ये कृति मेरी नज़र में केवल यात्रा वृत्तांत न होकर एक कालजयी रचना है, जिसमें जितना यात्रा वृत्तांत है, उससे कहीं ज़्यादा ‘बिटविन द लाइन्स’ प्रश्नों और उत्तरों के वो ख़ूबसूरत तंतु हैं, जिनमें हम थोड़ी सी कल्पना शक्ति मिलाकर जोड़ दें तो उपन्यास बन जाए. तो मेरा मानना है कि सभी को इस उपन्यास का आनंद लेना चाहिए, जो लेखिका अनुराधा बेनीवाल ने नहीं लिखकर भी लिखा…मतलब ऐसा उपन्यास, जो ‘बिटविन द लाइंस’ लिखा गया है.
किताब: आज़ादी मेरा ब्रांड
विधा: ट्रैवलॉग
लेखिका: अनुराधा बेनीवाल
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
मूल्य: रु 199/-
बचपन! सुनहरी यादों का पिटारा…जगजीत सिंह की मशहूर गज़ल ‘मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन’ की तरह ज़्यादातर लोग बचपन के नाम पर मीठी यादों में खो से जाते हैं. लेकिन कैशोर्य का जिक्र आते ही इन मधुर यादों के पिटारे में कुछ तल्खियां भी जुड़ जाती हैं. मन में झंझावात की तरह उठते उन प्रश्नों की तल्खियां, जिनके अनुत्तरित होने पर हम उम्र के साथ समझौता करना सीख जाते हैं. पर उन प्रश्नों ने हमें जीवन के उस पड़ाव पर बहुत व्यथित किया होता है. मन में उठते अनगिनत प्रश्नों के उत्तर ढूंढ़ने की उत्कट जिज्ञासा, हल खोजने की अनवरत प्यास, समाधान ढूंढ़ते ही जाने की बेचैन कोशिशें ही तो मनुष्य को चिर तरुण बनाती है. या फिर आविष्कारक. अब व्यक्ति का रुझान विज्ञान की ओर हो तो आविष्कार मशीन का होता है और सैद्धांतिक विषयों की ओर हो तो सिद्धांत का और कला की ओर हो तो किसी अभूतपूर्व कृति का. ऐसी ही एक अभूतपूर्व कृति है ‘अनुराधा बेनीवाल’ की पुस्तक ‘आज़ादी मेरा ब्रांड’ जो उनकी यूरोप यात्रा के यात्रा-वृत्तांतों का संग्रह है.
लेखिका ने अपनी पुस्तक की भूमिका में स्पष्ट किया है कि वो व्यावसायिक लेखक नहीं है. ये पुस्तक केवल उसके अनुभवों और उन अनुभवों के दौरान मन में उठने वाले प्रश्नों का ईमानदार ब्यौरा है. लेखिका की ये साफ़गोई बहुत भाती है. पर जैसे-जैसे हम लेखिका के साथ उसकी यात्रा पर आगे बढ़ते हैं, ये ‘अनगढ़’ लेखन पर्त दर पर्त यूरोपीय समाज की स्थिति को सामने रखकर तुलना के माध्यम से हमारे भारतीय सामाजिक ढांचे की कमज़ोरियों का, हमारे खोखले आदर्शों का कच्चा-चिठ्ठा खोलता जाता है और सदियों से हर बढ़ती बच्ची के मन में उठ रहे प्रश्नों को उनके एकदम खुले, साफ़ रूप में हमारे सामने रखता जाता है. हमें समाधानों पर विचार करने के लिए उकसाता जाता है. इसीलिए ये कृति मेरी नज़र में केवल यात्रा वृत्तांत न होकर एक कालजयी रचना है, जिसमें जितना यात्रा वृत्तांत है, उससे कहीं ज़्यादा ‘बिटविन द लाइन्स’ प्रश्नों और उत्तरों के वो ख़ूबसूरत तंतु हैं, जिनमें हम थोड़ी सी कल्पना शक्ति मिलाकर जोड़ दें तो उपन्यास बन जाए. तो मेरा मानना है कि सभी को इस उपन्यास का आनंद लेना चाहिए, जो लेखिका ने नहीं लिखकर भी लिखा…मतलब ऐसा उपन्यास, जो ‘बिटविन द लाइंस’ लिखा गया है.
“जब एक लड़के का ये कहना कि मैं ज़रा घूम कर आता हूं एक साधारण सा वाक्य है तो किसी लड़की के ये कहने पर परिवार अचंभित क्यों हो जाता है? सैकड़ों प्रश्न क्यों खड़े कर देता है?” किसी भी किशोरी के मन में उठने वाला ये कांटेदार प्रश्न इस ‘उपन्यास’ की ‘कथा’ की नींव कहा जा सकता है.
क्यों हमारे समाज में लड़कियां इतनी असुरक्षित हैं? कहीं इसकी शुरुआत उस डर से तो नहीं होती, जो हर लड़की के परिवार के दिल में उसकी सुरक्षा के लिए बसा होता है. मानी हुई बात है कि जो चीज़ कम दिखाई देती है, वो सबके सहज आकर्षण और जिज्ञासा का केंद्र होती ही है. जब सड़क पर कम लड़कियां दिखाई देंगी और दिखने वाली लड़कियों में ऐसी तो बहुत ही कम होंगी, जो बेवजह बस मन बहलाने या रास्ते और दुकाने ‘एक्स्प्लोर’ करने घर से निकली हों तो वो कुछ अजब लगेंगी ही. इसका प्रमाण हमारे महानगर हैं, जहां लड़कियों के बाहर निकलने पर या उनके पहनावे पर टिप्पणियां छोटे शहरों के मुक़ाबले काफ़ी कम होती हैं. ध्यातव्य है कि लेखिका ने जब इस वाक्य का जिक्र किया है तो परिपार्श्व में हरियाणा का एक छोटा सा शहर या क़स्बा है. जिस शहर में लड़कियों के ऐंवेई घर से बाहर निकलने की संख्या जितनी कम है, हम देखते ही हैं, वहां फब्तियां उतनी ही ज़्यादा हैं. तो कथा-यात्रा में लेखिका के हमसफ़र बने हम अगर उसमें अपने अनुभवों को जोड़ते चलें तो उसके झकझोर देने वाले प्रश्नों के कुछ उत्तर पाकर आशावादी बन सकते हैं.
दूसरा अध्याय एक ऐसी लड़की के व्यक्तित्व की जानकारी देता है, जो किसी और देश से ऐंवेई भारत घूमने आई है. उसकी साफ़गोई, उसकी ख़ुद को महत्त्व देने की आदत, उसका कुंठारहित भयरहित सही मायनो में आज़ाद व्यक्तित्व लेखिका को गहरे प्रभावित करता है और वो भी वैसी ही बनने और बनकर घूमने का संकल्प लेती है. और यहीं मेरी नज़र में वो एक प्रश्न का उत्तर भी ढूंढ़ती है. प्रश्न शाश्वत है– लड़कियों की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित हो? और मेरी नज़र में और शायद लेखिका की भी नज़र में इसका उत्तर है – किसी भी दूसरी सुरक्षा की तरह लड़कियों की सुरक्षा की भी गारंटी नहीं मिल सकती. कहीं भी, कभी भी, किसी के लिए भी. निर्भय होना, सुरक्षित महसूस करना, लड़कियों के साथ होने वाले अपराधों को भी और कई अपराधों या दुर्घटनाओं की ही श्रेणी में रखकर उन्हें उसी सहजता से लेना ही शायद वो दृष्टिकोण है, जो हमें निर्भय बना सकता है. उनके प्रति सावधान रहना, सतर्क रहना, लेकिन उनके डर से जीना न छोड़ देना. मतलब जैसा रवैया हम अन्य दुर्घटनाओं के साथ रखते हैं, वैसा ही रवैया रखना शायद लड़कियों के व्यक्तित्व के उन्मुक्त विकास की तलाश की पहली कड़ी है.
फिर लेखिका अपने दिल के डरों और अपनी व्यावहारिक कठिनाइयों से जूझते और उनसे जीतते हुए अपनी चिर संचित अभिलाषा– अपनी यूरोप यात्रा पर निकल पड़ती है. सबसे पहले उसका ध्यान जाता है वहां की सफ़ाई पर. “पहला वीडियो एक टॉयलेट का बनाया” ये लेखिका की साफ़गोई है, जो हमारे होंठों पर मुस्कान ले आती है. प्रशंसनीय ये है कि यूरोप की इतनी तारीफ़ कहीं भी अपने देश की बुराई नहीं लगती. इस पुस्तक में कहीं भी अपने देश को कोसने की नकारात्मक प्रवृत्ति नहीं मिलती. इसमें एक चेतना, एक चाहत निरंतर महसूस होती है कि काश! हम अपने देश को भी ऐसा बना पाते और यही चाहत मुझे रिझाती है. यही वो सकारात्मकता है जिसकी मुझे भी तलाश है. ख़ूबी किसी की भी हो-देश की, इनसान की, संस्कृति की, समाज की, अगर हमें उसे अपनाने की ‘तलब’ है तो वो प्रशंसनीय ही है.
फिर धीरे-धीरे शहर-दर-शहर लेखिका की जिज्ञासा के साथ हम भी यूरोप पहुंच जाते हैं. वहां की सुंदरता देखकर मुग्ध होते हैं. जिन लोगों के सम्पर्क में लेखिका आती है, उनके माध्यम से वहां की सुलझी हुई जीवन शैली, खुली सोच से परिचित होते हैं. वहां के सामाजिक, आर्थिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य को समझते हैं. एक मूक दर्शक की तरह वहां के लोगों का चरित्र देख मुस्काते हैं और वहां के संक्षिप्त इतिहास के माध्यम से समझते हैं कि वहां के औसत इनसान के आज के चरित्र का उत्तरोत्तर विकास कैसे हुआ है.
कुछ जगहें बहुत मार्मिक बन जाती हैं. जैसे एक भारतीय दम्पति जो तलाक़ लेने वाला है. जैसे ऐम्स्टर्डम का वेश्या बाज़ार, जहां बहुत से लोग केवल घूमने भी आते हैं और विंडो शॉपिंग की तरह वेश्याओं को देखते हैं. उनमें लड़कियां भी हैं. और वहां के लड़के किसी नग्न वेश्या को देखकर भी फब्तियां नहीं कस रहे या किसी भी तरह का ऐसा व्यवहार नहीं कर रहे, जो उन वेशयाओं की ‘गरिमा’ को ठेस पहुंचाए. ये ज़िक्र एक साहित्य की विद्यार्थी होने के नाते मेरे मन में सोए बहुत से शाश्वत प्रश्नों को झकझोर कर उठा देता है. मेरा ध्यान अनायास ‘वैशाली की नगर वधू’ या ‘चित्रलेखा’ जैसे कालजयी उपन्यासों की ओर चला जाता है. हमारे समाज में भी एक युग ऐसा आया है, जब वेश्याओं को सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त थी. ये प्रश्न हमेशा से हर समाज की दीवार पर टंगा है और रहेगा कि जब सेक्स एक नैसर्गिक आवश्यकता है तो इस नैसर्गिक आवश्यकता की पूर्ति को व्यवसाय के रूप में अपनाने वाली स्त्रियों को सामाजिक भर्त्सना क्यों? इस व्यवसाय के लिए ऐसे समाधान कैसे खोजे जाएं, जो अन्याय या दमन के रास्ते से होकर न जाते हों? क्या वेश्याओं को मिलने वाली खुली सामाजिक स्वीकृति इसका एक उत्तर हो सकती है? प्रशंसनीय ये है कि लेखिका कुछ जज नहीं करती. बस प्रश्न उठाती है. मैं भी स्वयं को कोई फ़ैसला देने का अधिकार नहीं देती. बस लेखिका के प्रश्न को दोहराती हूं.
अगर हम इसे उपन्यास मानें तो लेखिका एक रोचक चरित्र है. भारत की एक डरी सहमी लड़की, जिसे संस्कार रूप में ‘अच्छी लड़की’ होने की शिक्षा घुट्टी के साथ घोलकर पिलाई गई है, यूरोप अकेले घूमने जाती है. ‘अच्छी लड़की’ अर्थात् अपने स्वतंत्र वजूद को नकारकर परिवार और समाज के प्रति समर्पित लड़की; ख़ासकर अपनी सेक्स से संबंधित आवश्यकताओं को स्पष्ट रूप से नकारती लड़की; ऐसी लड़की जो सेक्स की भूख से अकुलाए ‘बेचारे’ पुरुषों को ‘उपलब्ध’ हो जाने का जोखिम उठाने का पाप नहीं कर सकती. अब उस लड़की को अपनी घूमने का जुनून पूरा करने के लिए कभी लड़कों के साथ कमरा शेयर करना पड़ता है. तो कभी बिना सिटकिनी वाले कमरे में रहना पड़ता है. कभी अनजान टैक्सी ड्राइवर के साथ आधी रात में अकेले घूमना पड़ता है. हर क़दम पर पहले वो अपने डर से लड़कर जीतती है. फिर जब उसके साथ कुछ भी ग़लत नहीं घटता तो हमारे दिलों में ज़बरदस्ती सुलाया गया प्रश्न उसके दिल में भी कुनमुनाने लगता है कि हम अपने देश में इतना निर्भय क्यों नहीं महसूस कर पाते?
यही प्रश्न और बहुत से प्रश्नों के साथ सुगबुगाता रहता है और अंत में जब उसके लौटने का समय आता है तो ये सुगबुगाहट शोर बन जाती है. इसीलिए इस पुस्तक का अंतिम पृष्ठ दिल की बावड़ी में उतर जाता है. हृदय को झकझोर देता है. और लेखिका के भूमिका में ये कहने के बावजूद कि वो ‘लेखक’ नहीं है, ‘लेखक’ का दायित्व पूरा कर देता है. और वो दायित्व क्या है? हिंदी की मूर्धन्य लेखिका मन्नू भंडारी ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि समाधान बताना लेखक का दायित्व नहीं है. वो बता भी नहीं सकता. समाधान तो परिस्थितियों के दबाव से ख़ुद निकलते हैं. लेखक केवल हमारे दिल में सोए प्रश्न को जगा सकता है. हमें सोचने के लिए विवश कर सकता है और समाधान ढूढ़ने के लिए झकझोर सकता है. इस पुस्तक का आखिरी पेज यही करता है. जब लेखिका कहना शुरू करती है कि वो कौन सी चीज़ है, जो यहां हमें सुरक्षित महसूस कराती है. मैं उसे लिए बिना वापस नहीं जाना चाहती. मैं उसे अपने देश ले जाना चाहती हूं. तो मेरे जैसी ‘सभीता’ फूटकर रो देती है. ये पेज रुलाता है, क्योंकि ये बिना उपदेशात्मक भाषा का इस्तेमाल किए; बिना अपनी संस्कृति को कोसे प्रकारांतर से हमारी सोई अभिलाषाएं जगाता है, प्रेरणा बन जाता है, पूरे समाज को, संस्कृति को संदेश देता है कि अच्छाई, सुलझापन कहीं से भी मिले, ग्रहण करना चाहिए. और अपने स्तर पर इसे पाने के लिए हम महिलाएं बस इतना कर सकते हैं कि निडरता को अपने और अपनी बेटियों के व्यक्तित्व का हिस्सा बनाएं..