प्रेम एक ऐसी शै है कि जिसे जितना जानो, उतना कम है. लेखक-कवि दिलीप कुमार बता रहे हैं कि कैसे समय के साथ हम प्रेम के कई पहलुओं से रूबरू होते जाते हैं. प्रेम की कई परतें हमारे सामने खुलती जाती हैं. क्या प्रेम के बारे में ज़्यादा जानना, प्रेम के लिए बेहतर होता है?
ये बहुत देर से जाना
कि प्रेम में लौटना सिर्फ़
लौटना नहीं होता है
बल्कि कहीं न कहीं,
फिर भी रुके रहना होता है
ये बहुत देर से जाना
कि प्रेम में दौड़ा नहीं जाता
ठहरा भी नहीं जाता है
वास्तव में प्रेम में
कोई गति नहीं होती है
ये बहुत देर से जाना
कि प्रेम में सिर्फ़ प्रेम
ही नहीं होता है
बल्कि उसमें ईर्ष्या और तृष्णा
के साथ-साथ घृणा भी
शामिल रहती है
ये बहुत देर से जाना
कि प्रेम में न तो कुछ
जन्मता है और न ही
कुछ मरता है
बल्कि प्रेम तो यथावत रहता है
ये बहुत देर से जाना
कि प्रेम के बिना
कोई नहीं मरता
और प्रेम में ही कोई
सदैव नहीं जीता
फिर भी प्रेम
जीवन-मरण से परे होता है
ये बहुत देर से जाना
कि प्रेम में लोग एक-दूसरे को
देखने के लिए तरसते तो हैं
मगर एक-दूसरे को
देख-देखकर ऊब भी जाते हैं
ये बहुत देर से जाना
कि नफ़रत को पालने के लिए
प्रेम की ज़मीन तैयार की जाती है
वास्तव में, प्रेम नफ़रत के पनपने के लिए
महज एक सुविधा है
ये सब-कुछ बहुत देर से जाना
मगर जानकर भी क्या हासिल
क्योंकि जब ये सब-कुछ
जान गया हूं तब भी
क्या प्रेम से विरत होकर
रहा जा सकता है?
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