धरती को हमारे रहने लायक, जीने लायक बनाने में प्रकृति के साथ-साथ हर उस औरत का हाथ है, जो आदिम समय से अपना पसीना बहा रही है. चंद्रकांत देवताले की कविता ‘वह औरत’ उन सभी औरतों को समर्पित है.
वह औरत
आकाश और पृथ्वी के बीच
कब से कपड़े पछीट रही है,
पछीट रही है शताब्दिशें से
धूप के तार पर सुखा रही है,
वह औरत आकाश और धूप और हवा से
वंचित घुप्प गुफा में
कितना आटा गूंध रही है?
गूंध रही है मानों सेर आटा
असंख्य रोटियां
सूरज की पीठ पर पका रही है,
एक औरत
दिशाओं के सूप में खेतों को
फटक रही है
एक औरत
वक़्त की नदी में
दोपहर के पत्थर से
शताब्दियां हो गईं
एड़ी घिस रही है,
एक औरत अनंत पृथ्वी को
अपने स्तनों में समेटे
दूध के झरने बहा रही है,
एक औरत अपने सिर पर
घास का गट्ठर रखे
कब से धरती को
नापती ही जा रही है,
एक औरत अंधेरे में
खर्राटे भरते हुए आदमी के पास
निर्वसर जागती
शताब्दियों से सोई है,
एक औरत का धड़
भीड़ में भटक रहा है
उसके हाथ अपना चेहरा ढूंढ़ रहे हैं
उसके पांव
जाने कब से
सबसे
अपना पता पूछ रहे हैं
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