बबीता राजपूत मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में स्थित छतरपुर ज़िले के अगरौठा गांव की 21 वर्षीय युवती हैं, जो फ़िलहाल बी.ए. द्वितीय वर्ष की छात्रा हैं. पिछले दिनों उनका नाम सभी की ज़ुबान पर था, क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मन की बात में उनका ज़िक्र करते हुए बताया था कि कैसे अपनी इच्छाशक्ति और सामुदायिक सहायता से उन्होंने अपने गांव के भूमिगत जल स्तर को सुधारा और पानी की समस्या का समाधान किया. इस बारे में ओए अफ़लातून ने बबीता से बात की और जाना कि आख़िर ये काम उन्होंने कैसे कर दिखाया.
केंद्रीय भूजल बोर्ड के आंकड़ों के मुताबिक़, देश में भूजल की मात्रा घटती ही जा रही है. यदि हम समय रहते नहीं चेते तो बोर्ड का अनुमान है कि वर्ष 2025 तक भूमिगत जल की उपलब्धता वर्ष 1951की तुलना में प्रति व्यक्ति 65% तक घट जाएगी और वर्ष 2050 तक यह घट कर मात्र 22% बची रहेगी. ऐसे में भूमिगत जल के स्तर को बढ़ाना ही एक मात्र तरीक़ा है, जो हमें पानी की किल्लत से बचा सकता है. और इसके लिए हमें मध्य प्रदेश के छतरपुर ज़िले के अगरौठा गांव की बबीता राजपूत जैसे लोगों की ज़रूरत है, जिन्होंने अपनी इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए अपने ही नहीं, बल्कि आसपास के पांच गांवों के भूमिगत जल स्तर को बढ़ाने जैसे काम को अंजाम दे कर नज़ीर पेश की है.
आख़िर कैसे हुई इस काम की शुरुआत?
हमारे गांव में पानी की कमी तो लंबे समय से थी. जब मैं छोटी थी, तब से ही. पर जब आठवीं, नवीं में आई तो जब मैं पढ़ने बैठी होती थी और घर पर पानी ख़त्म हो जाता था तो मुझे पढ़ाई छोड़ कर पानी लेने जाना पड़ता था. पानी के लिए घंटों लाइन में लगना पड़ता था. ग्यारहवीं में आते-आते मुझे यह बात इतनी खलने लगी कि मैंने पानी की कमी को दूर करने के बारे में घर के सदस्यों से, मेरे जान-पहचान के लोगों से बात करना शुरू किया कि हम यदि इस बारे में कुछ कर सकते हैं तो करना चाहिए. पर सबने यह कह कर चुप करवा दिया कि जब हम बड़े लोग मिल कर कुछ नहीं करवा पा रहे हैं तो तुम क्या कर लोगी?
फिर वर्ष 2019 में हमारे गांव में परमार्थ समाजसेवी संस्थान के कर्मचारी आए. उन्होंने हमें समझाया कि यदि सब मिल कर प्रयास करें तो हमारे गांव की पानी की समस्या को हल किया जा सकता है. कुछ लोगों को उनकी बात पर भरोसा हुआ और कुछ को नहीं. लेकिन मैं उनकी बात से पूरी तरह सहमत थी. मैं देख चुकी थी कि हमारे गांव में नेता लोग आते और हैंडपम्प लगवाते या टंकी बनवा देते, लेकिन जब ज़मीन में पानी होगा ही नहीं तो ये चीज़ें किसी काम की थीं? मैंने उनके साथ अपनी सहमति जताई और उनके मार्गदर्शन में काम करने की इच्छा भी. उन्होंने मुझे जल सहेली बनाया और हमारी टीम बनाकर मुझे यह काम सौंपा कि मैं महिलाओं को इस सामुदायिक कार्य के लिए मनाऊं, क्योंकि पानी न होने से सबसे ज़्यादा प्रभावित तो महिलाएं ही होती हैं. हमने इस बात को चुनौती की तरह लिया और अपने स्तर पर महिलाओं को समझाने का काम शुरू कर दिया.
क्या इस काम के लिए घर से या कहीं और से विरोध झेलना पड़ा?
मैं अपने घर में सबसे छोटी हूं. हम तीन बहनें और एक भाई हैं. मेरे पिता पेशे से किसान हैं. मेरे माता-पिता ने हम सभी को पढ़ने के लिए हमेशा प्रेरित किया. गांव में स्कूल आठवीं तक ही था तो आगे की पढ़ाई के लिए बाहर भी भेजा. मेरे भाई-भाभी ने जल संरक्षण और संवर्धन के कामों में हमेशा मेरी मदद की. महिलाओं को मनाना और जल संवर्धन के प्रयासों के लिए बाहर निकालना थोड़ा मुश्क़िल था, लेकिन कुछ महिलाएं शुरू-शुरू में ही साथ आ गईं तो मेरा मनोबल बढ़ा. जहां तक विरोध की बात है तो कुछ पुरुषों ने विरोध किया था, पर बाद में वे भी मान गए.
आपने गांव की अन्य महिलाओं के साथ मिलकर जल संरक्षण व संवर्धन के काम को कैसे अंजाम दिया?
हमारे गांव के आसपास जंगल है. गांव में एक ही तालाब है, जिसे वर्ष 2008 में दिए गए बुंदेलखंड पैकेज में थोड़ा बड़ा कर दिया गया था. गांव के एक ओर बछेरी नदी बहती है, जो गर्मियों में पूरी तरह सूख जाती है. परमार्थ समाजसेवी संस्थान के जल जन जोड़ो अभियान के तहत हमने महिलाओं और प्रवासी मज़दूरों के साथ मिलकर यह काम चरणबद्ध तरीक़े से शुरू किया.
पहले चरण में हमने कुछ लघुबांध यानी चेकडैम (बारिश के पानी को रोकने के लिए बने मिट्टी, पत्थर या सीमेंट-रोड़ी से बनाया गया अवरोध) बनाए. जगह-जगह बोरी बंधान किया. इससे नहाने और पशुओं को पानी पिलाने के लिए पानी उपलब्ध होने लगा. थोड़ा-बहुत पानी बचा तो वो खेतों के काम आ गया. तब लोगों में भरोसा जागा कि कोशिश की जाए तो हम पानी की कमी से उबर सकते हैं.
फिर यह योजना बनाई गई कि हमारे तालाब को बछेरी नदी से जोड़ा जाए. जैसा कि मैंने बताया था कि हमारे गांव के आसपास जंगल है और नदी एक पहाड़ी के बाद बहती है. यह पहाड़ी वन विभाग के अंतर्गत आती है तो हमें विभाग से इस बात की अनुमति लेनी पड़ी कि हम नदी से अपने गांव के तालाब को जोड़ने के लिए एक नालेनुमा नहर का निर्माण कर सकें. महीनेभर की दौड़-भाग के बाद यह अनुमति मिली और फिर हम सब दोबारा काम पर जुट गए. हम महिलाओं और मज़दूरों ने मिलकर नदी से अपने तालाब को जोड़ने के लिए एक 107 मीटर लंबी नहर बना ली.
इससे आपके गांव में क्या बदलाव आया?
पानी की किल्लत कम हुई और भूजल का स्तर भी बढ़ा. वर्ष 2019-20 में हमारे गांव के इलाक़े में बारिश कम हुई इसके बावजूद हमारे गांव का तालाब 60-70% तक भर गया, जबकि पहले अच्छी बारिश होने के बावजूद यह 30-40% तक ही भर पाता था. हम लोगों ने नदी से तालाब तक जो नहर खोदी थी, उसके आसपास लगभग 500 पेड़ों को भी रोपा है और पानी को रोकने के लिए पहाड़ों पर ट्रेंच भी बनाए हैं. इससे हमारे गांव के भूजल स्तर में बढ़ोतरी हुई है, वो भी कम पानी बरसने के बावजूद. हमें पूरी उम्मीद है कि इस साल यदि बारिश अच्छी हुई तो हमारे प्रयासों से केवल हमारे ही नहीं, बल्कि आसपास के गांवों जैसे बेलदा, चौधरीखेड़ा और मनकपुरा में भी भूजल स्तर में बढ़ोतरी होगी.
इस सामुदायिक काम से लोगों की सोच में भी बदलाव आया है. अब यहां कई लोगों ने अपने घर के पीछे किचन गार्डन बना लिया है. जिस पानी को पिछले दिन का पुराना पानी मान कर फेंका जाता था, ताकि पानी के बर्तन को धो कर दोबारा पानी भर सकें, उस पानी से किचन गार्डन को सींचा जाने लगा है. लोग अपने लिए सब्ज़ियां ख़ुद ही उगा रहे हैं.
कैसा लगा जब आप लोगों के काम की तारीफ़ की गई?
ज़ाहिर है, हम सभी बहुत ख़ुश थे. प्रधानमंत्री ने जब मेरा नाम जलयोद्धा की तरह लिया तो मेरे घर के, गांव के, संस्था के सभी लोग बहुत ख़ुश थे. लेकिन सच तो यह है कि ये एक सामुदायिक काम था, जिसमें सभी ने अपने-अपने हिस्से का योगदान दिया. संस्था ने मार्गदर्शन किया, हमारे साथ खड़ी रही. महिलाओं ने अपने घरेलू काम से समय निकाल कर श्रमदान किया. श्रमदान में पुरुष भी पीछे नहीं रहे. इस तारीफ़ से सच पूछिए तो हम सबकी ज़िम्मेदारी बढ़ी ही है कि अब हमें जल संवर्धन और संरक्षण के काम को हमेशा बढ़ावा देते रहना है.
बबीता ख़ुद सुना रही हैं अपने गांव के लोगों के सामूहिक प्रयास की कहानी…