मां कहने को तो एक शब्द है, पर जब इसे परिभाषित करने जाएं तो दुनिया के सारे शब्द कम पड़ जाते हैं. इस मदर्स डे हम लाए हैं कवि ब्रज श्रीवास्तव ‘मां’ पर लिखी पांच कविताएं.
1. मां की ढोलक
ढोलक जब बजती है
तो ज़रूर पहले
वादक के मन में बजती होगी
किसी गीत के संग
इस तरह चलती है
कि गीत का सहारा हो जाती है
और गीत जैसे नृत्य करने लग जाता है… जिसके पैरों में
घुंघरू जैसे बंध जाती है ढोलक की थाप
ऐसी थापों के लिए
मां बख़ूबी जानी जाती है,
कहते हैं ससुराल में पहली बार
ढोलक बजाकर
अचरज फैला दिया था हवा में उसने
उन दिनों रात में
ढोलक-मंजीरों की आवाज़ सुनते-सुनते ही
सोया करते थे लोग
दरअसल तब लोग लय में जीते थे
जीवन की ढोलक पर लगी
मुश्क़िलों की डोरियों को
ख़ुशी-ख़ुशी कस लेते थे
बजाने के पहले
अब यहां जैसा हो रहा है
मैं क्या कहूं
उत्सव में हम सलीम भाई को
बुलाते हैं ढोलक बजाने
और कोई नहीं सुनता
इधर मां पैंसठ पार हो गई है
उसकी गर्दन में तक़लीफ़ है
फिर भी पड़ोस में पहुंच ही जाती है
ढोलक बजाने
हम सुनते हैं मधुर गूंजें
थापें अपना जादू फैलाने लगती हैं
मां ही है उधर
जो बजा रही है
डूबकर ढोलक
***
2. पिता के बाद मां
पिता के बाद मां
बदल-सी गई है
सबके सामने नहीं करती वह
पिता को याद
अकेले में चुपके से पोंछती है आंख
पिता की तस्वीर पर रखकर हाथ
कुछ कहती है मन ही मन
भीड़ या बाज़ार में
जब जाती है बेटे के संग
तो नहीं छोड़ना चाहती अंगुली
मंदिर जाने पर उसे प्रसाद ज़रूर दिलाती है
हमें रोने नहीं देती कभी
समझाती है यह कहकर
ये तो होता ही है जीवन में
मुझे उस दोस्त का
यह कहना अच्छा लगा
कि तुम्हारे पास अभी
मां तो है
***
3. मां का मोबाइल
आज इंतज़ार ही रहा
पर नहीं आया मां का फ़ोन
ज़रूर चार्ज नहीं हो पाया होगा
सुबह से सभी बच्चों से बात
करते-करते हो गया होगा डिस्चार्ज
मां आख़िर सीख ही गईं
फ़ोन संभालना
चश्मे में से देखकर जब वह
खोजती है बेटी का नंबर
अद्भुत दृश्य होता है
जैसे मिलने ही वाला हो उनको राहत का
ख़ज़ाना
कहीं जाते समय अब
दवाई के बैग के साथ साथ
मोबाइल और चार्जर रखना नहीं भूलती वह
दूर बैठे बच्चों को फ़ोन नहीं लग पाना
यानी अधूरी रह जाना
दिनचर्या
है मां के लिए
सबको साथ देखने की
तलब कुछ तो कम हो जाती है
जी भर के बतिया लेने से
सत्तर की उमर में
यही संवाद ही तो हैं जो मां की ख़ुशी की पौध में
पानी सींचते हैं
सबको सबसे है
हाल चाल नहीं पूछने की
शिकायत
पर मां ने अपने
मोबाइल से जोड़ रखा है रिश्तों को
मां से नहीं है
किसी को शिकायत
***
4. नया घर
उस घर में किताबें छूट गईं
इस घर में हमारे साथ टीवी आया बड़ा वाला आईना छूट गया
एक रोशन दान छूट गया
गाय के रंभाने का दृश्य छूट गया
मंदिर की आरती की आवाज़ें
छूट गईं
कामवाली बाई छूट गई
छूट गया दूधवाला
अख़बार वाला बिछड़ गया
लेकिन वही अख़बार
इस घर में रोज़ाना आ रहा है
बहुत सारा समय छूट गया
उस घर में
इस घर में हमारे साथ नए समय का एक नमूना आया
जिसमें नए टाइल्स हैं और
छोटा-सा बगीचा है और
सामने बनते हुए नए-नए बंगले हैं
उस घर में भाई छूट गया
पड़ोसी भी छूट गए
और कुछ बच्चे भी
जो बाहर खेलते हुए
ध्यान खींचते थे
आ तो गई मां साथ
लेकिन उसका भी
आधा मन
तो उस घर में छूट गया
***
5. उनकी चिरैया
चिड़ियों ने जब
पाए बच्चे
बहुत ख़ुश रहे वे
मां-पिता के रूप में
दाना पानी
खिलाते
खिलाते
पता ही नहीं चला
कब उड़ना सीख गए बच्चे
अपना तिनका ख़ुद
चुनने के लिए
अब तो उड़ भी गई
उनकी चिरैया
Illustration: Pinterest
ब्रज श्रीवास्तव
पेशे से शिक्षक और रुचि से कवि विदिशा के ब्रज श्रीवास्तव की कविताएं और समीक्षाएं देश की प्रमुख साहित्यिक की पत्र-पत्रिकाओं में छपती रहती हैं. तमाम गुमी हुई चीज़ें, घर के भीतर घर, ऐसे दिन का इंतज़ार और आशाघोष इनके ये चार कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं.
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