मनोरंजन उद्योग बॉलिवुड पिछले कुछ सालों से जागरूकता फैलाने वाली फ़िल्मों के लिए भी जाना जाने लगा है. ऐसी ही एक फ़िल्म थी वर्ष 2018 में रिलीज़ हुई ‘हिचकी’. रानी मुखर्जी की मुख्य भूमिका वाली उस फ़िल्म को डायरेक्ट किया था सिद्धार्थ मल्होत्रा ने. फ़िल्म के तीन वर्ष पूरे होने के अवसर पर उन्होंने की हमसे ख़ास बातचीत. वैसे उनकी मानें तो फ़िल्म हिचकी ने बताया कि हमें अपने जीवन की हर तरह की हिचक (बाधा) को तलाश करके दूर करना चाहिए.
रानी मुखर्जी की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराही गई ब्लॉकबस्टर फ़िल्म ‘हिचकी’ ने पूरी दुनिया का दिल जीत लिया था. कई अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में अवॉर्ड जीतने वाली ‘हिचकी’ ने विश्वभर में 250 करोड़ रुपए से ज़्यादा की कमाई भी की थी. दिल छू लेने वाली इस फ़िल्म में एक बेहद सकारात्मक संदेश छिपा था. फ़िल्म में रानी को दृढ़ निश्चय वाली एक ऐसी स्कूल टीचर के रूप में दिखाया गया था, जो स्वयं के नर्वस सिस्टम डिसॉर्डर-टॉरेट सिंड्रोम से जूझते हुए आर्थिक तौर पर पिछड़े तबके के मासूम छात्रों की ज़िंदगी बदल देती है. इस फ़िल्म के रिलीज होने की तीसरी सालगिरह के मौक़े पर फ़िल्म के निर्देशक सिद्धार्थ पी मल्होत्रा का कहना है कि इस डिसॉर्डर को लेकर जागरूकता पैदा करने की दिशा में ‘हिचकी’ ने जो असर डाला था, वह उनके लिए गर्व का विषय है. पेश है उनसे हुई बातचीत के संपादित अंश.
फ़िल्म ‘हिचकी’ को आप अपने करियर की सबसे महत्वपूर्ण फ़िल्म मानते हैं, इसका कारण क्या है?
इसकी वजह यह है कि मेरे दिल के क़रीब वाली फ़िल्म ‘वी आर फ़ैमिली’ बॉक्स ऑफ़िस पर कुछ खास नहीं कर सकी थी. मुझे खारिज कर दिया गया था, मैं बुरे दिनों से गुज़र रहा था. कोई मुझे ‘हिचकी’ की कहानी ही नहीं सुनाने दे रहा था. लोगों का ख़याल था कि यह झुग्गी बस्ती के बच्चों के साथ रहने वाली किसी मानसिक रूप से विक्षिप्त टीचर की कहानी है, जिसको लेकर मैं किसी क़िस्म का आर्ट सिनेमा बनाने जा रहा हूं. लोग ऐसा करने, वैसा न करने वाली सलाहें दे रहे थे और कुल मिलाकर उनकी राय थी कि मुझे कोई कमर्शल ब्लॉकबस्टर फ़िल्म बनानी चाहिए.
लेकिन मैं इस बात को लेकर एकदम स्पष्ट था कि मुझे अपने दिल की आवाज़ सुनाने वाली फ़िल्म बनानी है. ‘हिचकी’ ने मुझे वह मौक़ा दिया. मेरे करियर की सबसे महत्वपूर्ण फ़िल्म इसलिए भी है क्योंकि इसने मुझे बतौर फ़िल्ममेकर दोबारा जन्म दिया! इसने मुझे ख़ुद पर विश्वास रखना सिखाया. यही वह फ़िल्म थी जिसके ज़रिए मैंने ख़ुद से कहा कि मेरे भीतर एक स्टोरीटेलर यक़ीनन मौजूद है. मुझे लगता है कि अपनी क़ाबिलियत पर विश्वास किसी भी फ़िल्ममेकर के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि होती है. यह फ़र्क़ कर पाना कि अमुक फ़िल्म सिद्धार्थ पी मल्होत्रा की है या फलां डायरेक्टर की है, अपने आप में बहुत बड़ी बात है. तो मुझे लगता है कि ‘हिचकी’ के माध्यम से मैंने अपनी अलग पहचान बना ली है. लोग मेरे काम से मुझे पहचान सकते हैं.
इस फ़िल्म से जुड़ी कौन-सी बात आपको सबसे ख़ास लगती है? क्यों सालों बाद इस फ़िल्म को याद रखना चाहेंगे?
मैंने इस फ़िल्म के ज़रिए टॉरेट सिंड्रोम के बारे में जागरूकता पैदा की थी, यह बात मुझे सालों तक याद रहेगी. फ़िल्म की सबसे ख़ास बात यह रही कि इसे देखने के बाद कई लोग खुलकर सामने आए, अनगिनत लोगों ने मुझे इसके संबंध में पत्र लिखे, क्योंकि उनकी नज़र में यह एक उलझन और शर्मिंदगी का विषय था. फ़िल्म के इतने गहरे असर को देख कर मैं बेहद ख़ुश था. इसका असर शिक्षकों पर, छात्रों पर भी देखा गया. इनके साथ-साथ फ़िल्म ने हर उस व्यक्ति की ज़िंदगी को प्रभावित किया जो किसी भी क़िस्म की दिव्यांगता से पीड़ित था.
‘हिचकी’ के लिए बतौर अभिनेत्री रानी मुखर्जी की भी काफ़ी तारीफ़ हुई थी. आप उनके बारे में क्या कहना चाहेंगे?
इसमें कोई शक़ नहीं है कि रानी की शानदार ऐक्टिंग ‘हिचकी’ का हाइलाइट थी, जिसने फ़िल्म के संदेश को प्रभावशाली ढंग से दुनियाभर में पहुंचाया. रानी को आप दुनिया का एक आश्चर्य कह सकते हैं, दरअसल आप उनको पूरे यूनिवर्स का वंडर कह सकते हैं, और मैं महज़ उनकी तारीफ़ करने के लिए ऐसा नहीं कह रहा हूं. मुझे अब भी याद है कि जब मैं फ़िल्म नैरेट कर रहा था, तो रानी ही वह शख्सियत थीं, जिन्होंने मुझसे साफ़ तौर पर कहा था कि मैं भारत में टॉरेट सिंड्रोम को लेकर जागरूकता पैदा करने जा रहा हूं.
अपनी भूमिका की तैयारी के लिए रानी ने रिसर्च की, उन लोगों और बच्चों से मिलीं जो टॉरेट से पीड़ित थे. कुछ बच्चे सामने ही नहीं आना चाहते थे, कुछ लोग उनके सामने अपनी घबराहट और शर्मिंदगी ज़ाहिर करने में हिचकिचा रहे थे. यह फ़िल्म अमेरिकी मोटिवेशनल स्पीकर ब्रैड कोहेन पर आधारित है. मुझे लगता है कि ब्रैड कोहेन के साथ काम करने के लिए रानी का समर्पण, ब्रैड का उनकी मदद करने का तरीक़ा और रानी द्वारा इस समस्या को अंगीकार करना और समझना ग़ज़ब का था. वह इतनी इंटेलिजेंट अभिनेत्री हैं कि आपको उन्हें कोई भी चीज़ एक या दो बार से ज़्यादा बताने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती.
एक टॉरेट पीड़ित व्यक्ति के किरदार में रानी की भरोसेमंद ऐक्टिंग ने दर्शकों का मन मोह लिया था. अपने लंबे अनुभव की बदौलत वह आसानी से समझ गई थीं कि उनको करना क्या है. मेरी समझ में उनकी ऐक्टिंग इतनी सहज और स्वाभाविक थी कि न सिर्फ़ भारत में, बल्कि पूरे विश्व के दर्शक उससे जुड़ गए. मुझे याद है कि एक बार हम लोग चीन गए थे और वहां लोग उनके दीवाने हुए जा रहे थे! मुझे लगता है रानी के साथ काम करने वाला हर व्यक्ति भाग्यशाली होता है. ज़्यादातर शॉट्स रानी पहले टेक में ही ओके करा देती हैं, ज़्यादा से ज़्यादा आपको दो टेक लेने पड़ सकते हैं.
आपके अनुसार इस फ़िल्म का सबसे बड़ा संदेश क्या था?
फ़िल्म में भले ही हिचकी यानी टॉरेट सिंड्रोम की बात की गई हो, पर अपनी हर तरह की कमी को पहचानना, उसे स्वीकार करना और दूर करने की कोशिश करना यह संदेश हमने फ़िल्म ‘हिचकी’ से देने की कोशिश की थी. मेरा मानना है कि हम सबको अपने-अपने टॉरेट की तलाश करनी चाहिए. हमने इसकी पहचान कर ली हो या न की हो, हमें स्वयं के टॉरेट से किसी न किसी रूप में लड़ना पड़ता है. लेकिन हां, फ़िल्म के असर को देख कर मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था. आज भी लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि वाह क्या फ़िल्म थी! यह सुनकर बहुत अच्छा लगता है क्योंकि इस मकाम तक पहुंचने का सफ़र और आदि (चोपड़ा) तथा मनीष (शर्मा) द्वारा मुझे अपने मनमाफ़िक फ़िल्म बनाने की इजाज़त देना ग़ज़ब की बात थी, क्योंकि इस फ़िल्म को संभालना अपने आपमें एक बड़ी चुनौती थी. इसलिए मैं उनका बेहद शुक्रगुज़ार हूं.