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सच बोलने की भूल: कहानी मानवीय मनोविज्ञान की (लेखक: यशपाल)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
April 22, 2022
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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सच बोलने की भूल: कहानी मानवीय मनोविज्ञान की (लेखक: यशपाल)
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कभी-कभी झूठ बोलना अधिक सुविधाजनक होता है, पर सच तो सच ही होता है. न चाहते हुए भी बाहर आ ही जाता है. सच या झूठ बोलने की अजीब कशमकश यशपाल की कहानी ‘सच बोलने की भूल’ में रोचक तरीक़े से बताई गई है.

शरद के आरम्भ में दफ्तर से दो मास की छुट्टी ले ली थी. स्वास्थ्य सुधार के लिए पहाड़ी प्रदेश में चला गया था. पत्नी और बेटी भी साथ थीं. बेटी की आयु तब सात वर्ष की थी. उस प्रदेश में बहुत छोटे-छोटे पड़ाव हैं. एक खच्चर किराए पर ले लिया था. असबाब खच्चर पर लाद लेते थे और तीनों हंसते-बोलते, पड़ाव-पड़ाव पैदल यात्रा कर रहे थे. रात पड़ाव की किसी दुकान पर या डाक-बंगले में बिता देते थे. कोई स्थान अधिक सुहावना लग जाता तो वहां दो रात ठहर जाते.
एक पड़ाव पर हम लोग डाक बंगले में ठहरे हुए थे. वह बंगला छोटी-सी पहाड़ी के पूर्वी आंचल में है. बंगले के चौकीदार ने बताया-साहब लोग आते हैं तो चोटी से सूर्यास्त का दृश्य ज़रूर देखते हैं. चौकीदार ने बता दिया कि बंगले के बिलकुल सामने से ही जंगलाती सड़क पहाड़ी तक जाती है.
पत्नी सुबह आठ मील पैदल चल चुकी थी. उसे संध्या फिर पैदल तीन मील चढ़ाई पर जाने और लौटने का उत्साह अनुभव न हुआ परन्तु बेटी साथ चलने के लिए मचल गई.
चौकादीर ने आश्वासन दिया-लगभग डेढ़ मील सीधी सड़क है और फिर पहाड़ी पर अच्छी साफ़ पगडंडी है. जंगली जानवर इधर नहीं हैं. सूर्यास्त के बाद कभी-कभी छोटी जाति के भेड़िए जंगल से निकल आते हैं. भेड़िए भेड़-बकरी के मेमने या मुर्गियां उठा ले जाते हैं, आदमियों के समीप नहीं आते.
मैं बेटी को साथ लेकर सूर्यास्त से तीन घंटे पूर्व ही चोटी का ओर चल पड़ा. सावधानी के लिए टार्च साथ ले ली. पहाड़ी तक डेढ़ मील रास्ता बहुत सीधी-साफ़ था. चढ़ाई भी अधिक नहीं थी. पगडंडी से चोटी तक चढ़ने में भी कुछ कठिनाई नहीं हुई.
पहाड़ की चोटी पर पहुंच कर पश्चिम की ओर बर्फानी पहाड़ों को श्रृंखलाएं फैली हुई दिखाई दीं. क्षितिज पर उतरता सूर्य बरफ से ढंकी पहाड़ी की रीढ़ को छूने लगा तो ऊंची-नीची, आगे–पीछे खड़ी हिमाच्छादित पर्वत-श्रृंखलाएं अनेक इन्द्रधनुषों के समान झलमलाने लगीं. हिम के स्फटिक कणों की चादरों पर रंगों के खिलवाड़ से मन उमग-उमग उठता था. बच्ची उल्लास से किलक-किलक उठती थी.
सूर्यास्त के दृश्य का सम्मोहन बहुत प्रबल था परन्तु ध्यान भी था-रास्ता दिखाई देने योग्य प्रकाश में ही डाक बंगले को जाती जंगलाती सड़क पर पहुंच जाना उचित है. अंधेरे में असुविधा हो सकती है.
सूर्य आग की बड़ी थाली के समान लग रहा था. वह थाली बरफ की शूली पर, अपने किनारे पर खड़ी वेग से घूम रही थी. आग की थाली का शनैः-शनैः बरफ के कंगूरों की ओट में सरकते जाना बहुत ही मनोहारी लग रहा था. हिम के असम विस्तार पर प्रतिक्षण रंग बदल रहे थे. बच्ची उस दृश्य को विश्मय से मुंह खोले देख रही थी. दुलार से समझाने पर भी वह पूरे सूर्य के पहाड़ी की ओट में हो जाने से पहले लौटने के लिए तैयार नहीं हुई.
सहसा सूर्यास्त होते ही चोटी पर बरफ की श्यामल नीलिमा फैल गयी. पहाड़ी की चोटी पर अब भी प्रकाश था पर हम ज्यों-ज्यों पूर्व की ओर नीचे उतर रहे थे, अंधेरा घना होता जा रहा था. आप को भी अनुभव होगा कि पहाड़ों में सूर्यास्त का झुटपुट उजाला बहुत देर तक नहीं बना रहता. सूर्य पहाड़ की ओट में होते ही उपत्यका में सहसा अंधेरा हो जाता है.
मैं पगडंडी पर बच्ची को आगे किए पहाड़ी से उतर रहा था. अब धुंधलका हो जाने के कारण स्थान-स्थान पर कई पगडंडियां निकलती फटती जान पड़ती थीं. हम स्मृति के अनुभव से अपनी पगडंडी पहचानकर नीचे जिस रास्ते पर उतरे, वह डाक बंगले की पहचानी हुई जंगलाती सड़क नहीं जान पड़ी. अंधेरा हो गया था. रास्ता खोजने के लिए चोटी की ओर चढ़ते तो अंधेरा अधिक घना हो जाने और अधिक भटक जाने की आशंका थी. हम अनुमान से पूर्व की ओर जाती पगडंडी पर चल पड़े.
जंगल में घुप्प अंधेरा था. टार्च से प्रकाश का जो गोला सा पगडंडी पर बनता था, उससे कटीले झाड़ों और ठोकर से बचने के लिए तो सहायता मिल सकती थी परन्तु मार्ग नहीं ढूंढ़ा जा सकता था. चौकीदार ने अंचल में आस-पास काफी बस्ती होने का आश्वासन दिया. सोचा-समीप ही कोई बस्ती या झोपड़ी मिल जाएगी, रास्ता पूछ लेंगे.
हम टार्च के प्रकाश में झाड़ियों से बचते पगडंडी पर चले जा रहे थे. बीस-पचीस मिनट चलने के बाद एक हमारा रास्ता काटती हुई एक अधिक चौड़ी पगडंडी दिखाई दे गयी. सामने एक के बजाय तीन मार्ग देखकर दुविधा और घबराहट हुई, ठीक मार्ग कौन सा होगा? अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने की अपेक्षा भटकाव का ही अवसर अधिक हो गया था. घना अंधेरा, जंगल में रास्ता जान सकने का कोई उपाय नहीं था. आकाश में तारे उजले हो गए थे परन्तु मुझे तारों की स्थिति में दिशा पहचान सकने की समझ नहीं है. पूर्व दिशा दायीं ओर होने का अनुमान था इसलिए चौड़ी पगडंडी पर दायीं ओर चल दिए. आधे घंटे चलने पर एक और पगडंडी रास्ता काटती दिखाई दी समझ लिया, हम बहुत भटक गए हैं. मैंने सीधे सामने चलते जाना ही उचित समझा.
जंगल में अंधेरा बहुत घना था. उत्तरी वायु चल पड़ने से सर्दी भी काफी हो गई थी. अपनी घबराहट बच्ची से छिपाए था. बच्ची भयभीत न हो जाए, इसलिए उसे बहलाने के लिए और उसे रुकावट का अनुभव न होने देने के लिए कहानी सुनाने लगा परन्तु बहलाव थकावट को कितनी देर भुलाए रखता! बच्ची बहुत थक गई थी. वह चल नहीं पा रही थी. कुछ समय उसे शीघ्र ही बंगले जाने का आश्वासन देकर उत्साहित किया और फिर उसे पीठ पर उठा लिया. वह मेरे कंधे के ऊपर से मेरे सामने टार्च का प्रकाश डालती जा रही थी. मैं बच्ची के बोझ और थकावट से हांफता हुआ अज्ञात मार्ग पर, अज्ञात दिशा में चलता जा रहा था. मेरी पीठ पर बैठी बच्ची सर्दी से सिहर-सिहर उठती थी और मैं हांफ-हांफ कर पसीना-पसीना हो गया था. कुछ-कुछ समय बाद मैं दम लेने के लिए बच्ची को पगडंडी पर खड़ा करके घड़ी देख लेता था. अधिक रात न हो जाने के आश्वासन से कुछ साहस मिलता था.
हम अजाने जंगल के घने अंधेरे में ढाई घंटे तक चल चुके थे. मेरी घड़ी में साढ़े नौ बज गए तो मेरा मन बहुत घबराने लगा. बच्ची को कहानी सुना कर बहलाना सम्भव न रहा. वह जंगल में भटक जाने के भय से मां को याद कर ठुसक-ठुसक कर रोने लगी. बंगले में अकेली, घबराती पत्नी के विचार ने और भी व्याकुल कर दिया. मेरी टांगें थकावट से कांप रही थीं. सर्दी बहुत बढ़ गई थी. जंगल में वृक्ष के नीचे रात काट लेना भी सम्भव नहीं था. छोटे भेड़िए भी याद आ गए. वहां के लोग उन भेड़ियों से नहीं डरते थे पर छोटी बच्ची साथ होने पर भेड़िए से भेंट की आशंका से मेरा रक्त जमा जा रहा था.
हम जंगल से निकल कर खेतों में पहुंचे तो दस बज चुके थे. कुछ खेत पार कर चुके तो तारों के प्रकाश में कुछ दूरी पर झोपड़ी का आभास, मिला. झोपड़ी में प्रकाश नहीं था. बच्ची को पीठ पर उठाए फसल भरे खेतों में से झोपड़ी की ओर से बढ़ने लगा. झोपड़ी के कुत्ते ने हमारे उस ओर बढ़ने का एतराज़ किया. कुत्ते की क्रोध भरी ललकार से सांत्वना ही मिली. विश्वास हो गया, झोपड़ी सूनी नहीं थी.
पहाड़ों में वर्षा की अधिकता के कारण छतें ढालू बनाई जाती हैं. ग़रीब किसान ढालू छत के भीतर स्थान का उपयोग कर सकने के लिए अपनी झोपड़ियों को दो तल्ला कर लेते हैं. मिट्टी की दीवारें, फूस की छत और चारों ओर कांटों की ऊंची बाड़. किसान लोग नीचे के तल्ले में अपने पशु बांध लेते हैं और ऊपर के तल्ले में उनकी गृहस्थी रहती है.
मैं झोपड़ी की बाड़ के मोहरे पर पहुंचा तो कुत्ता मालिक को चेताने के लिए बहुत जोर से भौंका. झोपड़ी का दरवाज़ा और खिड़की बन्द थे. मेरे कई बार पुकारने और कुत्ते के बहुत उत्तेजना से भौंकने पर झोपड़ी के ऊपर के भाग में छोटी-सी खिड़की खुली झुंझलाहट की ललकार सुनाई दी,‘‘कौन है इतनी रात गए कौन आया है?’’
झोपड़ी के भीतर अंधेरे में से आती ललकार को उत्तर दिय,‘‘मुसाफिर हूं, रास्ता भटक गया हूं. छोटी बच्ची साथ है. पड़ाव के डाक बंगले पर जाना चाहता हूं.’’
खिड़की से एक किसान ने सिर बाहर निकाला और क्रोध से फटकार दिया,‘‘तुम शहरी हो न! तुम आवारा लोगों को देहात में क्या काम? चोरी-चकारी करने आए हो. भाग जाओ नहीं तो काट कर दो टुकड़े कर देंगे और कुत्ते को खिला देंगे.’’
किसान को अपनी और बच्ची की दयनीय अवस्था दिखलाने के लिए अपने ऊपर टार्च का प्रकाश डाला और विनती की,‘‘बाल-बच्चेदार गृहस्थ हूं. चोटी का सूर्यास्त देखने गए थे, भटक गए. पड़ाव के बंगले में बच्चे की मां हमारी प्रतीक्षा कर रही है, बंगले का चौकीदार बता देगा. पड़ाव के डाक-बंगले पर जाना चाहता हूं. रास्ता दिखाकर पहुंचा दो तो बहुत कृपा हो. तुम्हें कष्ट तो होगा, यथाशक्ति मूल्य चुका दूंगा.”
किसान और भी क्रोध से झल्लाया,“पड़ाव और डाक-बंगला तो यहां से सात मील है. कौन तुम्हारे बाप का नौकर है जो इस अंधेरे में रास्ता दिखाने जाएगा. भाग जाओ यहां से, नहीं तो कुत्ते को अभी छोड़ता हूं.’”
क्रुद्ध किसान मुझे झोपड़ी की खिड़की से भाग जाने के लिए ललकार रहा था तो झोपड़ी के ऊपर के भाग में दिया जल जाने से प्रकाश हो गया था और वह दिया खिड़की की ओर बढ़ आया था. दिए के प्रकाश में किसान की छोटी घुंघराली दाढ़ी और लम्बी-लम्बी सामने झुकी हुई मूंछों से ढका चेहरा बहुत भयानक और खूंखार लग रहा था. खिड़की की ओर दिया लाने वाली स्त्री थी.
किसान की बात सुन कर मेरे प्राण सूख गए. समझा कि अंधेरे में बहुत भटक गया हूं. उस अंधेरे, सर्दी और थकान में बच्ची को उठा कर सात मील चल सकना मेरे लिए सम्भव नहीं था. बच्ची के कष्ट के विचार से और भी अधीर हो गया.
बहुत गिड़गिड़ा कर किसान से प्रार्थना की,“भाई, दया करो! मैं अकेला होता तो जैसे-तैसे जाड़े और ओस में भी रात काट लेता परन्तु इस बच्ची का क्‍या होगा? हम पर दया करो. हमें कहीं भीतर बैठ जाने भर की ही जगह दे दो. उजाला होते ही हम चले जाएंगे.”
खिड़की के भीतर किसान के समीप आ बैठी औरत का चौड़ा चेहरा भी किसान की तरह ही बहुत रूख़ा और कठोर था परन्तु उसकी बात से आश्वासन मिला. स्त्री बोली,‘‘अच्छा, अच्छा! उसके साथ बच्ची है. इस समय पड़ाव तक कैसे जाएगा? आने दो, कुछ हो ही जाएगा.”
किसान स्त्री पर झुंझलाया,‘‘क्या हो जाएगा, कहां टिका लेगी इन्हें? शहर के लोग हैं, इनकी मेहमानदारी हमारे बस की नहीं!’”
स्त्री ने उत्तर दिया,“अच्छा-अच्छा, नीचे जाकर कुत्ते को पकड़ो, उन्हें आने तो दो!’
किसान ने नीचे आकर झोपड़ी का दरवाज़ा खोला. कुत्ते को डांट कर चुप करा दिया और हमारे लिए बाड़े का मोहरा खोल दिया. स्त्री भी हाथ में दिया लिए नीचे आ गई थी. किसान और कुत्ता स्त्री के विरोध में असन्तोष से गुर्राते जा रहे थे. किसान बोलता जा रहा था,“बड़े शौक़ीन नवाब हैं सैर करने वाले. चले आए आधी रात में रास्ता भूल कर. कहां टिका लेगी तू इनको?”
स्त्री ने पति को समझाया,‘‘बेचारे भटक कर परेशानी में आ गए हैं तो कुछ करना ही होगा. आने दो, यह लोग ऊपर लेटे रहेंगे. हम लोग यहां नीचे फूस डाल कर गुजारा कर लेंगे.”
किसान बड़बड़ाया,“हम नीचे कहां पड़े रहेंगे? गैया को बाहर निकाल देगी कि मुर्गी को बाहर फेंक देगी?”
झोपड़ी के दरवाज़े में क़दम रखते समय मैंने टार्च से उजाला कर लिया कि ठोकर न लगे. कोठरी के भीतर दीवार के साथ एक गैया जुगाली कर रही थी. टार्च का प्रकाश आंखों पर पड़ा तो गैया ने सिर हिला दिया और अपने विश्राम में विघ्न के विरोध में फुंकार दिया. दूसरी दीवार के समीप उल्टी रखी ऊंची टोकरी के नीचे से भी विरोध में मुर्गी की कुड़कुड़ाहट सुनाई दी. स्त्री ने हाथ में लिए दिए से दीवार के साथ बने जीने पर प्रकाश डाल कर कहा,“हम ग़रीबों का घर ऐसे ही होते हैं. बच्ची को हाथ पकड़ कर ऊपर ले आओ. मैं रोशनी ले चलती हूं.”
किसान असन्तोष से बड़बड़ाता रहा. झोपड़ी के ऊपर के तल्ले में छत बहुत नीची थी. दोनों ओर ढलती छत बीच में धन्‍नी पर उठी थी. धन्नी के ठीक नीचे भी गर्दन सीधी करके खड़े होना सम्भव नहीं था. नीची और संकरी खाट पर गंदे गूदड़ सा बिस्तर था. स्त्री ने बिस्तर की ओर संकेत किया,“तुम यहां पर लेट रहो. हम नीचे गुज़ारा कर लेंगे.”
स्त्री ने कोने में रखे कनस्तरों और सूखी हांडियों में टटोल कर गुड़ का एक टुकड़ा मेरी ओर बढ़ा कर कहा,“बच्ची को खिला कर पानी पिला दो!” उसने कोने में रखे घड़े से लेकर एक लोटा जल खाट के समीप रख दिया.
स्त्री दिया उठा कर जीने की ओर बढ़ती हुई बोली,‘‘क्या करूं, इस समय घर में आटा भी नहीं है. सांझ को ही चुक गया. सुबह ही पनचक्की पर जाना होगा.’’
स्त्री जीने की ओर बढ़ती हुई ठिठक गई. विस्मय से भंवें उठा कर बोली,“हैं! इतनी सी लड़की के गले में मोतियों की कंठी!” उसका स्वर कुछ भीग गया,“हम कुछ करें भी किसके लिए? लड़का-लड़की घर पर थे तब कुछ हौसला रहता था. लड़की सियानी होकर अपने घर चली गई. लड़के को शहर का चस्का लगा है. दो बरस से उसका कुछ पता नहीं. जहां हो…हे देवी माता, लोग उसको भी शरण दें.”
स्त्री नीचे उतर गई. तब भी असन्तुष्ट किसान के बड़बड़ाने की और कुछ उठाने-धरने की आहट आती रही.
बच्ची थोड़ा गुड़ खाकर और जल पीकर तुरन्त सो गई. मुझे गंधाते, गन्दे बिस्तर से उबकाई अनुभव हो रही थी. अपनी असुविधा की चिन्ता से अधिक चिन्ता थी डाक बंगले में हमारी प्रतीक्षा में असहाय पत्नी की. हम दोनों के न लौट सकने के कारण वह कैसे बिलख रही होगी. कहीं यही न सोच बैठी हो कि हम भेड़िया या आतताइयों के हाथ पड़ गए हैं. हमें खोजने के लिए डाक-बंगले के चपरासी को लेकर चोटी की ओर न चल पड़ी हो…
मस्तिष्क में चिन्ता की वेदना और पीठ थकान से इतनी अकड़ी हुई थी कि करवट लेने में दर्द अनुभव होता था. झपकी आती तो पीठ के दर्द और बिस्तर की असुविधा के कारण टूट जाती. करवटें बदलते सोच रहा था-रास्ता दिखाई देने योग्य उजाला हो जाए तो उठकर चल दें.
खिड़की की सांधों से पौ फटती सी जान पड़ी. सोचा-ज़रा उजाला और हो जाए. नीचे सोए लोगों की नींद में विघ्न न डालने का भी ध्यान था. एक झपकी और ले लेना चाहता था कि नीचे से दबी-दबी फुसफुसाहट सुनाई दी.
मर्द कह रहा था,“बहुत थके हुए हैं. सूरज बांस भर चढ़ जाएगा तो भी उनकी नींद नहीं टूटेगी.”
स्त्री सांस के स्वर में बोली,“तुम्हें उन्हें जगा के क्‍या लेना है?… नहीं उठते तो मैं जाऊं?”
“अच्छा जाता हूं!’’
“आह! संभल कर’’ आहट न करो. “गर्दन ऐसे दबा लेना कि आवाज़ न निकले. चीख न पड़े. छुरा ताक में है.”
स्त्री-पुरुष का परामर्श सुन कर मेरे रोम-रोम से पसीना छूट गया. हत्यारों से शरण मांग कर उनके पिंजड़े में बन्द हो गया था. सोचा पुकार कर कह दूं…मेरे पास जो कुछ है ले लो, लड़की के गले की कंठी ले लो और हमारी जान बक्शो.
फिर मर्द की आवाज सुनाई दी,“बेचारी को रहने दूं, मन नहीं करता!’’
स्त्री बोली,‘‘उंह, मन न करने की क्‍या बात है! उसे रहने देकर क्या होगा! कहां बचाते-छिपाते फिरोगे?’’
मैंने आतंक से नींद में बेसुध बच्ची को बांहों में ले लिया. भय की उत्तेजना से मेरा हृदय धक-धक कर रहा था. सोचा, उन्हें स्वयं ही पुकार कर, गिड़गिड़ा कर प्राण-रक्षा के लिए प्रार्थना करूं परन्तु गले ने साथ न दिया. यह भी ख़्याल आया कि यदि वे जान लेंगे कि मैंने उनकी बात सुन ली है तो कभी छोड़ेंगे ही नहीं. अभी तो वे बात ही कर रहे हैं. भगवान उनके हृदय में दया दें. सोचा…यदि किसान के ऊपर आते ही मैं उसे धक्के से नीचे गिरा कर चीख पड़ूं!…पर जाने आस-पास मील दो मील तक कोई दूसरे लोग भी हैं या नहीं!
सहसा दबे हुए गले से मुर्गी के कुड़कुड़ाने की आवाज़ आई. स्त्री का उपालम्भ भरा स्वर सुनाई दिया,“देखो, कहा भी था कि संभल कर गर्दन पर हाथ डालना.’
ओह! यह तो मुर्गी के काटे जाने की मंत्रणा थी. अपने भय के लिए लज्जा से पानी-पानी हो गया.
स्त्री का स्वर फिर सुनाई दिया,‘‘मुर्गी के लिए इतना क्‍यों बिगड़ रहे हो? शहर के बड़े लोगों की बड़ी बातें होती हैं. खातिर से ख़ुश हो जाएं तो बख्शीश में जो चाहें दे जाएं. मामूली आदमी नहीं हैं. लड़की के गले में मोतियों की कंठी नहीं देखी?’’
दूसरी चिन्ता और लज्जा ने मस्तिष्क को दबा लिया. उस समय मेरी जेब में केवल ढाई रुपए थे. बंगले से सूर्यास्त का दृश्य देखने आया था, बाज़ार में ख़रीददारी करने के लिए नहीं. लड़की के गले में कंठी नकली मोतियों की, रुपए सवा की थी. दिए के उजाले में वे देहाती कंठी को क्या परख सकते थे? बहुत दुविधा में सोच रहा था-इन लोगों को क्या उत्तर दूंगा. कुछ बताए बिना चुपचाप ही कंठी दे जाऊं. बाद में चालीस-पचास रुपए मनीआर्डर से भेज दूंगा.
खिड़की की सांधों से काफ़ी सवेरा हो गया जान पड़ा. सोच ही रहा था, लड़की को जगा कर नीचे ले चलूं कि जीने पर क़दमों की चाप सुनाई दी और किसान का चेहरा ऊपर उठता दिखाई दिया.
किसान का चेहरा रात की भांति निर्दय और डरावना न लगा. वह मुस्कराया,‘‘नींद खुल गई! मैं तो जगाने के लिए आ रहा था. धूप हो जाने पर बच्ची को इतनी दूर ले जाने में परेशानी होगी.” किसान ने पुराने अखबार में लिपटी एक बड़ी सी पुड़िया मेरी ओर बढ़ा दी और बोला, “यह लो, यह तुम्हारे ही भाग्य के थे. घर में आटा नहीं था जो दो रोटी बना देते इसीलिए तो मैं तुम्हें रात में हांके दे रहा था पर घरवाली को बच्ची पर तरस आ गया. खेती के लिए ज़मीन ही कितनी है. अंडे बेच कर ही गुज़ारा करते हैं. बरसात के अन्त में पापी पड़ोसी लोगों की मुर्गियों में बीमारी फैली तो हमारी मुर्गियां भी मर गईं. मुर्गियां बचाने के लिए सभी कुछ किया. पीर की दरगाह पर दिए जलाए. मुर्गियों को ढेरों लहसुन खिलाया, सरकारी अस्पताल से दवाई भी लाकर दी पर उसका काल आ गया था, बची नहीं. हां यह मुर्गा बड़े जीवट का था. बीमारी झेल कर भी बच गया था. उसके लिए तुम आ गए. एक छोटी सी मुर्गी काल की आंख से बच कर छिप रही थी, वह बच्ची के लिए हो जाएगी. इस समय तुम्हारा काम चले, हमारा देखा जाएगा!’’
किसान ने पुड़िया मेरे हाथ में दे दी और बोला,“रात के भूखे हो, चाहो तो नीचे चल कर कुल्ला करके मुंह-हाथ धो लो और अभी खा लो मन चाहे तो रास्ते में खा लेना.”
बच्ची को उठाया. उसने उठते ही भूख से व्याकुलता प्रकट की. दोनों ने अख़बार की पुड़िया खोल कर नाश्ता कर लिया.
पेट भर नाश्ता करके मैं संकोच से मरा जा रहा था. किसान और उसकी स्त्री ने बहुत आशा से हमारी ख़ातिर की थी. अपने अन्तिम मुर्गा, चूजा भी हमारे लिए काट दिए थे. मैंने संकोच से कहा,“इस समय मेरी जेब में कुछ है नहीं, केवल ढाई रुपए हैं. अपना नाम पता दे दो, मनीऑर्डर से रुपए भेज दूंगा.” मैंने बच्ची के गले से कंठी उतार कर स्त्री की ओर बढ़ा दी,“चाहे तो यह रख लो!”
स्त्री कंठी हाथ में लेकर प्रसन्नता से किलक उठी,“हाय, इसे तो मैं मठ में चढ़ा कर मानता मानूंगी. हमारी मुर्गियों पर देवताओं की कोप दृष्टि कभी न हो.”
स्त्री की सरलता मेरे मन को छू गई, रह न सका. कह दिया,“तुम्हें धोखा नहीं देना चाहता, कंठी के मोती नकली हैं.”
स्त्री ने कंठी मेरी ओर फेंक दी. घृणा और झुंझलाहट से उंगलियां छिटका कर बोली,“रखो, इसे तुम्हीं रखो. शहर के लोगों से धोखे के सिवा और मिलेगा क्या?”
किसान ठगे जाने से क्रुद्ध हो गया था, वह डाक-बंगले का रास्ता बताने के लिए साथ न चला. दिन का उजाला था. हम राह पूछ-पूछ कर बंगले पर पहुंच गए.
पत्नी डाक-बंगले के सामने अस्त-व्यस्त और विक्षिप्त की तरह धरती पर बैठी हुई दिखाई दी. उसका चेहरा ओस से भीगे सूखे पत्ते की तरह आंसुओं से तर और पीला था. आंखें गुड़हल के फूल की तरह लाल थीं. वह बच्ची को कलेजे पर दबा कर चीखकर रोई और फिर मुझसे चिपट-चिपट कर रोती रही.
पत्नी के संभल जाने पर मैंने उसे रात के अनुभव सुना दिए. रात मेरे और बच्ची के असहाय अवस्था में गला काट दिए जाने के काल्पनिक भय में पसीना-पसीना होकर कांपने की बात सुनकर उसने भी भय प्रकट किया-हाय मैं मर गई.
पत्नी को बच्ची की कंठी के लिए किसान स्त्री के लोभ और कंठी के विषय में सचाई जान कर उनके खिन्न हो जाने की बात भी बता दी.
पत्नी ने मुझे उलाहना दिया,“उन देहातियों को कंठी के बारे में बता खिन्न करने की क्या ज़रूरत थी? कंठी मठ में चढ़ा कर उनकी भावना सन्तुष्ट हो जाती.”
सोचा, किस भूल के लिए अधिक लज्जा अनुभव करूं-काल्पनिक भय में पसीना-पसीना हो जाने की भूल के लिए या सच बोल देने की भूल के लिए!

Illustration: Pinterest

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ओए अफ़लातून

हर वह शख़्स फिर चाहे वह महिला हो या पुरुष ‘अफ़लातून’ ही है, जो जीवन को अपने शर्तों पर जीने का ख़्वाब देखता है, उसे पूरा करने का जज़्बा रखता है और इसके लिए प्रयास करता है. जीवन की शर्तें आपकी और उन शर्तों पर चलने का हुनर सिखाने वालों की कहानियां ओए अफ़लातून की. जीवन के अलग-अलग पहलुओं पर, लाइफ़स्टाइल पर हमारी स्टोरीज़ आपको नया नज़रिया और उम्मीद तब तक देती रहेंगी, जब तक कि आप अपने जीवन के ‘अफ़लातून’ न बन जाएं.

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