एक ओर देश में कोरोना महामारी ने विकराल रूप ले रखा है तो दूसरी ओर कुछ राज्यों में चल रहे चुनावों और कुंभ के मेले में बेलगाम भीड़ किसी प्रोटोकॉल का पालन नहीं कर रही है. ऐसे में क्या हमें मिलकर अपनी प्राथमिकताएं तय नहीं करनी चाहिए? या फिर हम सिर्फ़ मंदिर-मस्ज़िद को लेकर लड़ते रहेंगे? कनुप्रिया के इस नज़रिए पर आपको भी मनन करना चाहिए.
आप और हम देश के क़ब्रिस्तान और श्मशान बन जाने को लेकर रोते रहेंगे, चिताओं की पर्देदारी होती रहेगी, मनुष्य पहले बॉडी, फिर ख़बर और फिर आंकड़ों में बदलते रहेंगे, मगर राजनीति की ज़मीन तो मंदिर और मस्ज़िद पर ही तैयार होगी और उस ज़मीन की खुदाई के आदेश जारी हो गए हैं. वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में देश 2020-21की महामारी वाली त्रासदी पर रोना भूलकर ज्ञानवापी मस्ज़िद और काशी विश्वनाथ पर वोट कर रहा होगा.
इतिहास वर्तमान तक की यात्रा को दर्ज़ करता है तो समझ बढ़ाने के लिए, उसे यथासम्भव दृष्टा की तरह देखने की ज़रूरत रहती है, मगर पिछले कई सालों से हम सुबह का इंतज़ार करते हुए भविष्य के सूरज की ओर से पीठ किए हुए, पश्चिम की ओर मुख किए सौइयों सालों पहले बीती रातों का हिसाब-किताब कर रहे है. जब हम कृतघ्न और अहसान फ़रामोश में से क्या बोला जाए, शुक्रिया कहें कि धन्यवाद, मुबारक कहें कि शुभकामना इसी में व्यस्त हैं, वर्तमान विश्व बदल चुका है. टेक्नोलॉजी मनुष्य का विकल्प बन रही है, कॉरपोरेट विश्व संसाधनों पर कब्ज़ा कर खेत में क्या बोया जाएगा और हम अपने घरों में क्या खाएंगे-पिएंगे, जैसी जीने की शर्तें तक तय कर रहा है.
प्रकृति मानव हमले सहते सहते अब रिऐक्शन मोड में आ चुकी है, और इस सदी के बाद तक धरती का तापमान इतना होने वाला है कि आधी जनसंख्या ख़त्म होने के कगार पर बस, आ ही गई समझिए. कोरोना ने भी बता दिया है कि वो भेदभाव नहीं करता, उसने जीवन के लिए ज़रूरी व्यवस्थाओं को बहुत गहरे रेखांकित कर दिया है और भविष्य के लिये बहुत स्पष्ट सन्देश दे दिए हैं.
फिर भी अगर हम नहीं जागते, वर्तमान को देखते हुए भविष्य के ख़तरों को नहीं पहचानते, अपनी मूर्खताओं से सबक़ नही लेते, अपने असल भयों की पहचान नहीं करते तो हमें नष्ट होने से कोई मंदिर मस्ज़िद बचा नहीं सकेंगे.
इन मंदिर मस़्जिदों की खुदाई में इतिहास के मंदिर-मस्ज़िद दफ़्न हैं कि नहीं ये तो नहीं पता, मगर भविष्य के क़ब्रिस्तान और श्मशान ज़रूर छिपे हैं.
फ़ोटो: पिन्टरस्ट