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शुभ विजया: डॉ संगीता झा की कहानी

डॉ संगीता झा by डॉ संगीता झा
October 24, 2021
in नई कहानियां, बुक क्लब
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शुभ विजया: डॉ संगीता झा की कहानी
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एक बेवफ़ा पति, एक समर्पित पत्नी, अपने बेटे को प्यार करने वाली सास. शादीशुदा जोड़े की दो बेटियां. दशहरे का दिन. मां दुर्गा, राम और रावण के रूपकों की मदद से बयां किया गया क़िस्सा. लेखिका डॉ संगीता झा की एक और पारिवारिक कहानी.

घर के बाहर बड़ा शोर मच रहा था. हमारे घर के आजु बाजू काफ़ी बंगाली रहते हैं. सब आपस में मिल कर सिंदूर खेला कर रहे थे. बंगाली बहुल इलाक़ा होने से घर से लग कर ही दुर्गा पंडाल था. रोज़ की पूजा, उसमें लगने वाले भोग और शाम के सांस्कृतिक कार्यक्रमों की गूंज सब कुछ ऐसा लगता था मानो हमारे ही घर पर ही हो रहा हो. मैं रोज़ बेटियों को दुर्गा मां की तरह निडर बनने की शिक्षा देती थी. तीन दिन सुनने के बाद छोटी ने पलट कर जवाब दिया,‘‘लुक हू इज़ टेलिंग ऑल दिस? मॉम ख़ुद के गिरेबान में झांको. जो भी आप देवी दुर्गा के बारे में कह रही हैं, ख़ुद पर अमल करो मां. काश… सीख जाती सेल्फ़ प्रेज़र्वेशन.’’
बड़ी बेटी ने कहा,“आर यू मैड छोटू? डोंट यू नो मां हमारी उल्टा घड़ा है. कुछ भी समझाओ पानी की तरह नीचे बह जाता है. अब देखना कल विजयादशमी है फिर अच्छाइयों की बुराइयों पर विजय की सीख देगी.’’
मैंने अब अपने गिरेबान के बदले खिड़की से बाहर झांकना शुरू कर दिया. अपने गिरेबान में झांकने की हिम्मत ही नहीं रही. अब जब सब ख़त्म ही हो चुका है तो ज़िंदगी का ऐक्शन रीप्ले तो होने से रहा. अंदर से सासू मां ने आवाज़ लगाई,“अरे कोई चाय देगा या आज उसकी भी छुट्टी.”
छोटी बेटी मुझ पर चिल्लाई,“जाओ आया बाई जाओ, उनको चाय दो फिर लेक्चर सुनो कि चाय भी बनाना नहीं आता. मां-बाप ने क्या सिखाया है?”
बड़ी बोलती है,“शुड हैव आस्क्ड हर टू मेक हर ओन टी. आई एम टायर्ड हर दिन का ड्रामा. सोच के क्या रखा है मॉम को? एनी वेज़ मैं ही पागल हूं जो इतना सोच रही हूं.’’
छोटी बोली,“छोड़ यार अगर हम मीरा बाई को समझाने चले तो पागल ही हो जाएंगे. इनका तो वही राग है कि स्त्री की असली जगह उसका घर पति और बच्चे हैं. ये और दुर्गा मां…इम्पॉसिबल.”
बेटियों की बहस रुकने का नाम ही नहीं के रही थी और बहस का मुद्दा मैं ही थी. पता नहीं आजकल के बच्चे धर्म की किसी भी मान्यता पर बिना बहस किए नहीं रहते हैं. मेरी ज़िंदगी मेरी दोनो बेटियों और सासू मां के इर्द गिर्द ही घूमती रहती है. पति को मैं आउट डेटेड वाइफ़ लगती हूं और उनके मनोरंजन के दूसरे साधन भी हैं. मेरे बहुत छुपाने के बाद भी अब बेटियां और सासू मां भी उनकी गतिविधियों से भली भांति परिचित थे.
बड़ी बेटी कहने लगी,“अब अपने रावण पति को राम की उपाधि मत देने लगना.’’
छोटी,“क्यों रावण में क्या बुराई है? कम से कम राम से तो अच्छा ही है. बहन की बेज्जती का बदला लेने के लिए राम जी की पत्नी को उठा लाया. महा योद्धा था, बिना परमिशन के सीता को हाथ भी नहीं लगाया. और क्या चाहिए?’’
बड़ी,“स्टूपिड मैं उसके दस चेहरों की बात कर रही हूं. जो इनके पति यानी हमारे पिता के हैं. डोंट यू सी हमारी मंदू (मंदोदरी का शॉर्ट फ़ॉर्म) मॉम किस तरह दीवार बन खड़ी होती है.’’
छोटी,“यू आर हंडरेड पर्सेंट राइट, मैं भी कुछ ऐसा ही मानती हूं. इतनी दुनिया देखने के बाद भी इनको राम जैसे बेटे की ख्वाहिश रहती है कि काश…हमारे बजाय इनके बेटे होते. वो भी इनके सामने मुखौटे लगाए खड़े हो जाते.”
मैंने दोनों की बात काटते हुए कहा,“क्यों इतनी बिटर हो तुम दोनों. पापा है वो तुम्हारे, उनको रावण का ख़िताब दे रही हो?’’
बड़ी,“ख़ैर मनाओ रावण कह उनका तो मान बढ़ा दिया है हमने. गिनाऊं उसकी ख़ूबियां! ग़नीमत महिसासुर की उपाधि नहीं दे रहे हैं.”
सालों से हर दुर्गा पूजा और शुभ विजया के बाद यही बहस घर में चलती है. मैं तो हार मान लेती हूं समय की इस दौड़ में. किन मान्यताओं के साथ बड़ी हुई कि एक बार डोली उठी तो अर्थी भी वहीं से उठवाओ. मां ने कहा,“बेटा आज से वो घर ही तुम्हारा है. पति को परमेश्वर मानना, ऐसा कुछ भी ना करना जिससे लोग हमारी परवरिश पर उंगली उठाएं.’’
पति श्री इधर-उधर देख अपने दोस्तों को देख रहे थे. शायद उन दिनों ज़्यादातर शादियों को ऐसा ही हाल था. दो परिवारों की इज़्ज़त कहलाने वाली बेटियां दूसरों का ख़याल ही करती रहती थी वो पति की पत्नी कम पूरे परिवार की केयर टेकर ज़्यादा हुआ करती थी. ससुर की दवाइयां, सास के घुटनों की मालिश, देवर की कॉफ़ी ननद के लड़का देखने की क़वायद के नाम पर उलझा कर पति से दूर कर दिया जाता था. पति को श्रवण कुमार का ख़िताब दे दिया जाता है. बड़े शान से सबको बताया जाता,‘हमारा बेटा औरों से बिलकुल अलग है! क्या मजाल जो बहू के आगे पीछे फिरे? ऑफ़िस से सीधे हमारे पास और फिर दोस्तों के साथ.’
उन्हें क्या पता कि एक फ़रमाबदार बेटे बनने के चक्कर में उनका बेटा धोखेबाज़ पति बन गया. दोस्तों से मिलने के बहाने कभी शर्ट में लम्बे बाल तो कभी गले पर लिपस्टिक के निशान तो कभी मुंह से आती मदिरा की गंध. कहती तो किससे कहती यहां तो ढिंढोरा पीटा जाता था,‘ना..न. सिगरेट शराब तो दूर की बात पान भी नहीं छूता हमारा बेटा.’
अब लगता है सचमुच दस मुंह वाले रावण के पल्ले बांध दी गयी थी मैं. पहला मुंह मां बाप के लिए आज्ञाकारी बेटे का जहां मां ने कहा ब्याह रचा लिया. दूजा मुंह ससुराल वालों के लिए अच्छी सूरत वाला कमाऊं दामाद. अच्छा दोस्त जिसने शादी के बाद भी उनका साथ नहीं छोड़ा. एक मुंह से सिगरेट और शराब का ऐसा सेवन कि किसी को पता ही ना चले. फिर एक ऐसा भी मुंह था जो कभी-कभी मेरे पास भी आता था और अपनी शारीरिक ज़रूरतें पूरी कर मुझे अधूरा छोड़ चला जाता था. और उस पर भी मैं अपशकुनि जिसने दो बेटियों का बोझ उसके कंधे पर डाल दिया.
सासू मां को जब अपने बेटे की इन करतूतों का पता चला तो उसका ठीकरा भी मेरे ही सर फोड़ दिया,‘अरे ये तो पत्नी का काम है कि पति को इधर-उधर झांकने से बचाए, बुरी आदतों से दूर रखे. शादी के पहले तो वो ऐसा ना था.’
कैसे कहती कि मांजी आपका बेटा तो रावण है कई चेहरों वाला है. काश… आप भी वही चेहरा देख पाती जो उसने मुझे दिखाया है. पहले तो बेटियां भी पापा की दीवानी थीं जबकि पापा का चेहरा कभी-कभी ही देखने मिलता था. छोटी थीं तो कभी प्यार ही नहीं किया. पति जब रावण की तरह दूसरा चेहरा नहीं दिखा पाते थे तो गिरगिट की तरह रंग ही बदल लेते थे. बच्चियों के स्कूल में पीटीए मीटिंग में जब टीचर से लेकर प्रिन्सिपल भी उनकी प्रशंसा करते तो पति देव की छाती गर्व से चौड़ी हो जाती और एक दम्भ से उनकी पीठ ठोंकते,“मेरी बेटियां’’. घर पर पूरे टाइम सबकी खिदमत में लगी मां का मुरझाया चेहरा उन्हें मां से दूर कर रहा था. उन दिनों मैं बिलकुल अकेली हो गयी थी लेकिन पता नहीं क्यों अपनी नियति समझ चुप रहती शायद. कहते हैं ना पास रहने वाले दुश्मन से भी प्यार हो जाता है, ठीक उसी तरह मुझे भी सारे ग़म अपने लगते थे और उनके साथ रहने की आदत सी हो गई थी.
मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि उसे रावण का ख़िताब दिया जा सकता है मेरी सोच तो गिरगिट तक ही सीमित थी. मेरे घर वालों के सामने भी जी हुज़ूरी करने लग जाते थे. वो तो मनहूसियत का ताना मुझे ही देते थे. मेरी अपनी मां कहती,“तुम छायावाद की महादेवी वर्मा जिसे ख़ुशी रास ही नहीं आती. क्या कमी है? इतना बड़ा घर, गाड़ी़, पांच अंको में पति की तनख़्वाह और पांच सौ चैनलों वाला टीवी. इससे ज़्यादा क्या ख़्वाहिश हो सकती है किसी स्त्री की.’’
वो तो ग़नीमत इस पति रूपी रावण का चेहरा दोनो बेटियों ने देख लिया. एक फ्रेंड की बर्थ डे पार्टी एक होटल में थी, वहीं अपने पिता को एक दूसरी औरत के साथ इश्क़ लड़ाते देख लिया. अपनी बेटियों को देख भी रावण रावण ही बना रहा और चेहरे पर शिकन नहीं आई. वह वो समझ रहे थे कि उनके प्यारे पापा ऑफ़िस के काम से आउट ऑफ़ स्टेशन हैं, जो अक्सर हुआ करता था. मुझे थोड़ा अंदाज़ा था लेकिन मेरी सुनता कौन था. मैं शक्की मनहूस और कभी ख़ुश ना रहने वाली औरत जो थी.
उस घटना के बाद तो जैसे दोनों बेटियों ने अपने हाथ में कमान ले ली और अपने ही बाप का नया नामकरण रावण कर दिया. खुले आम बाप को गाली देने लगीं. उन्हें रावण का ख़िताब और मुझे मंदु कह पुकारने लगी. सासू मां को अपनी पोतियों की ये हरकत बड़ी नागवार गुज़री. उन्होंने सोचा ज़रूर मैंने ही कान भरे होंगे. उन्होंने दोनों पोतियों की क्लास लेते हुए कहा,“तुम्हारी मां भी मंथरा से कम नहीं है, जिसने तुम्हारे कान भरे हैं. अरे पति का चाल चलन, बुरी आदतें सब पत्नी के समर्पण पर निर्भर करती हैं. मेरा बेटा तो राम ही था.”
वो आगे कुछ बोलती उसके पहले ही छोटी चिल्लाई,“तो…राम कौन से अच्छे थे? एक धोबी के कहने पर अपनी पत्नी को छोड़ दिया. हमें ना राम, ना रावण… केवल एक चेहरे वाला बाप चाहिए था एक अच्छा इंसान.”
बड़ी ने भी अपने व्यंग्य बाण चलाए,“अभी तक आप मंथरा थीं हमारी ज़िंदगी में. आपके बताए अनुसार अभी तक हम मां को ही ज़िम्मेदार ठहरा रहे थे लेकिन आज सच्चाई ख़ुद हमारे सामने आई. आपका बेटा टूर पर नहीं गया है, यहीं इसी शहर में अठखेलियां मना रहा है. हमने ख़ुद अपनी आंखों से देखा है.’’
मैं चुपचाप सब कुछ सुन रही थी और कल्पना में रावण के दस चेहरे देख रही थी. सोच रही थी क्या मैं कभी दुर्गा बन पाऊंगी? मेरी शुभ विजया कब होगी?

Illustration: Pinterest

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डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा हिंदी साहित्य में एक नया नाम हैं. पेशे से एंडोक्राइन सर्जन की तीन पुस्तकें रिले रेस, मिट्टी की गुल्लक और लम्हे प्रकाशित हो चुकी हैं. रायपुर में जन्मी, पली-पढ़ी डॉ संगीता लगभग तीन दशक से हैदराबाद की जानीमानी कंसल्टेंट एंडोक्राइन सर्जन हैं. संपर्क: 98480 27414/ [email protected]

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