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चाची 420: किसी सोती हुई दोपहरी में फ़ील गुड करानेवाली फ़िल्म

जयंती रंगनाथन by जयंती रंगनाथन
April 21, 2021
in ओए एंटरटेन्मेंट, रिव्यूज़
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चाची 420: किसी सोती हुई दोपहरी में फ़ील गुड करानेवाली फ़िल्म
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कुछ फ़िल्में, घटनाएं दिलो-दिमाग़ में बस एकदम से छप जाती हैं. आज इसलिए भी मैं उस दिन को याद कर रही हूं, क्योंकि इस फ़िल्म को देखते हुए मैं अर्से बाद मैं ख़ूब हंसी थी, पेट पकड़ कर हंसी थी. डर लग रहा था कि हंसी से लोटपोट होते हुए मैं अगला सीन ना मिस कर दूं. इसलिए भी कि मैं तमिल फ़िल्म अव्वै षणमुखी देख रही थी, तमिल के डायलॉग को पूरी तरह समझने के लिए मुझे कुछ ज़्यादा ही ध्यान लगाना पड़ता है. इसी फ़िल्म को हम हिंदी में चाची 420 के नाम से जानते हैं.

साल था 1996. नवंबर का महीना. मेरा भाई रवि शंकर मुंबई छोड़ कर चेन्नई चला गया था नौकरी करने. मैं उन दिनों सोनी टेलीविज़न में काम करती थी, मुंबई में अकेली रहती थी और जैसे ही मौक़ा मिलता, भाई के पास चेन्नई चल देती. दीवाली की छुट्टियों में चेन्नई में रवि मुझे वहां के ओपन एयर थिएटर में ले गया था. गाड़ी के बोनट पर बैठ कर फ़िल्म देखने का मेरा पहला अनुभव था. कमल हासन हम सबका फ़ेवरेट ऐक्टर है. इससे कुछ साल पहले हम तमिल फ़िल्म माइकल-मदन-काम-राज देख चुके थे, जिसमें कमल ने चार भाइयों की भूमिका निभाई थी. ग़ज़ब की फ़िल्म. अगर आपने नहीं देखी है तो देख डालिए. तमिल फ़िल्म हो तो क्या, मेरी गारंटी कि आप इस मनोरंजक फ़िल्म का पूरा आनंद ले पाएंगे.
बात करते हैं अव्वै षणमुखी की. मैं हंस रही थी, पेट पकड़ के. फिर अगले ही साल यानी 1997 में यह फ़िल्म चाची चार सौ बीस के नाम से आई. मैं आज बात करूंगी हिंदी रीमेक की. जो तमिल ओरिजनल से हर मामले में बीस है. इसकी वजह है गुलज़ार के चुटीले संवाद, और अपने वक़्त के दिग्गज कलाकारों का बेहतरीन जमावड़ा. अमरीश पुरी, ओम पुरी, तब्बू, परेश रावल, जॉनी वॉकर, नजीर, आयशा जुल्का और फ़ातिमा सना शेख़. चाची चार सौ बीस मैंने दिल्ली में केबल टीवी पर देखी थी, वो भी अकेले. डिफेंस कॉलोनी के घर में मैं अकेली रहती थी. मुझे उम्मीद नहीं थी कि यह फ़िल्म इतनी सधी हुई होगी. वजह? मैंने आपको पहले ही बताया है कि कमल हासन घर में सबके पसंदीदा कलाकार रहे हैं. नायकन (इसके बारे में अलग से लिखूंगी), अप्पू राजा, माइकल मदन काम राज, सागर, (सदमा और एक दूजे के लिए मुझे कम अच्छी लगी थी), इंडियन और भी ना जाने कितनी फ़िल्में.
फ़िल्म की कहानी 1993 में हॉलीवुड की हिट फ़िल्म मिसेज डाउटफ़ायर से प्रेरित है. जय प्रकाश पासवान (कमल हासन) फ़िल्मों में असिस्टेंट डांस डायरेक्टर है. उसे एक बड़े इंडस्ट्रियलिस्ट की बेटी जानकी (तब्बू) से प्यार हो जाता है. जानकी सब कुछ छोड़छाड़ कर उसके किराए के एक कमरे के चाल में रहने लगती है. दोनों की बेटी भारती है जो अपने पापा से बहुत प्यार करती है. जय और जानकी में लड़ाइयां होने लगती है. आग में घी का पीपा ले कर कूद पड़ते हैं जानकी के पापा दुर्गाप्रसाद (अमरीश पुरी). उनका पूरा साथ देता है उनका राइट हैंड मैन और सेक्रेटरी बनवारी (ओम पुरी). दोनों में तलाक़ हो जाता है और बच्ची की कस्टडी मां को मिल जाती है. बेटी को मिलने से तरसते हुए पापा को उससे मिलने का एक ही उपाय नज़र आता है कि वह औरत का भेस बना कर ससुर के घर में बेटी की आया बन जाए. औरत के भेस में जय अपना नाम लक्ष्मी रखता है. बस बेटी अपने पापा को पहचान जाती है. लक्ष्मी हर तरह से सुसंपन्न है. घर की दिक़्क़तों को पल भर में सुलझाती है. गुंडों से जानकी को बचाती है. ससुर को हार्टअटैक आने पर हाथ में उठा कर गाड़ी चला कर अस्पताल ले जाती है. विधुर ससुर लक्ष्मी पर फ़िदा हो जाते हैं और उससे शादी की सोचने लगते हैं. जय अपना डांस का काम और आया का काम दोनों के बीच ख़ूबसूरती से जगल करता है. उसके चाल के मालिक हरि (परेश रावल) को भी जय के घर में हरदम आने वाली लक्ष्मी से इश्क़ हो जाता है.
सिचुएशनल कॉमेडी के साथ-साथ चुटीले संवादों के तड़के के साथ आगे बढ़ती फ़िल्म आखिरकार वहां पहुंचती है जहां जानकी को अहसास होता है कि वह अब भी जय को चाहती है. जय को ज़िंदा रहना है तो लक्ष्मी को तो मरना ही है…
बाप-बेटी के रिश्ते पर बहुत कम फ़िल्में आई हैं. एक पिता को सेंसिटिव दिखाना, अपनी बेटी के साथ रहने के लिए जोखिम लेना और रिश्तों को एक पुरुष के एंगल से देखना बेहद रिफ्रेशिंग चेंज है. मेरी अम्मा कहती थीं, एक पिता की सही पहचान बच्चों के साथ उसके रिश्ते देख कर होती है. अगर वह अपने बच्चों का दोस्त है, हमदर्द है, तो ज़रूर वह एक संजीदा इंसान होगा. जय का किरदार इस उक्ति पर फ़िट बैठता है.
यह फ़िल्म ख़ूब चली. हर किरदार का काम बेहद पसंद किया गया. ख़ासकर ज़िक्र जय और जानकी की बेटी भारती का, उस बच्ची ने कमाल का काम किया है. उस बच्ची का नाम है फ़ातिमा सना शेख़. दंगल गर्ल और दो दिन पहले अमेजॉन में रिलीज वेब फ़िल्म अजीब दास्ता की एक कड़ी की नायिका.
किसी सोती हुई दोपहरी में यह फ़िल्म आपको फ़ील गुड कराएगी, हंसाएगी, गुदगुदाएगी. अपने से बिछुड़े कुछ दिग्गज कलाकारों की याद भी दिलाएगी. फ़िल्म में गानों का खास काम नहीं. लेकिन एक गाना ‘एक ये दिन भी थे, एक वो दिन भी थे,’ बेहद हमिंग है.
इसकी लाइंस देखिए:
कोई आता है पलकों पर चलता हुआ
एक आंसू सुनहरी सा जलता हुआ
ख़्वाब बुझ जाएगी, रात रह जाएंगे
रात ये भी गुज़र जाएगी
दूसरा गाना वो है, जिससे नब्बे के दशक का हर बच्चा-नौजवां आइडेंटीफाई कर सकता है: मैकरीना. la macerena song इतना लोकप्रिय था कि उस पर इस फ़िल्म में एक पैरोडी है. मज़ेदार है.

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फ़िल्म चाची 420 से जुड़ी कुछ दिलचस्प बातें
इस फ़िल्म से जुड़ी तमाम कंट्रोवर्सीज़ पर बात की जाती रही है, मसलन-जब कमल हासन ने तय किया कि अव्वै षणमुखी हिंदी में बनाएंगे तो निर्देशन की ज़िम्मेदारी सौंपी मुंबई के फ़ेमस ऐड मैन और फ़िल्म ऐक्ट्रेस किमी काटकर के पति शांतनु शौरी को. शांतनु और कमल अच्छे दोस्त थे. फ़िल्म में पहले ऐश्वर्या को हीरोइन के रोल के लिए लिया जाना था. ऐश्वर्या को शांतनु ने रिजेक्ट कर दिया. कमल हासन चाहते थे मनीषा कोईराला, पर मनीषा बहुत व्यस्त थीं. फिर आईं तब्बू. कमल हासन ने सह कलाकारों में ओम पुरी, अमरीश पुरी, परेश रावल का नाम फ़ाइनल किया. शांतनु को लगा कि इतने बड़े कलाकारों की वजह से कमल का किरदार दब जाएगा. पर कमल अड़े रहे. शूटिंग शुरू होते ही कमल और शांतनु के बीच मतभेद भी शुरू हो गए. एक वक़्त ऐसा भी आया कि एक बड़े झगड़े के बाद शांतनु यह कहते हुए सेट से निकल गए कि कमल का ईगो इतना बड़ा है कि यह फ़िल्म कभी बन ही नहीं सकती. पहले इस फ़िल्म का नाम चिकनी चाची था, फिर स्त्री 420. बाद में चाची 420 हुआ. लेकिन कमल हासन ने ख़ुद निर्देशन का बीड़ा उठाया और फ़िल्म तेज़ी से बनने लगी.

क्यों देखें: कारण गिनिए मत, बस देख डालिए.

कहां देखें: अमेज़ॉन प्राइम, यूट्यूब यहां हिंदी और तमिल वाली फ़िल्म का डब्ड वर्ज़न देख सकते हैं

Tags: 30 days 30 films30 दिन 30 फिल्मेंChachi 420कल्ट क्लासिक फिल्मेंचाची 420जयंती रंगनाथनपुरानी फिल्मेंफिल्म रिव्यूफिल्म समीक्षाफिल्में और ज़िंदगी
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जयंती रंगनाथन

वरिष्ठ पत्रकार जयंती रंगनाथन ने धर्मयुग, सोनी एंटरटेन्मेंट टेलीविज़न, वनिता और अमर उजाला जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में काम किया है. पिछले दस वर्षों से वे दैनिक हिंदुस्तान में एग्ज़ेक्यूटिव एडिटर हैं. उनके पांच उपन्यास और तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. देश का पहला फ़ेसबुक उपन्यास भी उनकी संकल्पना थी और यह उनके संपादन में छपा. बच्चों पर लिखी उनकी 100 से अधिक कहानियां रेडियो, टीवी, पत्रिकाओं और ऑडियोबुक के रूप में प्रकाशित-प्रसारित हो चुकी हैं.

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