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उजली शाम: राजुल अशोक की कहानी

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
October 5, 2021
in नई कहानियां, बुक क्लब
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उजली शाम: राजुल अशोक की कहानी
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ज़िंदगी कब, किस मोड़ पर ला खड़ा करेगी, हममें से कोई नहीं जानता. इस कथा का नायक मयंक गहरे दुखों, दोस्त की यादों और चुभनभरे बदलावों के बीच कुछ बातों की कसक के साथ जीता है, जो उसकी कई शामों को उदास बना जाती हैं. लेकिन जब वह सीख लेता है उस कसक से उबरना तो उसके जीवन में आ जाती है उजली शाम. कैसे? कहानी को पढ़कर जानिए…

निधि कुंज बिल्डिंग का काफ़ी नाम है. ऐसी सुविधा की जगह कम ही मिलती है, जहां से स्कूल, कॉलेज, बाज़ार, दफ़्तर,अस्पताल सब पास ही हों. वैसे पहले मयंक को लगता था कि निधि कुंज का नाम सब इसलिए जानते हैं, क्योंकि उसके सामने नीम का पेड़ लगा है. जिसकी वजह से सुबह और शाम ही नहीं दिन भी सुहावना लगता है.
बचपनसे ही नीम के पेड़ पर सुबह चिड़ियों का चहकना उसे बहुत अच्छा लगता. पेड़ के पास एक बस स्टॉप भी बना था. वहां आती-जाती बसों की वजह से कई बार चिड़ियों का चहकना थम जाता, उन दिनों वो सोचा करता था एक दिन पेड़ इतना बड़ा हो जाएगा कि उसकी डालियां उसके कमरे तक आ जाएंगी और फिर चिड़ियां भी उसके कमरे में आकर चहकेंगी. ऐसा नहीं हुआ, पेड़ अपनी तरह से बढ़ता गया और मयंक अपनी गति से बढ़ा. बल्कि कई बार उसे लगता है कि उसके लिए वक़्त आज भी उस शाम पर अटका है, जब उसने इस पेड़ के नीचे उसे देखा था. जब स्कूल बस इस पेड़ के नीचे रुकती और उसमें बैठा विपुल हाथ हिलाकर कहता,” हे मयंक!“ तो बस की सीढियां चढ़ते हुए मयंक एक हाथ से पेड़ की निचली डाल का सिरा छूता और दूसरे हाथ से दूर बैठे विपुल से हाई फ़ाइव कर लेता.
कुछ साल बाद जब साइकल चलाना आ गया तो इसी पेड़ के नीचे अक्सर मयंक, विपुल और दूसरे दोस्त अपनी अपनी साइकलों के साथ जमा हो जाते. कई बार खेलने के लिए बुलाने का इंतज़ार इसी पेड़ के नीचे होता. इधर मयंक की लम्बाई बढ़ने के साथ पेड़ भी कुछ और ऊंचा, और छायादार हुआ, तब तक मयंक कॉलेज जाने लगा था.
उन दिनों जब मयंक घर लौटता तो साथ में हमेशा की तरह विपुल भी रहता. उसका घर अगले मोड़ पर था, लेकिन मयंक के साथ घर जाने से पहले वो इस पेड़ के नीचे ज़रूर रुकता. कभी-कभी उनके कुछ और दोस्त भी होते, जो पेड़ के नीचे खड़े रहकर पंद्रह-बीस मिनट बतियाते.और फिर सब अपने घर की तरफ़ बढ़ जाते. कभी-कभी मयंक की मम्मी हंस भी देतीं,“सारे दिन तुम लोग साथ रहते हो, लौटते भी साथ हो, फिर भी इस पेड़ के नीचे रुके बिना जी नहीं मानता तुम सबका!”

वाक़ई विपुल जब तक रहा ये नियम चलता रहा. मयंक और उसके दोस्तों की न जाने कितनी बातों और यादों का साक्षी है ये पेड़. इसी पेड़ के नीचे उसने पहली और आख़िरी बार नेहा को देखा था. नहीं, पहली बार तो उसे नेहा फ्रेशर इंट्रो में मिली थी. उसे याद आया कॉलेज का पहला दिन जब प्रथम वर्ष के विद्यार्थियों से पहली मुलाक़ात हो रही थी. सब एक लाइन में खड़े थे. एक-एक कर सब अपना परिचय और हॉबीज़ बता रहे थे. बतौर हॉबी किताबें पढ़ने वाले विद्यार्थियों को अपनी प्रिय पुस्तक पर पांच सौ शब्दों का निबंध लिखने को कहा गया, बाग़वानी के शौक़ीन लोगों को कॉलेज के बगीचे में एक पेड़ लगाने को कहा गया.

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ऐसे ही सारे फ्रेशर्स को काम देते हुए अचानक सब के कान खड़े हुए जब एक लड़की ने कहा,‘‘मेरी हॉबी है डांस और गाना.“
सारे सीनियर्स ने एक दूसरे को देखा औरविपुल बोला,‘‘कौन-से गाने पसंद हैं हिंदी या इंग्लिश?”
लड़की ने बेख़ौफ़ कहा,“ दोनों.“
विपुल ने एक पल सोचने की ऐक्टिंग की और फिर हंसते हुए कहा,“ऐसा करो एक फ़्यूशन सुनाओ. आजा सनम मधुर चांदनी में हम-इन ब्रिटनी स्पीयर्स स्टाइल.“
लड़की चुप खड़ी रही.
“गाओ!” पराग ने कहा. कई सीनियर्स हंसते हुए यही मांग दोहराने लगे तो अचानक लड़की फूट-फूट कर रो पड़ी.

मयंक इतनी देर से मुस्कुराते हुए सब देख रहा था. नई चीज़ें ट्राई करने में अव्वल और ऐड्वेंचर का दीवाना उसका प्यारा दोस्त विपुल अपने फ़ुल फ़ॉर्म में था, लेकिन लड़की रो पड़ी थी इसलिए उसे टोकना पड़ा,”ओके, अभी नहीं., गाइज़ इसे प्रिपरेशन का मौक़ा तो दो,“ फिर उस लड़की से कहा,“ एक हफ़्ते बाद फ्रेशर्स पार्टी में यही गाना गाना है,“ और सभा समाप्त का एलान करते हुए मयंक और उसके सभी साथी क्लास के लिए चले गए.

फिर दो दिन बाद रविवार था. मयंक को अच्छी तरह याद है वो फ़ुटबॉल मैच के लिए तैयार होकर बाइक को निकाल रहा था जब उसकी नज़र हमेशा की तरह नीम के पेड़ पर और वहां से बस स्टॉप पर गई. स्टॉप पर लगे बोर्ड के नीचे एक लड़की खड़ी थी, कुछ देखी-सी लग रही थी. वह यू-टर्न लेकर स्टॉप के सामने से गुज़रा तो देखा कि ये तो वही लड़की थी, फ्रेशर. ‘क्या नाम है?’ उसने दिमाग़ पर ज़ोर डाला, लेकिन उस वक़्त उसे नाम तक याद नही था. मयंक आगे बढ़ ही रहा था कि वो पलटी और अचानक सामने मयंक को देख ठिठकी और फिर ‘गुड मॉर्निंग सर!’ कहकर खड़ी हो गई. मयंक पूछना चाह रहा था यहां कैसे, लेकिन उसके मुंह से निकला,“कोई प्रॉब्लम?”
“सर, सिंह कॉम्प्लेक्स के लिए यहां से कौन-सी बस जाती है?”
मयंक ने कहा,” सिंह कॉम्प्लेक्स के लिए बस दो स्टॉप आगे से मिलेगी.“
लड़की ने कहा,”ओह, क्या नम्बर है?”
मयंक ने नम्बर बताया, उस लड़की ने थैंक्स कहा और सिंह कॉम्प्लेक्स के लिए एक रिक्शा लेकर चली गई. मयंक भी मैच खेलने चला गया.

फ्रेशर इंट्रो पार्टी तक सीनियर्स और जूनियर्स के बीच के समीकरण बदल चुके थे, हंसी-ख़ुशी का माहौल था. जूनियर्स ने बेझिझक अपने प्रोग्राम्स पेश किए और फिर वो पल भी आया, जब नेहा स्टेज पर पहुंची. माइक हाथ में लेकर उसने ‘आ जा सनम मधुर चांदनी में हम‘ गाया, वो भी खालिस ब्रिटनी स्पीयर्स स्टाइल में. तालियों की गड़गड़ाहट के बीच सीनियर्स ने सीटी बजाकर जताया कि गाने वाली की ये कोशिश लाजवाब है और फ़्यूशन का ये स्टाइल बेमिसाल. मयंक ने तब पहली बार जाना कि उस लड़की का नाम नेहा है.
इंट्रो पार्टी का लास्ट आइटम था मयंक का गाना, जिसकी पुरकशिश आवाज़ और अंदाज़ के सभी साथी दीवाने थे. और अब तो उन दीवानों में जूनियर्स भी शामिल हो गए. जूनियर्स की ओर से बधाई देने के लिए एक बुके लेकर नेहा उसके पास आई. अमित, आकाश और विपुल वगैरह भी स्टेज पर आ गए. विपुल ने नेहा कि ख़ूब तारीफ़ की. नेहा को मिस फ्रेशर का क्राउन विपुल ने ही पहनाया. जमकर डांस हुआ उस दिन. बहुत हिट हुआ वो प्रोग्राम, जूनियर और सीनियर दोनों ही खेमों में उस प्रोग्राम की चर्चा काफ़ी अरसे तक रही.

कुछ ही दिनों बाद एक और मौक़ा आया. कॉलेज का कल्चरल फ़ेस्ट होने वाला था. जूनियर, सीनियर दोनों कल्चरल ग्रुप्स कुछ धमाकेदार करने की कोशिश में थे. रोज़ क्लास के बाद मीटिंग होती, डिस्कशन के दौरान मयंक, विपुल और तमाम सीनियर्स के साथ नेहा और उसके बैचमेट भी होते. उस दिन रिहर्सल के बाद मयंक और उसके दोस्तों ने कैपिटल में लगी फ़िल्म देखने का प्लान बनाया. दोपहर का शो था. लौटते हुए आसमान पर शाम उतर आई थी. घर जाने से पहले चारों दोस्त पेड़ के नीचे खड़े हो गए.

विपुल भुनभुना रहा था,”इतनी बेकार फ़िल्म दिखाई है, फ़ाइन देना पड़ेगा मयंक!“
मयंक ने कहा,” अच्छा फ़िल्म बेकार थी तो देख क्यों रहा था?”
विपुल बोला,”टिकट के पैसे वसूल कर रहा था.”
पराग बोला,”तो मान रहा है न कि पैसे वसूल हो गए!”
विपुल बोला,” पैसे वसूल हुए? पता है इसे क्या कहते हैं, इसे कहते हैं जेब कट गई.“
तभी स्टॉप पर एक बस रुकी और बस से नेहा उतरी. आमना-सामना हो गया.
नेहा ने हैरानी से कहा,”आप लोग यहां?”
“पहले ये बताओ तुम यहां कैसे?” पराग ने नेहा की नक़ल करते हुए कहा और सब ठठाकर हंस पड़े.
विपुल बोला,”ये तो हमारा पुराना अड्डा है.”
मयंक ने कहा,” मैं सामने निधि कुञ्ज में ही तो रहता हूं.’’
नेहा बोली,”और मैं आपके पड़ोस में…”
मयंक ने आश्चर्य से पूछा,”हाई क्रेसेंट? यानी ठीक बाजू वाली बिल्डिंग? “
नेहा ने कहा,” हां, उसी में. अच्छा अब चलती हूं. आप लोग अभी यहीं रुकेंगे?”
विपुल बोला,”हां, रुकना ही पड़ेगा”
चलने को तत्पर नेहा ठिठक गई,”क्यों, क्या हुआ?”
मयंक ने विपुल की पीठ पर धौल जमाते हुए कहा,”मातम मना रहा है,इसकी जेब कट गई.”
नेहा परेशान-सी बोली,”अरे! कैसे? ज़्यादा नुक़सान हो गया?”
विपुल बोला,”हुआ था, लेकिन अब समझ में आया कि कभी-कभी नुक़सान भी फ़ायदे के लिए होता है.” और अपनी ही बात पर ठठाकर हंस पड़ा.
नेहा मुस्कुराते हुएचली गई.
विपुल खोए स्वर में बोला,“क्या इत्तफ़ाक है! हमें तो ख़बर ही नहीं थी…“
मयंक मुस्कुरा दिया.
यही वो दिन थे, जब बातों के तार से तार जुड़ते जाते, अकेले होते तो वही तार दिलों तक जा पहुंचते. बड़ी देर तक उन बातों का रंग चढ़ा रहता. अकेले में मयंक उन दिनों न जाने कितनी बार बेसाख़्ता मुस्कुरा देता. ऐसा ही एक दिन था. रिहर्सल के लिए मयंक और दूसरे सीनियर्स हॉल में इकठ्ठा थे. रोमियो जूलिएट की तर्ज़ पर देसी रोमैंटिक कॉमेडी हो रही थी, जिसे मयंक ने लिखा था और वही डायरेक्ट भी कर रहा था. प्ले में सारे कैरेक्टर्स सीनियर्स ही निभा रहे थे, सिर्फ़ डांस में जूनियर्स को स्टेज पर आना था. वैसे सीनियर्स के इस प्ले को लेकर जूनियर्स में ख़ासा उत्साह था. रिहर्सल के दौरान वो समय से पहले ही आ जाते.

एक दिन हॉल में रिहर्सल चल रहा था. उस वक़्त रोमियो उर्फ़ रोमा सिंह बना विपुल और जूलिएट उर्फ़ झूलन कौर बनी श्वेता का सीन था. बाक़ी करेक्टर्स के साथ जूनियर्स भी स्टेज पर कतार बनाकर खड़े थे, इस सीन के बाद बॉल रूम डांस था, जिसमें उन सभी को अपने पार्टनर के साथ डांस करना था. ठीक उसी समय रोमियो सिंह अपनी जेब से अंगूठी निकालकर झूलन कौर को प्रपोज़ करने जा रहा था कि तभी सब बदल गया. श्वेता की तरफ़ देख डायलॉग्स बोलते हुए विपुल जूनियर्स के बीच खड़ी नेहा की ओर मुड़ा. जेब से अंगूठी निकाली और घुटनों पर बैठते हुए बोला,”देखो जी म्हारे हाथ में क्या से, जो आप ये पहन लोगे तो लाइफ़ सेट हो जावेगी.”
शोर मचने लगा. श्वेता चिल्लाई,‘‘अरे मैं इधर हूं.“
मयंक कुछ कहने ही वाला था कि नेहा की आवाज़ सुनाई दी,”थारे हाथ में क्या से वो तो बाद में देखा जाएगा. पैले तू खिड़की में देख, वो म्हारे बापू और उनके हाथ में सोंटा, इतना पीटेगें कि सारी लाइफ़ बिस्तर पर कट जाएगी.”
श्वेता का डायलाग बिलकुल सही बोल रही थी नेहा.
”कोई नहीं,बापू के सोंटे भी खा लूंगा और आपके घर के सामने बिस्तर डाल के पड़ा रहूंगा, बस आप मना मत करना झूलन जी.”
विपुल अभी भी नेहा की तरफ़ देखकर ही बोल रहा था.नेहा ने हुबहू डायलाग दोहराया,”बावले हो क्या?”
विपुल ने अपनी लाइन बोली,”हां जी… और आप मेरी बावली.”
सही डायलाग था, पर बदली हुई झूलन को देख सभी हंस रहे थे. श्वेता कुछ खिसियाई-सी लग रही थी. डायलॉग तो वो भी बोल रही थी, लेकिन सीन नेहा और विपुल के बीच चल रहा था. मयंक ने स्थिति को क़ाबू में करने के लिए ज़ोर-से आवाज़ दी,”गाइज़, बी सीरियस…” लेकिन तब तक रोमियो झूलन कौर को अंगूठी पहनाने वाला सीन भी हो गया था.
सबने देखा नेहा की उंगली में वाक़ई एक अंगूठी थी. ज़ोरदार शोरऔर तालियों के बीच मयंक ने देखा विपुल और नेहा के साथ अब श्वेता भी डांस में शामिल हो गई थी. मयंक को ये सोचकर हैरानी हुई कि विपुल ने उसे कभी ख़बर ही नहीं होने दी. एक पल को विपुल पर ज़ोर का ग़ुस्सा आया और फिर उसकी नज़र नेहा पर पड़ी. हंसती हुई नेहा उसे बहुत अच्छी लगी. मयंक भी हंसते हुए सबके साथ डांस करने लगा.

कल्चरल फ़ेस्ट में उनके कालेज ने ट्राफ़ी जीती. प्ले की बहुत प्रशंसा हुई. श्वेता और विपुल को उनके अभिनय के लिए पुरुस्कृत किया गया, लेकिन इन सबके बीच नेहा और विपुल का वो सीन सभी की ज़ुबां पर चढ़ा रहा.

नेहा और विपुल के बारे में जितने मुह उतनी बातें होतीं, कोई कहता,”पता ही नहीं लगा क्या पक रहा है दोनों के बीच!” दूसरा कहता,”बहुत पहुची हुई चीज़ हैं दोनों.“ तीसरी कहती,” वो अंगूठी रियल थी न?“ तो चौथा बोल पड़ता,” हाय साइलेंट रोमांस!”
इस बीच अगर विपुल आ जाता तो सब चुप लगा जाते, उससे किसी ने नहीं पूछा, लेकिन एकाध बार मयंक से दोस्तों ने ज़रूर कहा,’’क्या यार, पड़ोसी होकर भी तुम्हें कोई ख़बर नहीं लगी? अजीब हो तुम भी.“
मयंक वो बातें सुनकर मुस्कुराता और चल देता. नेहा अच्छी लड़की है और विपुल उसका जिगरी दोस्त. दोनों एक दूसरे को पसंद करें तो इसमें बुरा क्या है?

कॉलेज में मयंक का वो साल बहुत तेज़ी से बीत रहा था. आनेवाला समय कैसा होगा और वो लोग कहां होंगे इसका फ़ैसला पढ़ाई के उसी आख़िरी साल में होना था इसलिए अक्टूबर आते-आते बाक़ी सभी बातें पीछे छूट गईं. याद रहते तो सिर्फ़ टेस्ट्स. प्रैक्टिकल्स और लेक्चर्स. मयंक और उसके साथी अपनी-अपनी तरह से तैयारी करते हुए जितनी देर कालेज में रहते, साथ रहते. अक्टूबर की सुबह गुनगुनी धूप जब लॉन में उतरती तो लाइब्रेरी के सामने बगीचे में कई झुंड किताबों में सर गड़ाए नज़र आते. कुछ लोग फ़व्वारे के पास चबूतरे पर बैठ जाते और कुछ टैगोर लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर अड्डा जमा लेते. दिन चढ़ने लगता तो सब डिपार्टमेंट के अन्दर पहुंच जाते. यहां मयंक ने एक ख़ास जगह छांट रखी थी. दूसरी मंज़िल की गैलरी को जाती सीढ़ियों पर वो और उसके साथी जम जाते. यहां से बाहर का सब दिखता था और डिपार्टमेंट का डिजिटल नोटिस बोर्ड भी साफ़ नज़र आता था.

दिवाली भी बीत गई. दो दिन की छुट्टी ख़त्म हुई तो उसने सीधे कालेज का रुख़ किया. कुछ देर हो गई थी, लेकिन किताबें इशु करवानी थीं. ऑफ़िस में प्रमाणपत्र जमा करना था. सब निपटाकर जब वो अपनी निश्चित जगह की ओर बढ़ रहा था, तभी अपना नाम सुनकर उसने देखा सीढ़ियों पर बैठे पराग और अमित ने उसे आवाज़ दी थी. कुछ पास आने पर अमित बोला,” चले आओ, वैसे भी आज क्लास होना मुश्क़िल ही है.आधे लोग तो दिवाली ही मना रहे हैं…”
पास आने पर पराग ने पूछा,” विपुल कहां है?”
मयंक ने कहा,” वो तो ट्रिप पर गया है.”
अमित बोला,” हां, पर तुम दोनों तो साथ जाने वाले थे न?”
मयंक ने कहा,” पहले सोचा था, लेकिन जब पता लगा प्रैक्टिकल की तारीख़ आनेवाली है, तो लगा अभी जाना ठीक नहीं रहेगा. विपुल से भी कहा था, लेकिन वो बोला- मैं अब नहीं रुक सकता.”
अमित बोला,”फ़ुल टू ऐक्शन में रहता है हमेशा, स्टैमिना बहुत है भाई में. वापसी का कुछ बताया उसने?’’
मयंक ने कहा,”हां, आज सुबह बात हुई थी तब बोला था रास्ते में है. कह रहा था, सीधे कॉलेज आऊंगा. हो सकता है इस समय कॉलेज गेट से अन्दर आ रहा हो. ये बताओ डेट आ गई?”
पराग बोला,”डेट का इंतज़ार तो सबको है यार…”
सब हंस पड़े. अमित ने कहा,” प्रोजेक्ट रिपोर्ट जमा करनी थी, तुमने की?”
मयंक बोला,”विपुल आ जाए फिर साथ ही कर देंगे.”
तभी पराग बोला,” ये क्या लिखा है?”
मयंक और अमित ने एक साथ पराग की ओर देखा. वो डिजिटल नोटिस बोर्ड देख रहा था. उस पर जो कुछ लिखा था वो पढ़ने के बावजूद मयंक को समझ नहीं आ रहा था, बस अमित की आवाज़ सुनाई दे रही थी,“condolence is announced on sad demise of Vipul Khatri.”
मयंक ने आंखें मलते हुए कई बार पढ़ा. पराग और अमित ने भी पढ़ा, लेकिन वो सूचना समझने और स्वीकारने को उनमे से कोई तैयार नहीं था. सिर्फ़ उन्हें ही नहीं, विश्वास तो पूरे कॉलेज को नहीं हो रहा था.

‘ये सच नहीं हो सकता,’ मयंक को लगा कोई ग़लतफ़हमी है. वो फ़ौरन बाइक लेकर विपुल के घर की तरफ़ चल पड़ा, साथ में अमित और पराग भी थे. उन्हें सड़क के मोड़ पर ही पता लग गया कि जो कुछ सुना है वो सच है. विपुल अपनी बाइक से ऐड्वेंचरस ट्रिप पर गया था. वहां से सही समय पर लौट आएगा. कल रात ही उसने अपनी मां से कहा था. पता लगा वो ‘सब लेन’ की तरफ़ से लौट रहा था.
“लेकिन वहां गया ही क्यों उधर तो मरम्मत चल रही है, सारा रास्ता खुदा हुआ है,” अमित ने धीरे से कहा.
पराग बोला,”ट्रैफ़िक से बचने के लिए उसने वो रास्ता चुना होगा.”
वहां खड़े लोग बात कर रहे थे,”अच्छा भला आ रहा था. अचानक उसकी बाइक स्लिप हुई, वो उछलकर पास में खुदी गहरी नाली में गिरा. सिर ज़मीन से टकराया और सब ख़त्म हो गया…“
‘‘हेलमेट पहने था, लेकिन चोट सर पर नहीं लगी. सीधे टकराने की वजह से गर्दन की हड्डी टूट गई, फिर भी अस्पताल से लाने नहीं दिया. बॉडी पोस्टमार्टमके बाद मिलेगी.“

सुन-सुन कर आंखें नम होतीं. सिसकियां फूट पड़तीं. और फिर विपुल के परिवार को देख सब चुप हो जाते. उसकी मां तो मानो पगला ही गई थीं बार बार कहतीं,“उसने बोला था सही समय पर आएगा, आया क्यों नहीं और इत्ती भीड़ क्यों इकट्ठी है?”
कभी विपुल के दोस्तों को बैठने के लिए कहतीं तो कभी अन्दर जाकर सबके लिए पानी ले आतीं.
विपुल के पिता शून्य में ताकते बैठे थे. पास ही उसकी बहन खड़ी थी उसी का हाथ थामे दीवार से टिकी खड़ी थी नेहा. चेहरा सफ़ेद था और आंखें सूनी. तभी शोर मचा, विपुल का मृत शरीर लाया जा रहा था. तेज़ रुलाई का बांध फिर टूट गया. सभी बिलख रहे थे, लेकिन नेहा का चेहरा स्लेट की तरह साफ़ था. दोस्तों ने नम आंखों से आख़िरी बार विपुल को कंधों पर उठाया. नेहा भी उन सबके साथ चल पड़ी. वो शमशान के अन्दर तक गई, विपुल को अंतिम विदा देने के बाद उसे हाथ पकड़कर मयंक किसी तरह वापिस ला पाया.

घर के पास पहुंचकर जब आदतन उसकी बाइक पेड़ के नीचे रुकी तो एक पल के लिए वो अचकचा गया था. घूमकर देखा नेहा बाइक से उतर गई थी. बाइक स्टैंड पर लगाते हुए उसने देखा, नेहा के हाथ पेड़ के तने को सहला रहे थे.
उसने पास जाकर कहा,”विपुल अभी भी हमारे आसपास ही है नेहा.”
नेहा ने सूनी आंखों से उसकी ओर देखा और कहा,”हां, पास है लेकिन कभी नज़र नहीं आएगा.”
मयंक ने उसका हाथ थामकर कहा,”चलो तुम्हें घर पहुंचा दूं.’’
थके क़दमों से उसके साथ अपनी बिल्डिंग की ओर बढ़ते हुए नेहा एक पल ठिठकी और बोली,”काश वो उस दिन गया ही न होता !” फिर कुछ रुककर बोली,” जाना ही था तो तुम्हें लेकर जाता. तुम उसके साथ गए होते तो उसे उस तरफ़ जाने ही न देते. तुम क्यों नहीं गए मयंक?”
मयंक ने सर झुका लिया, नेहा बिल्डिंग के अन्दर चली गई. मयंक अपने घर आ गया. उसका मन फूट-फूट कर रोने को कर रहा था. एक अपराध बोध उसे मथे डाल रहा था. काश वो साथ गया होता तो शायद विपुल को तेज़ बाइक न चलाने देता. वो उसे उस लेन से आने ही न देता. शाम हो गई थी वो बिना लाइट जलाए बालकनी में खड़ा हो गया. अचानक उसकी नज़र बस स्टॉप पर गई. पेड़ के पास कोई था. शायद कोई लड़की थी. कुछ देर में बस स्टॉप के पास लगी स्ट्रीट लाइट जल उठी. उसने देखा नीम के पेड़ से सटी नेहा खड़ी थी. उसका शरीर हिल रहा था, शायद सिसकियों की वजह से. मयंक को लगा इस वक़्त तसल्ली के दो बोल से ज़्यादा नेहा को इस एकांत की ज़रूरत है, जहां वो अपना मन हल्का कर सके. मयंक देखता रहा, कुछ देर बाद नेहा वापस चली गई.

लेकिन वो शाम हमेशा के लिए मयंक के मन में बस गई और काश की वो कसक भी. काश उस दिन उसने विपुल को रोका होता, उसे सख़्ती से समझाकर प्रैक्टिकल की तैयारी करने को कहा होता, तो शायद वो हादसा न होता. सोचते ही मयंक सिहर जाता.
विपुल के घर वो अक्सर चला जाता, उसके माता पिता और बहन का ख़्याल रखता, लेकिन नेहा का सामना करने की हिम्मत नहीं होती. उसके दिमाग़ में बार बार नेहा की बात गूंजती,“ तुम उसके साथ गए होते तो उसे उस तरफ़ जाने ही न देते. तुम क्यों नहीं गए मयंक?’’
अक्सर लोग उसे बताते नेहा वो अंगूठी पहने हुए है. कोई कहता,”उसे समझाओ”, कोई कहता,”वक़्त के साथ वो ख़ुद ठीक हो जाएगी.” मयंक सुनता और उस शाम को याद कर फिर अंदर कुछ टूट जाता .
अब तो कई बरस गुज़र चुके हैं. कॉलेज ख़त्म हुआ. कुछ समय बाद नौकरी के लिए वो दूसरे शहर चला गया. त्यौहारों पर एक-दो दिन के लिए आता और सिर्फ़ पेड़ से मिलकर लौट जाता.
प्रमोशन के बाद जब उसे अपने शहर का ऑफ़िस सम्भालने का विकल्प दिया गया तो उसने मन मज़बूत कर स्वीकृति दे दी. दो दिन बाद कार्यभार सम्भालना था, इस बीच कई दोस्त आकर मिले. लंच के बाद वो अपने कमरे की खिड़की से इस पेड़ से जुड़ी यादें ताज़ा कर रहा था कि दरवाज़े पर दस्तक हुई. उसने मुड़कर देखा.
दरवाज़े से ही नेहा ने हाई फ़ाइव देते हुए कहा,”हे मयंक!” बिलकुल विपुल के अन्दाज़ में.
वो अंदर आते हुए बोली,“ऐसे मुंह खोलकर क्या देख रहे हो? मैं नेहा हूं, पहचाना नहीं क्या?”
मयंक ने ख़ुद को सामान्य करते हुए उसका स्वागत किया. नेहा और वो वहीं खिड़की के पास कुर्सियों पर बैठ गए.
हालचाल पूछते हुए अचानक नेहा बोली,“मुझे लगता था तुम जानबूझकर मुझे अनदेखा करने लगे हो. सोच लिया था तुमसे कभी बात नहीं करूंगी, लेकिन धीरे-धीरे समझ में आया कि विपुल के जाने से अकेली मैं ही नहीं, तुम भी बहुत दुखी थे. फिर लगा इस दुःख से ख़ुद ही बाहर निकलना होगा. मुश्क़िल था, लेकिन हो गया. एक बात कहूं? विपुल इतना प्यारा और ज़िंदादिल था कि उसे याद कर उदास होने के बजाय अगर मुस्कुराओगे तो उसे ज़्यादा अच्छा लगेगा.”
मयंक के मन पर जमी तह पिघलने लगी. नेहा फिर बोली,“आंटी बता रही थीं कि उन्होंने कई लड़कियां देखी हैं तुम्हारे लिए. जल्दी से किसी को पसंद कर लो और हां शादी की फ़ोटोज़ ज़रूर भेजना. अपना फ़ोन नम्बर दो मैं अपना पता वॉट्सऐप कर दूंगी.” नेहा कुर्सी से उठते हुए बोली.
मयंक ने पूछा,”कहां का पता?’’
”यूएस यूनिवर्सिटी का. आगे पढ़ने के लिए आवेदन किया था. दाख़िला मिल गया है. अगले हफ़्ते जाना है. अब इतनी जल्दी तो तुम शादी करने वाले नहीं, इसलिए फ़ोटो से काम चला लूंगी.”
नेहा की बात पर मयंक खुलकर हंस पड़ा. फ़ोन नम्बर लेकर नेहा जा चुकी थी, मयंक खिड़की से पेड़ पर उतरती शाम देखने लगा. आज उसे शाम का रंग उजला लग रहा था.

फ़ोटो: पिन्टरेस्ट

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ओए अफ़लातून

हर वह शख़्स फिर चाहे वह महिला हो या पुरुष ‘अफ़लातून’ ही है, जो जीवन को अपने शर्तों पर जीने का ख़्वाब देखता है, उसे पूरा करने का जज़्बा रखता है और इसके लिए प्रयास करता है. जीवन की शर्तें आपकी और उन शर्तों पर चलने का हुनर सिखाने वालों की कहानियां ओए अफ़लातून की. जीवन के अलग-अलग पहलुओं पर, लाइफ़स्टाइल पर हमारी स्टोरीज़ आपको नया नज़रिया और उम्मीद तब तक देती रहेंगी, जब तक कि आप अपने जीवन के ‘अफ़लातून’ न बन जाएं.

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