दैनिक हिंदुस्तान की एग्ज़ेक्यूटिव एडिटर जयंती रंगनाथन, फ़ेसबुक जैसे बड़ी पहुंच वाले सोशल मीडिया प्लैटफ़ॉर्म का रचनात्मक इस्तेमाल करने के लिए जानी जाती हैं. 30 लेखकों के साथ, रोज़ एक कहानी वाला प्रयोग रहा हो या पिछले साल लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन नाम से 21 अलग-अलग लेखकों की कहानियों को एक मंच पर लाना रहा हो… उन्होंने फ़ेसबुक का सकारात्मक इस्तेमाल करना सिखाया है. कोरोना की दूसरी लहर में जहां एक बार फिर बंदी का माहौल बन रहा है, जयंती ‘थर्टी डेज़ थर्टी फ़िल्म्स’ नामक नई पहल के साथ आई हैं. 30 दिनों तक 30 फ़िल्मों के बारे में लिखने की शुरुआत उन्होंने यश चोपड़ा की फ़िल्म काला पत्थर से की.
आज फ़िल्म काला पत्थर को कल्ट फ़िल्म का स्टेटस हासिल है. पर 9 अगस्त 1979 को जब यह फ़िल्म रिलीज़ हुई थी, इसे दर्शकों ने लगभग नकार दिया था. मैं नाइंथ क्लास में थी. हम भिलाई में रहते थे. अप्पा और अम्मा फ़िल्में देखने के ज़बरदस्त शौक़ीन. नई फ़िल्म रिलीज़ हुई कि हम सब पहुंच गए पहले ही दिन. उन दिनों अख़बारों में रिव्यू पढ़ कर जाने का रिवाज भी नहीं था. इससे पहले पूरा परिवार अमिताभ बच्चन की दीवार, शोले, कभी-कभी देख चुका था. अगस्त की चिपचिपाती गर्मी में भिलाई के वसंत टाकीज में दोपहर तीन से छह का शो देखने हम सब पहुंचे थे. उन दिनों थियेटर के अंदर स्मोकिंग अलाउड था और आगे की सीटों पर बैठे बूढ़े बच्चे वॉश रूम जाने के बजाय, थिएटर के ही किसी कोने का इस्तेमाल कर लेते. उस भभकते स्मेल, धधकते मौसम के बीच इंटरवेल में गर्म समोसे खाना भी लाजिम था. अब बात करते हैं काला पत्थर की.
यश चोपड़ा इस फ़िल्म के प्रोड्यूसर और डायरेक्टर थे. कहानी नेवी से अपदस्थ हुए विजय की है, जो डूबते जहाज में सबसे पहले अपनी जान बचाने भाग निकलता है. इसकी उसे सज़ा मिलती है और विजय (अमिताभ बच्चन) अपनी इस भूल से कभी उबर नहीं पाता. अपने आपको सज़ा देने के लिए वह धनबाद के एक कोयला खदान में मज़दूर बन अनाम सी ज़िंदगी जीने लगता है. खदान के मालिक प्रेम चोपड़ा को बस पैसे से मतलब है. उसे मज़दूरों की ज़िंदगी और सेफ़्टी से कोई लेनादेना नहीं है. खदान में एक इंजीनियर रवि (शशि कपूर) की एंट्री होती है. वहीं पुलिस से बच कर एक क्रिमिनल मंगल (शत्रुघ्न सिन्हा) भी आ पहुंचता है और मज़दूर बन कर काम करने लगता है. विजय और मंगल में ठन जाती है. खदान में चूड़ी और तमाम अल्लम-गल्लम बेचने वाली छन्नो (नीतू सिंह) है, आदर्श डॉक्टर सुधा सेन (राखी) है और खदान के मालिक की दोस्त की बेटी पत्रकार अनीता (परवीन बॉबी) भी है.
काला पत्थर की मूल कहानी सन 1975 में चासनाला कोयला खदान में हुई दुर्घटना पर आधारित है. मालिकों के लालच की वजह से खदान में पानी भर जाता है और हज़ारों मज़दूर जान से हाथ धो बैठते हैं. काला पत्थर में इस गंभीर कहानी के साथ-साथ एक ख़ुशनुमा ज़िंदगी साथ चलती है. विजय और रीना का आंखों ही आंखों में चलता रोमांस, छन्नो और मंगल की ठिठोलियां और रवि और अनीता की अठखेलियों भरी दोस्ती भी है. खदान के मज़दूरों की बेबस ज़िंदगी में शादी या बोनस जैसी ख़बरें उनकी काली ज़िंदगियों में हलकी सी रोशनी बन कर आती हैं. फ़िल्म के सभी किरदारों ने ज़बरदस्त काम किया है. संगीत बेहद मुलायम है.
उस उम्र में मुझे पता नहीं कैसे और क्यों यह फ़िल्म बेहद अच्छी लगी थी. सीधे दिल पर. जैसे एक बेहतरीन पैकेज हो. फ़िल्म की तीनों महिला किरदार सशक्त हैं, अपने फ़ैसले ख़ुद लेती हैं. इस फ़िल्म को देखने के बाद कई दिनों तक मैं इसके नशे में खोई रही. काला पत्थर वो पहली फ़िल्म थी, जो मेरी रूह में बस गई. मैं हंसी, रोई, कलपी, किरदारों के साथ जुड़ी और कुछ और देखने का लालच लिए वापस लौटी. आज भी जब भी यह फ़िल्म देखती हूं, उतना ही रोमांच महसूस करती हूं.
फ़िल्म काला पत्थर से जुड़े कुछ दिलचस्प क़िस्से
दरअसल जब अमिताभ ने काला पत्थर साइन किया, वो बड़े स्टार बन चुके थे. यश चोपड़ा पहले मंगल की भूमिका में शशि कपूर को और रवि की भूमिका में ऋषि कपूर को साइन करना चाहते थे. पर ऋषि किसी कारण से फ़िल्म नहीं कर पाए. तो यश जी ने रवि की भूमिका शशि कपूर को दे दी. मंगल की भूमिका में शत्रुघ्न को साइन किया, यह सोच कर कि अमिताभ और वे अच्छे दोस्त हैं. पर अमिताभ को शत्रुघ्न का इस फ़िल्म में काम करना नहीं रुचा. इस फ़िल्म में काम करने के दौरान उन्होंने शत्रुघ्न से दूरी बना ली. यह बात अपने एक इंटरव्यू में शत्रु जी ने ख़ुद बताया था. यही नहीं शत्रु जी को यश जी से यह भी शिकायत रही कि अमिताभ के कहने पर उन्होंने मंगल के रोल में कांट छांट की और उन्हें पूरे पैसे भी नहीं दिए. मंगल के डॉयलाग इस फ़िल्म में बेहद चर्चित हुए.
यश चोपड़ा इस फ़िल्म में ट्रक ड्राइवर वाले रोल में धर्मेंद्र को लेना चाहते थे. धरम जी ने हामी भर दी, पर जब पता चला कि उनका रोल ख़ास नहीं है, तो परीक्षित साहनी से अनुरोध किया कि वो यह रोल कर लें.
यह फ़िल्म खास नहीं चली. इसे उस समय कोई अवॉर्ड भी नहीं मिला. हालांकि सलीम-जावेद की पटकथा की तारीफ़ ज़रूर हुई.
इस फ़िल्म को क्यों देखें: ज़बरदस्त कहानी, डॉयलाग, ऐक्टिंग और गाने, वाक़ई यह एक कल्ट फ़िल्म है.
कहां उपलब्ध है: यू ट्यूब, अमेज़ॉन प्राइम