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धरम: रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ की कविता

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
July 5, 2021
in कविताएं, बुक क्लब
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धरम: रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ की कविता
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धरम की बनावट और समाज के ताने-बाने में इसकी बुनावट को कवि रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ की यह कई परतों को उधेड़नेवाली कविता बेबाकी से बताती है. ग्रामीण पृष्ठभूमि को आधार बनाकर लिखी इस लंबी कविता में विद्रोही धर्म के पाखंडों पर निर्मम प्रहार करते हैं.

मेरे गांव में लोहा लगते ही
टनटना उठता है सदियों पुराने पीतल का घंट,
चुप हो जाते हैं जातों के गीत,
खामोश हो जाती हैं आंगन बुहारती चूड़ियां,
अभी नहीं बना होता है धान, चावल,
हाथों से फिसल जाते हैं मूसल
और बेटे से छिपाया घी,
उधार का गुड़,
मेहमानों का अरवा,
चढ़ जाता है शंकर जी के लिंग पर

एक शंख बजता है और
औढरदानी का बूढ़ा गण
एक डिबिया सिंदूर में
बना देता है
विधवाओं से लेकर कुंवारियों तक को सुहागन
नहीं ख़त्म होता लुटिया भर गंगाजल,
बेबाक हो जाते हैं फटे हुए आंचल,
और कई गांठों में कसी हुई चवन्नियां
मैं उनकी बात नहीं करता जो
पीपलों पर घड़ियाल बजाते हैं
या बन जाते हैं नींव का पत्थर,
जिनकी हथेलियों पर टिका हुआ है
सदियों से ये लिंग,
ऐसे लिंग थापकों की मांएं
खीर खाके बच्चे जनती हैं
और खड़ी कर देती है नरपुंगवों की पूरी ज़मात
मर्यादा पुरुषोत्तमों के वंशज
उजाड़ कर फेंक देते हैं शंबूकों का गांव
और जब नहीं चलता इससे भी काम
तो धर्म के मुताबिक़
काट लेते हैं एकलव्यों का अंगूठा
और बना देते हैं उनके ही खिलाफ़
तमाम झूठी दस्तखतें

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March 14, 2023

धर्म आखिर धर्म होता है
जो सूअरों को भगवान बना देता है,
चढ़ा देता है नागों के फन पर
गायों का थन,
धर्म की आज्ञा है कि लोग दबा रखें नाक
और महसूस करें कि भगवान गंदे में भी
गमकता है

जिसने भी किया है संदेह
लग जाता है उसके पीछे जयंत वाला बाण,
और एक समझौते के तहत
हर अदालत बंद कर लेती है दरवाजा
अदालतों के फ़ैसले आदमी नहीं
पुरानी पोथियां करती हैं,
जिनमें दर्ज है पहले से ही
लंबे कुर्ते और छोटी-छोटी कमीजों
की दंड व्यवस्था

तमाम छोटी-छोटी
थैलियों को उलटकर,
मेरे गांव में हर नवरात को
होता है महायज्ञ,
सुलग उठते हैं गोरु के गोबर से
निकाले दानों के साथ
तमाम हाथ,
नीम पर टांग दिया जाता है
लाल हिंडोल
लेकिन भगवती को तो पसंद होती है
खाली तसलों की खनक,
बुझे हुए चूल्हे में ओढ़कर
फूटा हुआ तवा
मजे से सो रहती है,
खाली पतीलियों में डाल कर पांव
आंगन में सिसकती रहती हैं
टूटी चारपाइयां,
चौरे पे फूल आती हैं
लाल-लाल सोहारियां,
माया की माया,
दिखा देती है भरवाकर
बिना डोर के छलनी में पानी
जिन्हें लाल सोहारियां नसीब हों
वे देवता होते हैं
और देवियां उनके घरों में पानी भरती हैं

लग्न की रातों में
कुंआरियों के कंठ पर
चढ़ जाता है एक लाल पांव वाला
स्वर्णिम खड़ाऊं,
और एक मरा हुआ राजकुमार
बन जाता है सारे देश का दामाद
जिसको क़ानून के मुताबिक़
दे दिया जाता है सीताओं की ख़रीद-फरोख़्त
का लाइसेंस
सीताएं सफेद दाढ़ियों में बांध दी जाती हैं
और धरम की किताबों में
घासें गर्भवती हो जाती हैं

धरम देश से बड़ा है
उससे भी बड़ा है धरम का निर्माता
जिसके कमज़ोर बाजुओं की रक्षा में
तराशकर गिरा देते हैं
पुरानी पोथियों में लिखे हुए हथियार
तमाम चट्टान तोड़ती छोटी-छोटी बांहें,
क्योंकि बाम्हन का बेटा
बूढ़े चमार के बलिदान पर जीता है
भूसुरों के गांव में सारे बाशिंदे
किराएदार होते हैं
ऊसरों की तोड़ती आत्माएं
नरक में ढकेल दी जाती हैं
टूटती जमीनें गदरा कर दक्षिणा बन जाती हैं,
क्योंकि
जिनकी माताओं ने कभी पिसुआ ही नहीं पिया
उनके नाम भूपत, महीपत, श्रीपत नहीं हो सकते,
उनके नाम
सिर्फ बीपत हो सकते हैं

धरम के मुताबिक़ उनको मिल सकता है
वैतरणी का रिज़र्वेशन,
बशर्ते कि संकल्प दें अपनी बूढ़ी गाय
और खोज लाएं सवा रुपया कर्ज़,
ताकि गाय को घोड़ी बनाया जा सके
किसान की गाय
पुरोहित की घोड़ी होती है
और सबेरे ही सबेरे
जब ग्वालिनों के माल पर
बोलियां लगती हैं,
तमाम काले-काले पत्थर
दूध की बाल्टियों में छपकोरियां मारते हैं,
और तब तक रात को ही भींगी
जांघिए की उमस से
आंखें को तरोताजा करते हुए चरवाहे
खोल देते हैं ढोरों की मुद्धियां

एक बाणी गाय का एक लोंदा गोबर
गांव को हल्दीघाटी बना देता है,
जिस पर टूट जाती हैं जाने
कितनी टोकरियां,
कच्ची रह जाती हैं ढेर सारी रोटियां,
जाने कब से चला आ रहा है
रोज का ये नया महाभारत
असल में हर महाभारत एक
नए महाभारत की गुंजाइश पे रुकता है,
जहां पर अंधों की जगह अवैधों की
जय बोल दी जाती है
फाड़कर फेंक दी जाती हैं उन सब की
अर्जियां
जो विधाता का मेड़ तोड़ते हैं

सुनता हूं एक आदमी का कान फांदकर
निकला था,
जिसके एवज में इसके बाप ने इसको कुछ हथियार दिए थे,
ये आदमी जेल की कोठरी के साथ
तैर गया था दरिया,
घोड़ों की पूंछे झाड़ते-झाड़ते
तराशकर गिरा दिया था राजवंशों का गौरव
धर्म की भीख, ईमान की गरदन होती है मेरे दोस्त!
जिसको काट कर पोख्ता किए गए थे
सिंहासनों के पाए,
सदियां बीत जाती हैं,
सिंहासन टूट जाते हैं,
लेकिन बाक़ी रह जाती है ख़ून की शिनाख़्त,
गवाहियां बेमानी बन जाती हैं
और मेरा गांव सदियों की जोत से वंचित हो जाता है
क्योंकि कागजात बताते हैं कि
विवादित भूमि राम-जानकी की थी

Painting: Pinterest (Used only for Illustration purpose)

Tags: Aaj ki KavitaHindi KavitaHindi PoemKavitaRamashankar Yadav ‘Vidrohi’Ramashankar Yadav ‘Vidrohi’ Poem CollectionRamashankar Yadav ‘Vidrohi’ PoetryRamshankar Yadav ‘Vidrohi’ famous poemsRamshankar Yadav ‘Vidrohi’ poem Dharamआज की कविताकविताधरमरमाशंकर यादव ‘विद्रोही’रमाशंकर यादव विद्रोही की कविताएंहिंदी कविताहिंदी के कवि
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