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Home ओए हीरो

आप ही बताइए भला नियम क्यों माने जाएं?

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
November 25, 2022
in ओए हीरो, ज़रूर पढ़ें, मेरी डायरी
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क्या कभी आपके मन में भी यह ख़्याल आया है कि भला नियम क्यों माने जाएं? और यदि आया है तो क्या आपने कभी इसकी पड़ताल की है कि आख़िर नियमों को मानने में इतनी कोफ़्त हमें क्यों होती है? आपका जवाब चाहे ‘हां’ हो या ‘ना’ लेकिन नियमों को मानने में लोग और यहां तक कि छोटे बच्चे भी कोताही क्यों करते हैं, इस बात का जवाब भारती पंडित ने अपनी डायरी में नोट कर रखा है. हम उनकी डायरी के ये पन्ने आपके सामने रख रहे हैं, ताकि आप भी जान सकें कि लोग नियमों को भला मानते क्यों नहीं हैं?

मेरा बचपन बड़े ही नियम-क़ायदों में बीता. यहां वह हर नियम लागू थे जो एक पारंपरिक, मध्य वर्ग के घर की सबसे बड़ी लड़की होने के नाते लागू हो सकते थे. वे नियम अघोषित से क़ायदे के रूप में घर में लागू थे, जिसकी याद रोज़ सुबह उठते ही मां दिलाया करती थीं. ये और बात थी कि पिताजी के कहीं बाहर जाते ही सबसे पहले हम उनमें से एकाध नियम तोड़ने की जुगत में रहा करते थे. फिर जब हम स्कूल जाते तो वहां कुछ और तरीक़े के क़ायदे लागू हुआ करते थे. मेरे मन में हमेशा से यह प्रश्न आता था कि ये नियम बनाए किसने हैं और हमें इन नियमों को मानने को बाध्य क्यों किया जाता है? और चूंकि उन नियमों से कुछ ख़ास सहमति, कुछ ख़ास लगाव नहीं हुआ करता था इसलिए उन्हें तोड़ने में कुछ ख़ास सोचना नहीं पड़ता था. या यूं कहें कि उन्हें तोड़ने के मौक़े ही खोजे जाते थे.

मुझे अब भी याद है, हमारे गणित वाले सर बहुत ग़ुस्सैल थे और उन्हें कक्षा में शोर-शराबा तो क्या किसी का सवाल तक करना पसंद नहीं था. ऐसे में जब सर के पीरियड से पहले कक्षा में धुंआधार शोर मच रहा होता था, कक्षा का एक लड़का बाहर बरामदे में खड़ा होकर सर की टोह लेता रहता. जैसे ही सर की आहट होती, जोर से सीटी मारी जाती और सारी कक्षा एकदम शांत हो जाती. पीरियड ख़त्म होते ही जैसे ही सर बाहर जाते, उनके लिए “गया रे हिटलर, जान छूटी” “काश इन्हें भी संटी लगाने का मौका मुझे मिल जाए” जैसे फिकरे कसे जाने लगते थे. उस समय भी मुझे लगता था कि जब स्कूल या घर के नियमों से हम इत्तेफ़ाक रखते ही नहीं तो उन्हें मानेंगे क्यों भला…? पर हमारे परिवार की संरचना में कहें या स्कूल की संरचना में, इस तरह के प्रश्नों की कोई जगह नहीं होती थी. “छोटे हो न, बड़े जैसा कहते हैं, वैसा ही करो” यह सर्व सामान्य जुमला हुआ करता था. और यह छोटापन बड़े हो जाने तक मौजूद हुआ करता है चूंकि हर उम्र में हम किसी न किसी से तो छोटे ही हुआ करते हैं और बड़े यही कहते हैं, तुम्हें क्या समझता है, चुप रहो.

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आज सोचती हूं तो लगता है यही हाल हमारे समाज के या देश के नियम-क़ायदों के साथ भी है. लोग उन्हें मानते नही हैं, वरन मानने को बाध्य किए जाते हैं. सीटबेल्ट या हेलमेट लगाने के लिए पुलिस को डंडे या चालान का डर दिखाना पड़ता है. कभी सोचा है कि ऐसा क्यों होता है कि हर बात डर दिखाकर ही पूरी करवानी पड़ती है जबकि वह लोगों के हित की ही बात है?

हम किसी बात/नियम को कब मानते हैं? जब हम उससे दिली तौर पर इत्तेफ़ाक रखते हैं या सहमत होते हैं. अब हमारे घर या स्कूल के नियमों की बात करें तो भले ही वे घर या स्कूल नामक संस्था के संचालन हेतु उपयुक्त हों, मगर उन्हें बनाते समय हमारी भागीदारी सुनिश्चित नहीं की जाती. और तो और उन पर किसी तरह के प्रश्न पूछने की अनुमति तक नहीं होती. मसलन स्कूल समय पर आना है यह नियम तो है मगर स्कूल का नियत समय क्या सभी के लिए स्वीकार्य है, समय पर न आने से क्या होगा…इस तरह की बातों की कोई गुंजाइश कक्षाओं में नहीं मिलती. और फिर स्कूल देर से आने के कोई ख़ास नुक़सान भी दिखाई नहीं देते, क्योंकि कक्षा में कुछ भी ऐसा नहीं चल रहा होता जिसे मिस करने पर कोफ़्त हो. और इसी के चलते नियम तोड़ने में कोई कोताही नहीं बरती जाती.

नियम कब माने जाएंगे? जब उन्हें जिन पर लागू किया जाना है उनकी नियम बनाने में सहभागिता होगी या फिर कम से कम वे उन नियमों से कन्विंस होंगे कि हां ये नियम हमारे हित के लिए बनाए गए हैं. इस सबके लिए ज़रूरी है बातचीत, चर्चा और प्रश्न करने के अवसरों की उपलब्धता…और हां, पांच-छह साल के बच्चे भी इसमें उसी तरह से सहभागिता कर सकते हैं जितने कि बड़े बच्चे.

जो नियमावली स्व सहभागिता से बनाई जाएगी या जिनके प्रति हमारी स्वीकार्यता होगी, उसका पालन करवाने के लिए कभी भी डर या हिंसा का सहारा नहीं लेना पड़ेगा और यहीं से शुरू होगा वास्तविक रूप से अनुशासन या स्व अनुशासन का पाठ…जहां कक्षाओं या घर में व्यवस्था बनाए रखने के लिए किसी भी बाहरी उद्दीपन जैसे डांट, मार, डर आदि की आवश्यकता ही नहीं होगी.

फ़ोटो: फ्रीपिक

Tags: diaryinvestigationRuleswhen rules are followedwhy rules should be followedकब माने जाते हैं नियमक़ायदाक्यों मानें जाएं नियमडायरीनियमपड़ताल
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