बच्चों की रैंक और अच्छे कॉलेज में दाख़िले के लिए माता-पिता और समाज द्वारा डाले जानेवाले दबाव और उसके कारण बच्चों के कोमल मानस पर होने वाले परिणाम इस विषय पर जितनी भी बात अलग-अलग तरीक़े से की जाए, कम ही है और यह फ़िल्म इस विषय को बहुत अच्छी तरह से बरतती है. यही वजह है कि भारती पंडित का मानना है कि किशोरवय बच्चों के साथ उनके पैरेंट्स को इसे एक बार ज़रूर देखना चाहिए.
फ़िल्म: छिछोरे
लेखक: नितेश तिवारी, पियूष गुप्ता, निखिल मल्होत्रा
सितारे: सुशांत सिंह राजपूत, श्रद्धा कपूर, प्रतीक बब्बर, वरुण शर्मा
निर्देशक: नितेश तिवारी
प्रोड्यूसर: साजिद नाडियाडवाला
संगीतकार: प्रीतम चक्रवर्ती
रन टाइम: 143 मिनट
फ़िल्म का नाम ही कुछ ऐसा ‘छिछोरा’ लग रहा था कि देखी जाए या नहीं, इसी उहापोह में एक हफ़्ता गुज़ार दिया. फिर आज सोच ही लिया कि देख डाली जाए और देखने के बाद अपने इस निर्णय पर मुझे ख़ुशी ही हुई.
अब ये बिलकुल नहीं सोचिए कि विषय में दोहराव है, क्योंकि बच्चों की रैंक और अच्छे कॉलेज में दाख़िले के लिए माता-पिता और समाज द्वारा डाले जानेवाले दबाव और उसके कारण बच्चों के कोमल मानस पर होने वाले परिणाम इस विषय पर जितनी भी बात अलग-अलग तरीक़े से की जाए, कम ही है. और यह फ़िल्म इस विषय को बहुत अच्छी तरह से बरतती है. और हां, इसकी तुलना थ्री इडियट से हरगिज़ न कीजिए. दोनों का विस्तार क्षेत्र अलग-अलग है.
राघव नाम का किशोर बालक है, जो हर बच्चे की तरह जेईई की परीक्षा में चयन के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाए हुए है. कठोर श्रम के बाद भी जब असफलता हासिल होती है, ख़ुद को लूज़र कहलाए जाने के डर से वह बालकनी से छलांग लगा देता है. गंभीर रूप से घायल बच्चे के माता-पिता यानी अनिरुद्ध पाठक और माया तलाक़शुदा हैं और बच्चे के इस क़दम के लिए एक-दूसरे को दोष देते हैं. ब्रेन की सर्जरी होनी है, ऐसे में लूज़र शब्द से अनिरुद्ध के दिमाग़ में अपने कॉलेज जीवन की और कॉलेज के दोस्तों की याद ताज़ा हो जाती है और वह राघव को अपनी कहानी सुनाता है. कहानी विश्वसनीय लगे इसके लिए सारे दोस्तों को मुम्बई बुला लिया जाता है और कॉलेज और होस्टल जीवन के फ़्लैश बैक के साथ कहानी आगे बढ़ती है. (हालांकि आज के ज़माने में भी कॉलेज के जिगरी दोस्तों के सीधे संपर्क में न होना थोड़ा खटकता है…खैर!) कहानी के अंत में सभी यह स्वीकार करते हैं कि हम बच्चों को यह तो सिखाते हैं कि सफलता को कैसे सेलिब्रेट करना है पर हम यह नहीं सिखाते कि यदि असफल हो गए तो उसे कैसे हैंडल या सेलिब्रेट करना है, उसके लिए प्लान बी क्या होगा…
कुल मिलाकर बहुत ही मज़ेदार फ़िल्म है, कॉलेज के दृश्य बहुत ही बेहतर बन पड़े हैं. कॉमेडी गुदगुदाती है, संवाद कभी मुंह दबाकर हंसने तो कभी पेट पकड़कर खिलखिलाने को मजबूर कर देते हैं. फिर अंत में ख़ूब रुलाते भी हैं. द्विअर्थी संवादों की बहुलता है, मगर जब कपिल शर्मा और अन्य लाफ़्टर शो में इससे भी उच्च कोटी की वार्ता झेली जाती है घरों के भीतर तो उसकी तुलना में यह भी झेलने लायक है. राघव और उसके पिता के बीच के शुरुआती दृश्य बहुत सुकून देते हैं दिल को कि पिता इतना जुड़ाव रखने वाला भी हो सकता है.
अभिनय की बात करें तो सुशांत सिंह के दुःख भरे दृश्य बहुत प्रभावी नहीं हैं. कॉलेज के दृश्यों में वे अच्छे लगे हैं मगर दुखी पिता के रूप में नाटकीय से लगते हैं. वे अपने होंठों को संवाद बोलते समय ख़ास तरीक़े से दबाते हैं जो दुःख भरे दृश्यों में अजीब-सा लगता है. श्रद्धा कपूर अपने रोल में फ़िट हैं. सबसे अधिक प्रभावित करता है वरुण शर्मा यानी सेक्सा (फुकरे वाला), इतना स्वाभाविक और मस्त लगा है पूरी फ़िल्म में कि बस…! नवीन और ताहिर ने भी बहुत प्रभावित किया एसिड और डेरेक की भूमिका में. अरसे बाद प्रतीक बब्बर को देखना अच्छा लगा. तुषार पांडे भी फ़िट हैं रोल में. और हां, राघव की भूमिका में मोहम्मद समद बेहतरीन है.
अगर कुछ-कुछ संवादों को छोड़ दिया जाए तो बाक़ी फ़िल्म एकदम साफ़-सुथरी है. यह फ़िल्म अधिकतर कॉलेज और अस्पताल में फ़िल्माई गई है इसलिए फ़ोटोग्राफ़ी के लिए कुछ था नहीं ख़ास. गीत भी सामान्य हैं, छोटे-छोटे टुकड़ों के रूप में बजते हैं. नितेश तिवारी का निर्देशन कसा हुआ है, फ़िल्म में एक भी झोल दिखाई नहीं देता. गति तेज़ है इसलिए 2:23 घंटे कैसे बीते पता न चला. तो एक बार तो ज़रूर जाइए फ़िल्म देखने, किशोर बच्चों को भी ले जाइए, अन्यथा वे अपने दोस्तों के साथ गाहे-बगाहे देख ही लेंगे.
फ़ोटो: गूगल