छा न गाती होतीं तो क्या मैं मूर्ख था, जो इनके गाने के पीछे अपना समय नष्ट करता?’
इधर यह बातें हो ही रहीं थीं कि दूसरी तरफ़ से पैर पटकती हुई बड़ी रानी कमरे में आईं, क्रोध से बोलीं, ‘यह घर तो अब भले आदमी का घर कहने लायक रह ही नहीं गया है. लाज-शरम तो सब जैसे धो के पी लो हो. बाप रे बाप! हद हो गई. जैसे हल्के घर की है, वैसी ही हल्की बातें यहां भी करती है. पास-पड़ोस वाले सुनते होंगे तो क्या कहते होंगे? यही न, कि मंझले राजा की रानी रंडियों की तरह गा रही हैं. बाबा! इस कुल में तो ऐसा कभी नहीं हुआ. कुल को तो न लजवाओ देवी! बाप के घर जाना तो भीतर क्या चाहे सड़क पर गाती फिरना. किन्तु यहां यह सब न होने पावेगा. तुम्हें क्या? घर के भीतर बैठी-बैठी चाहे जो कुछ करो, वहां आदमियों की तो नाक कटती है.’
एक सांस में इतनी सब बातें कहके बड़ी रानी चली गईं.
मैंने सोचा, शराब पीकर रंडियों की बांह में बांह डाल कर टहलने में नाक नहीं कटती. ग़रीबों पर मनमाने जुल्म करने पर नाक नहीं कटती. नाक कटती है मेरे गाने से, सो अब मैं बाजे को कभी हाथ ही न लगऊंगी. उस दिन से फिर मैंने बाजे को कभी नहीं छुआ; और न छोटे राजा ने ही कभी मुझसे गाने का आग्रह किया. यदि वे आग्रह करते, तब भी मुझ में बाजा छूने का साहस न था.
इस घटना के कई दिन बाद एक दिन मास्टर बाबू छोटे राजा को पढ़ा कर ऊपर से नीचे उतर रहे थे, और मैं नीचे से ऊपर जा रही थी. आखिरी सीढ़ी पर ही मेरी उनसे भेंट हो गई; वे ठिठक गए, बोले-
‘कैसी हो मंझली रानी?’
‘जीती हूं.’
‘ख़ुश रहा करो; इस प्रकार रहने से आखिर कुछ लाभ?’
‘जी को कैसे समझाऊं, मास्टर बाबू?’
‘अच्छी-अच्छी पुस्तकें पढ़ा करो; उनसे अच्छा साथी संसार में तुम्हें कोई न मिलेगा.’
‘पर मैं अच्छी-अच्छी पुस्तकें लाऊं कहां से?’
‘लाने का जिम्मा मेरा!’
‘यदि आप अच्छी पुस्तकें ला दिया करें तो इससे अच्छी और बात ही क्या हो सकती है?’
‘यह कौन बड़ी बात है मंझली रानी! मेरे पास बहुत-सी पुस्तकें रखी हैं. उनमें से कुछ मैं तुम्हें ला दूंगा.’
इस कृपा के लिये उन्हें धन्यवाद देती हुई मैं ऊपर चली और वे बाहर चले गए. मैंने ऊपर आंख उठा कर देखा तो बड़ी रानी खड़ी हुई, तीव्र दृष्टि से मेरी ओर देख रही थीं. मैं कुछ भी न बोलकर नीची निगाह किए हुए अपने कमरे में चली गई.
***
दूसरे दिन मास्टर बाबू समय से कुछ पहले ही आए. उनके हाथ में कुछ पुस्तकें थीं. वे छोटे राजा के कमरे में न जाकर सीधे मेरे कमरे में आए; और बाहर से ही आवाज़ दी, किन्तु दोनों दासियों में से इस समय एक भी हाजिर न थी. इसलिये मैंने ही उनसे कहा-आइए मास्टर बाबू! वे आकर बैठ गए. किताबों और लेखक के नाम बतला कर वे मुझे किताबें देने लगे. ये महात्मा गांधी की ‘आत्मकथा’ के दोनों भाग हैं. यह है बाबू प्रेमचन्द्र जी की ‘रंग-भूमि’; इसके भी दो भाग हैं. यह मैथली बाबू का ‘साकेत’ और यह पंत जी का ‘पल्लव’. इसके अतिरिक्त और भी बहुत-सी पुस्तकें हैं. इन्हें तुम पढ़ लोगी, तब मैं तुम्हें और ला दूंगा.
इसके बाद वे ‘साकेत उठाकर, उर्मिला से लक्ष्मण की बिदा का जो सुन्दर चित्र मैथली बाबू ने अंकित किया है, मुझे पढ़ कर सुनाने लगे. इतने ही में मुझे वहां बड़ी रानी की झलक दीख पड़ी और उसके साथ मेरे कमरे के दोनों दरवाज़े फटाफट बन्द हो गए. मास्टर बाबू ने एक बार मेरी तरफ़ फिर, दरवाज़े की तरफ़ देखा; फिर वे बोले-भाई, यह दरवाज़ा किसने बन्द कर दिया है? खोल दो.
जब कोई भी उत्तर न मिला तो मुझे क्रोध आ गया. मैंने तीव्र स्वर में कहा-यह दरवाज़ा किसने बन्द किया है? खोलो; क्या, मालूम नहीं है कि हम लोग भीतर बैठे हैं?
बड़ी रानी की कर्कश आवाज़ सुनाई दी, ‘ठहरो, अभी खोल दिया जायगा. तुम लोग भीतर हो यही दिखाने के लिए तो दरवाज़ा बन्द किया गया है. पर देखने वाले भी तो ज़रा आ जाएं. यह नारकीय लीला अब ज्यादा दिन न चल सकेगी.’
‘नारकीय लीला!’मेरा माथा ठनका, हे भगवान! क्या पुस्तक पढ़ना भी ‘नारकीय लीला है? इस प्रकार लगभग 15 मिनट हम लोग बन्द रहे. ग़ुस्से में मास्टर बाबू का चेहरा लाल हो रहा था. उधर बाहर बड़े राजा, मंझले राजा और महाराजा जी की आवाज़ मुझे सुनाई दी और उसके साथ ही कमरे का दरवाज़ा खुल गया.
बड़ी रानी बोली-मेरी बातों पर तो कोई विश्वास ही नहीं करता था. अब अपनी अपनी आंखों से देखो. आंखें धोखा तो नहीं खा रही हैं? आज तक मैंने मंझले राजा की विलासी मूर्ति देखी थी. आज मैंने उनका रुद्र रूप भी देखा. क्रोध से पैर पटकते हुए वे बोले, ‘किरणकुमार, इस कमरे में तुम किसके हुक्म से आए?’
मास्टर बाबू भी उसी स्वर में बोले, ‘मुझे किस कमरे में जाने का हुक्म नहीं है?’
बड़े राजा, ‘मास्टर बाबू, अब यहां से चले जाओ, इसी में तुम्हारी कुशल है.’
वे, ‘मुझे ऐसी कुशल नहीं चाहिए. मैं पापी नहीं हूं जो कायर की तरह भाग जाऊंगा. जाने से पहिले मैं आप को बतला देना चाहता हूं कि मैं और मंझली रानी दोनों ही पवित्र और निर्दोष हैं. यह हरक़त ईर्ष्या और जलन के ही कारण की गई है.’
बड़ी रानी गरज उठीं, ‘उलटा चोर कोतवाल को डांटे! चोरी की चोरी, उस पर भी सीना जोरी. मैं! मैं ईर्ष्या करूंगी तुमसे? तुम हो किस खेत की मृली? मैं तुम्हें समझती क्या हूं? तुम हो एक अदना से नौकर और यह है कल की छोकरी; सो भी किसी रईस के घर की नहीं. ईर्ष्या तो उससे की जाती है जो अपनी बराबरी का हो. फिर बड़े राजा की तरफ़ मुड़कर बोलीं-तुम इसे ठोकर मार के निकलवा क्यों नहीं देते? तुम्हारे सामने ही खड़ा-खड़ा जबान लड़ा रहा है, और तुम सुन रहे हो; पहले ही कहा था कि नौकर-चाकर को ज़्यादा मुंह न लगाया करो.’
महाराज बड़े गुस्से से बोल, ‘किरण कुमार चले जाओ.’
इसी समय न जाने कहां से छोटे राजा आ पड़े और मास्टर बाबू को ज़बरदस्ती पकड़कर अपने साथ लिवा ले गए. वे चले गए. मुझपर क्या बात होगी, कहने की आवश्यकता नहीं, समझ लेने की बात है. नतीजा सब का यह हुआ कि उसी दिन एक चिट्ठी के साथ सदा के लिए मैं विदा कर दी गई. एक इक्के पर बैठाल कर चपरासी मुझे मां के घर पहुंचाने गया. चिट्ठी मेरे पिता जी के नाम थी, जिसमें लिखा था कि ‘आपकी पुत्री भ्रष्टा है. इसने हमारे कुल में दाग़ लगा दिया है. इसके लिए अब हमारे घर में जगह नहीं है.’ बात की बात में सारे मुहल्ले भर में मेरे भ्रष्टाचरण की बात फैल गई. यहां तक कि मेरे पिता के घर पहुंचने से पहले ही यह बात पिता जी के घर तक भी पहुंच गई थी.
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जब मैं पिता जी के घर पहुंची, शाम हो चुकी थी. इस बीच माता जी का देहान्त हो चुका था. भाई भी तीनों, कॉलेज में थे. घर पर मुझे केवल पिता जी मिले; उन्होंने मुझे अन्दर न जाने दिया; बाहर दालान में ही बैठाया. चिट्ठी पढ़ने के बाद वे तड़प उठे, बोले-जब यह भ्रष्ट हो चुकी है तो इसे यहां क्यों लाए? रास्ते में कोई खाई, खन्दक न मिला, जहां ढकेल देते? इसे मैं अपने घर रक्खूंगा? जाय, कहीं भी मरे. मुझे क्या करना है? मैं पिता जी के पैरों पर लोट गई; रोती-रोती बोली, ‘पिता जी, मैं निर्दोष हूं.’पिता जी दो क़दम पीछे हट गए और कड़क कर बोले, ‘दूर रह चांडालिन निर्दोष ही तू होती तो इतना यह बवंडर ही क्यों उठता? उन्हें क्या पागल कुत्ते ने काटा था जो बैठे-बैठाए अपनी बदनामी करवाते? जा, जहां जगह मिले, समा जा. मेरे घर में तेरे लिए जगह नहीं है. क्या करें अंगरेजी राज्य न होता तो बोटी-बोटी काट के फेंक देता.’
इस होहल्ला में समाज के कई ऊंची नाक वाले अगुया और कई पास-पड़ोस वाले भी जमा हो गए. सबने मेरे भ्रष्टाचरण की बात सुनी और घृणा से मुंह बिचकाया. एक बोला, ‘नहीं भाई, अब तो यह घर में रखने लायक नहीं. जब ससुरालवालों ने ही निकाल दिया तो क्या पंडित रामभजन अपने घर रख कर जात में अपना हुक्का-पानी बन्द करवावेंगे.’ दूसरे ने पिता जी पर पानी चढ़ाया, ‘अरे भाई! घर में रखें तो रखने दो, इनकी लड़की है; पर हम तो पंडित जी के दरवाज़े पर पैर न देंगे.’
मैं फिर एक बार भीतर जाने के लिए दरवाज़े की तरफ़ झुकी; किन्तु पिता जी ने एक झटके के साथ मुझे दरवाज़े से कई हाथ दूर फेंक दिया. कुल में दाग़ तो मैंने लगा ही दिया था, वे मुझे घर में रखकर क्या जात बाहर भी हो जाते? मैं दूर जा गिरी और गिर कर बेहोश हो गई. मुझे जब होश आया है. मेरे घर का दरवाज़ा बन्द हो चुका था, और मुहल्ले भर में सन्नाटा छाया था. केवल कभी-कभी एक-दो कुत्तों के भूंकने का शब्द सुन पड़ता था. मैं उठी; बहुत कुछ सोचने के बाद स्टेशन की तरफ़ चली. एक कुत्ता भूंक उठा जैसे कह रहा हो कि अब इस मुहल्ले में तुम्हारे लिए जगह नहीं है.
जब मैं स्टेशन पहुंची एक गाड़ी तैयार खड़ी थी. बिना कुछ सोचे-विचारे मैं गाड़ी के एक जनाने डिब्बे में बैठ गई. गाड़ी कितनी देर तक चलती रही, कहां-कहां खड़ी हुई, कौन-कौन से स्टेशन बीच में आए, मुझे कुछ पता नहीं; किंतु सबेरे जब ट्रेन कानपुर पहुंचकर रुक गई और एक रेलवे कर्मचारी ने आकर मुझे उतरने को कहा तो मैं जैसे चौंक-सी पड़ी. मैंने देखा पूरी ट्रेन यात्रियों से ख़ाली हो गई है, स्टेशन पर भी यात्री बहुत कम थे. ट्रेन से उतरकर मेरी समझ में ही न आता था कि कहां जाऊं. कल इस समय तक जो एक महल की रानी थी, आज उसके खड़े होने के लिए भी स्थान न था. बहुत देर बाद मुझे एकाएक ख़याल आया कि सत्याग्रह-संग्राम तो छिड़ा ही हुआ है, क्यों न मैं भी चलकर स्वयंसेविका बन जाऊं और देश-सेवा में जीवन बिता दूं. पूछती हुई मैं किसी प्रकार कांग्रेस-दफ्तर पहुंची. वहां पर दो-तीन व्यक्ति बैठे थे, उन्होंने मुझे पूछा कि मेरे पास किसी कांग्रेस कमेटी का प्रमाण-पत्र है? मैंने कहा ‘नहीं.’ तो उन्होंने मुझे स्वयंसेविका बनाने से इनकार कर दिया.
इसके बाद मैं इसी प्रकार कई संस्थाओं और सुधारकों के दरवाज़े-दरवाज़े भटकी. किंतु मुझे कहीं भी आश्रय न मिला. विवश होकर मैं भूखी-प्यासी चल पड़ी. किंतु जाती कहां? थककर एक पेड़ के नीचे बैठ गई. मैंने अपनी अवस्था पर विचार किया. मैं आज रानी से पथ की भिखारिन हो चुकी थी, मेरे सामने अब भिक्षावृत्ति को छोड़कर दूसरा उपाय ही क्या था. इसी समय न जाने कहां से एक भिखारिन बुढ़िया भी उसी पेड़ के नीचे कई छोटी-छोटी पोटलियां लिए हुए आकर बैठ गई. बड़े इत्मीनान के साथ अपने दिन-भर के मांगे हुए आटे, दाल, चावल को अपने चीथड़े में अच्छी तरह बांधकर बुढ़िया ने मेरी तरफ़ देखा. मैंने भी उसकी ओर देखा. दुःख में भी एक प्रकार का आकर्षण होता है, जिसने क्षण-भर में ही हम दोनों को एक कर दिया. भिखारिन बहुत बूढ़ी थी, उसे आंख से कम दिख पड़ता था. भिक्षा-वृत्ति करने के लिए अब उसे किसी साथी या सहारे की ज़रूरत थी. मैं उसी के साथ रहने लगी.
कई बार मैंने आत्महत्या करनी चाही किंतु उस समय ऐसा मालूम होता कि जैसे कोई हाथ पकड़ लेता हो. मैं आत्मघात भी न कर सकी. लगातार एक साल तक भिखारिन के साथ रहकर मुझे भीख मांगना न आया. आता भी कैसे? मैं बुढ़िया का हाथ पकड़कर उसे सहारा देती हुई चलती, भीख वही मांगा करती. मैं जवान थी, सुंदर थी, फटे-चीथड़े और मैले-कुचैले वेश में भी मैं अपना रूप न छिपा सकती, मेरा रूप ही हर जगह मेरा दुश्मन हो जाता. अपने सतीत्व की रक्षा हेतु मुझे बहुत सचेत रहना पड़ता था और इसीलिए मुझे जल्दी-जल्दी स्थान बदलना पड़ता था.
मेरे बदन की साड़ी फटकर तार-तार हो ग़ई थी. बदन ढंकने के लिए साबित कपड़ा भी न था. प्रयाग में माघी अमावस्या के दिन बड़ा भारी मेला लगता है. बुढ़िया ने कहा, वहां चलने पर हमें तीन-चार महीने भर खाने को मिल जाएगा और कपड़ों के लिए पैसे भी मिल जाएंगे. मैं बूढ़ी के साथ पैदल ही प्रयाग के लिए चल पड़ी.
मांगते-खाते कई दिनों में हम लोग प्रयाग पहुंचे. यहां पूरे महीने भर मेला रहता है. दूर-दूर के बहुत से यात्री आते हैं. हम लोग रोज़ सड़क किनारे एक कपड़ा बिछाकर बैठ जाते और दिन-भर भिक्षा मांगकर शाम को एक पेड़ के नीचे अलाव जलाकर सो जाते. एक दिन इसी प्रकार शाम को जब हम दिन भर की भिक्षावृत्ति के बाद लौट रहे थे, एक बग्धी निकली जिसमें कुछ स्त्रियां थीं. बुढ़िया एक पैसे के लिए हाथ फैलाकर गाड़ी के पीछे-पीछे दौड़ी. कुछ देर बाद गाड़ी के अंदर से एक पैसा फेंका गया. शाम को घुंधले प्रकाश में बुढ़िया जल्दी पैसा देख न सकी. वह पैसा देखने के लिए कुछ देर झुकी रही. उसी समय, एक मोटर पीछे से और एक सामने से आ गई. बुढ़िया ने बचना चाहा, मोटर वाले ने भी बहुत बचाया, पर बुढ़िया मोटर की चपेट में आ ही गई. उसे गहरी चोट लगी और उसे बचाने की चेष्टा में मुझे भी काफ़ी चोट आई. जिस मोटर की चपेट हम लोगों को लगी थी, उस मोटर वाले ने पीछे मुड़कर देखा भी नहीं, किंतु दूसरी मोटर वाले रुक गए. उसमें से दो व्यक्ति उतरे. मेरे मुंह से सहसा एक चीख निकल गई….
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कई दिनों तक लगातार बुख़ार के बाद जिस दिन मुझे होश आया, मैंने अपने आपको एक जनाने अस्पताल के परदा वार्ड के कमरे में पाया. एक खाट पर मैं पड़ी थी, मेरे पास ही दूसरी खाट पर भिखारिन मरणासन्न अवस्था में पड़ी थी. मैं खाट से उठकर बैठने लगी तो मास्टर बाबू पास ही कुर्सी पर बैठे कुछ पढ़ रहे थे. मुझे उठते देखकर पास आकर बोले, अभी आप न उठें. बिना डॉक्टर की अनुमति के आपको खाट से उठना नहीं है.
‘क्यों? मैं पथ की भिखारिन, मुझे ये साफ़-सुथरे कपड़े, नरम-नरम बिछौने क्यों चाहिए? कल से तो मुझे फिर वही गली-गली की ठोकर खानी पड़ेगी न?’
उनकी बड़ी-बड़ी आंखें सजल हो गईं. वे बड़े ही करुण स्वर में बोले, ‘मंझली रानी! क्या तुम मुझे क्षमा न करोगी? तुम्हारा अपराधी तो मैं ही हूं न? मेरे ही कारण तो आज तुम राजरानी से पथ की भिखारिन बन गई हो.’
जब मुझे उन्होंने ‘मंझली रानी’ कहकर बुलाया तो मैं चौंक पड़ी. सहसा मेरे मुंह से निकल गया, ‘मास्टर बाबू!’
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दो-तीन दिन में मैं पूर्णतया स्वस्थ हो गई. परंतु भिखारिन की हालत न सुधर सकी, एक दिन उसने अपनी जीवन-लीला समाप्त कर दी. उसके अंतिम संस्कारों से निवृत्त होकर मैं मास्टर बाबू के साथ उनके बंगले में रहने लगी. किंतु मैं अभी तक नहीं जान सकी कि वे मेरे कौन हैं? वे मुझ पर माता की तरह ममता और पिता की तरह प्यार करते हैं, भाई की तरह सहायता और मित्र की तरह नेक सलाह देते हैं, पति की तरह रक्षा और पुत्र की तरह आदर करते हैं. कुछ न होते हुए भी वे मेरे सब कुछ हैं. और सब कुछ होते हुए भी वे मेरे कुछ नहीं हैं.
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