बिना बोले बर्फ़ बहुत कुछ कहती है, पर उसे समझने के लिए एक कवि हृदय चाहिए. संवेदनशील कवि अरुण चन्द्र रॉय की बर्फ़ की भाषा को डीकोड कर रहे हैं.
1.
बर्फ़ बोलती नहीं
पत्थरों की तरह
वह पिघलती भी नहीं
इतनी आसानी से
वह फिर से जम जाती है
ज़िद्द की तरह
2.
बर्फ़ का रंग
हमेशा सफ़ेद नहीं होता
जैसा कि दिखता है नंगी आंखों से
वह रोटी की तरह मटमैला होता है
बीच-बीच में जला हुआ सा
गुलमर्ग के खच्चर वाले के लिए
तो सोनमार्ग के पहाड़ी घोड़े के लिए
यह हरा होता है घास की तरह
3.
बर्फ़ हटाने के काम पर लगा
बिहारी मज़दूर देखता है
अपनी मां का चेहरा
जमे हुए हाथों से
बर्फ़ की चट्टानों को हटाते हुए
4.
बर्फ़
प्रदर्शनी पर लगे हैं
इन दिनों
फ़ोटो उन लोगों के
जिनका सीना छलनी है
गोलियों के बौछार से
तो जिनका मस्तक लहूलुहान है
पत्थरबाज़ी से
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