धूमिल की कविता ‘बीस साल बाद’ देश की आज़ादी के बीस वर्ष बीतने पर लिखी गई थी, लेकिन आज आज़ादी का अमृतमहोत्सव मना रहे देश के लिए भी वह पुरानी नहीं लगती. इसकी वजह बताते हुए दिवंगत कवि मंगलेश डबराल ने कहा था, कि ‘सड़कों पर बिखरे जूतों की भाषा में/एक दुर्घटना लिखी गई है’ जैसी उसकी पंक्तियां आज और भी सच हैं और यह सवाल आज भी सार्थक है कि ‘क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है/जिन्हें एक पहिया ढोता है?’ धूमिल की यह कविता हमारे लोकतंत्र की एक गहरी आलोचना है.
बीस साल बाद
मेरे चेहरे में वे आंखें लौट आई हैं
जिनसे मैंने पहली बार जंगल देखा है
हरे रंग का एक ठोस सैलाब जिसमें सभी पेड़ डूब गए हैं
और जहां हर चेतावनी
ख़तरे को टालने के बाद
एक हरी आंख बन कर रह गई है
बीस साल बाद
मैं अपने-आप से एक सवाल करता हूं
जानवर बनने के लिए कितने सब्र की ज़रूरत होती है?
और बिना किसी उत्तर के चुपचाप
आगे बढ़ जाता हूं
क्योंकि आजकल मौसम का मिज़ाज यूं है
कि ख़ून में उड़ने वाली पंक्तियों का पीछा करना
लगभग बेमानी है
दोपहर हो चुकी है
हर तरफ़ ताले लटक रहे हैं
दीवारों से चिपके गोली के छर्रों
और सड़कों पर बिखरे जूतों की भाषा में
एक दुर्घटना लिखी गई है
हवा से फड़फड़ाते हिन्दुस्तान के नक़्शे पर
गाय ने गोबर कर दिया है
मगर यह वक़्त घबराए हुए लोगों की शर्म
आंकने का नहीं
और न यह पूछने का
कि संत और सिपाही में
देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य कौन है!
आह! वापस लौटकर
छूटे हुए जूतों में पैर डालने का वक़्त यह नहीं है
बीस साल बाद और इस शरीर में
सुनसान गलियों से चोरों की तरह गुज़रते हुए
अपने-आप से सवाल करता हूं
क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई ख़ास मतलब होता है?
और बिना किसी उत्तर के आगे बढ़ जाता हूं
चुपचाप
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