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बड़े घर की बेटी: कहानी बनते-बिगड़ते रिश्तों की (लेखक: मुंशी प्रेमचंद)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
November 14, 2021
in क्लासिक कहानियां, ज़रूर पढ़ें, बुक क्लब
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बड़े घर की बेटी: कहानी बनते-बिगड़ते रिश्तों की (लेखक: मुंशी प्रेमचंद)
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घर को संभालने, परिवार में शांति बनाए रखने और रिश्तों की नाज़ुक डोर को उलझने से बचाए रखने में घर की स्त्रियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. जहां, पुरुष हर समस्या का हल झगड़े और क्रोध से निकालते हैं, वहीं स्त्रियां अपनी समझदारी से रिश्तों की नाज़ुक डोर को संभाले रखती हैं. परिवारों को बिखरने से रोक सकती हैं. मुंशी प्रेमचंद की कहानी बड़े घर की बेटी में अमीर परिवार से आई बहू आनंदी इसी समझदारी का उदाहरण प्रस्तुत करती है.

बेनीमाधव सिंह गौरीपुर गांव के ज़मींदार और नम्बरदार थे. उनके पितामह किसी समय बड़े धन-धान्य संपन्न थे. गांव का पक्का तालाब और मंदिर जिनकी अब मरम्मत भी मुश्क़िल थी, उन्हीं के कीर्ति-स्तंभ थे. कहते हैं इस दरवाज़े पर हाथी झूमता था, अब उसकी जगह एक बूढ़ी भैंस थी, जिसके शरीर में अस्थि-पंजर के सिवा और कुछ शेष न रहा था; पर दूध शायद बहुत देती थी; क्योंकि एक न एक आदमी हांडी लिए उसके सिर पर सवार ही रहता था. बेनीमाधव सिंह अपनी आधी से अधिक संपत्ति वक़ीलों को भेंट कर चुके थे. उनकी वर्तमान आय एक हज़ार रुपये वार्षिक से अधिक न थी. ठाकुर साहब के दो बेटे थे. बड़े का नाम श्रीकंठ सिंह था. उसने बहुत दिनों के परिश्रम और उद्योग के बाद बी.ए. की डिग्री प्राप्त की थी. अब एक दफ़्तर में नौकर था. छोटा लड़का लालबिहारी सिंह दोहरे बदन का, सजीला जवान था. भरा हुआ मुखड़ा, चौड़ी छाती. भैंस का दो सेर ताज़ा दूध वह उठ कर सबेरे पी जाता था. श्रीकंठ सिंह की दशा बिलकुल विपरीत थी. इन नेत्रप्रिय गुणों को उन्होंने बी.ए. इन्हीं दो अक्षरों पर न्योछावर कर दिया था. इन दो अक्षरों ने उनके शरीर को निर्बल और चेहरे को कांतिहीन बना दिया था. इसी से वैद्यक ग्रंथों पर उनका विशेष प्रेम था. आयुर्वेदिक औषधियों पर उनका अधिक विश्वास था. शाम-सबेरे उनके कमरे से प्राय: खरल की सुरीली कर्णमधुर ध्वनि सुनाई दिया करती थी. लाहौर और कलकत्ते के वैद्यों से बड़ी लिखा-पढ़ी रहती थी.
श्रीकंठ इस अंग्रेज़ी डिग्री के अधिपति होने पर भी पाश्चात्य सामाजिक प्रथाओं के विशेष प्रेमी न थे; बल्कि वह बहुधा बड़े ज़ोर से उसकी निंदा और तिरस्कार किया करते थे. इसी से गांव में उनका बड़ा सम्मान था. दशहरे के दिनों में वह बड़े उत्साह से रामलीला होते और स्वयं किसी न किसी पात्र का पार्ट लेते थे. गौरीपुर में रामलीला के वही जन्मदाता थे. प्राचीन हिंदू सभ्यता का गुणगान उनकी धार्मिकता का प्रधान अंग था. सम्मिलित कुटुम्ब के तो वह एक-मात्र उपासक थे. आज-कल स्त्रियों को कुटुम्ब में मिल-जुल कर रहने की जो अरुचि होती है, उसे वह जाति और देश दोनों के लिए हानिकारक समझते थे. यही कारण था कि गांव की ललनाएं उनकी निंदक थीं! कोई-कोई तो उन्हें अपना शत्रु समझने में भी संकोच न करती थीं! स्वयं उनकी पत्नी को ही इस विषय में उनसे विरोध था. यह इसलिए नहीं कि उसे अपने सास-ससुर, देवर या जेठ आदि घृणा थी; बल्कि उसका विचार था कि यदि बहुत कुछ सहने पर भी परिवार के साथ निर्वाह न हो सके, तो आए-दिन की कलह से जीवन को नष्ट करने की अपेक्षा यही उत्तम है कि अपनी खिचड़ी अलग पकाई जाए.
आनंदी एक बड़े उच्च कुल की लड़की थी. उसके बाप एक छोटी-सी रियासत के ताल्लुकेदार थे. विशाल भवन, एक हाथी, तीन कुत्ते, झाड़फानूस, आनरेरी मजिस्ट्रेट और ऋण, जो एक प्रतिष्ठित ताल्लुकेदार के योग्य पदार्थ हैं, सभी यहां विद्यमान थे. नाम था भूपसिंह. बड़े उदार-चित्त और प्रतिभाशाली पुरुष थे; पर दुर्भाग्य से लड़का एक भी न था. सात लड़कियां हुईं और दैवयोग से सब की सब जीवित रहीं. पहली उमंग में तो उन्होंने तीन ब्याह दिल खोलकर किए; पर पंद्रह-बीस हज़ार रुपयों का कर्ज़ सिर पर हो गया, तो आंखें खुलीं, हाथ समेट लिया. आनंदी चौथी लड़की थी. वह अपनी सब बहनों से अधिक रूपवती और गुणवती थी. इससे ठाकुर भूपसिंह उसे बहुत प्यार करते थे. सुन्दर संतान को कदाचित् उसके माता-पिता भी अधिक चाहते हैं. ठाकुर साहब बड़े धर्म-संकट में थे कि इसका विवाह कहां करें? न तो यही चाहते थे कि ऋण का बोझ बढ़े और न यही स्वीकार था कि उसे अपने को भाग्यहीन समझना पड़े. एक दिन श्रीकंठ उनके पास किसी चंदे का रुपया मांगने आए. शायद नागरी-प्रचार का चंदा था. भूपसिंह उनके स्वभाव पर रीझ गए और धूमधाम से श्रीकंठसिंह का आनंदी के साथ ब्याह हो गया.
आनंदी अपने नए घर में आई, तो यहां का रंग-ढंग कुछ और ही देखा. जिस टीम-टाम की उसे बचपन से ही आदत पड़ी हुई थी, वह यहां नाम-मात्र को भी न थी. हाथी-घोड़ों का तो कहना ही क्या, कोई सजी हुई सुंदर बहली तक न थी. रेशमी स्लीपर साथ लाई थी; पर यहां बाग़ कहां. मकान में खिड़कियां तक न थीं, न ज़मीन पर फ़र्श, न दीवार पर तस्वीरें. यह एक सीधा-सादा देहाती गृहस्थी का मकान था; किन्तु आनंदी ने थोड़े ही दिनों में अपने को इस नई अवस्था के ऐसा अनुकूल बना लिया, मानों उसने विलास के सामान कभी देखे ही न थे.

एक दिन दोपहर के समय लालबिहारी सिंह दो चिड़िया लिए हुए आया और भावज से बोला-जल्दी से पका दो, मुझे भूख लगी है. आनंदी भोजन बनाकर उसकी राह देख रही थी. अब वह नया व्यंजन बनाने बैठी. हांड़ी में देखा, तो घी पाव-भर से अधिक न था. बड़े घर की बेटी, किफ़ायत क्या जाने. उसने सब घी मांस में डाल दिया. लालबिहारी खाने बैठा, तो दाल में घी न था, बोला-दाल में घी क्यों नहीं छोड़ा?
आनंदी ने कहा-घी सब मांस में पड़ गया. लालबिहारी ज़ोर से बोला-अभी परसों घी आया है. इतना जल्द उठ गया?
आनंदी ने उत्तर दिया-आज तो कुल पाव-भर रहा होगा. वह सब मैंने मांस में डाल दिया.
जिस तरह सूखी लकड़ी जल्दी से जल उठती है, उसी तरह क्षुधा से बावला मनुष्य ज़रा-ज़रा सी बात पर तिनक जाता है. लालबिहारी को भावज की यह ढिठाई बहुत बुरी मालूम हुई, तिनक कर बोला-मैके में तो चाहे घी की नदी बहती हो!
स्त्री गालियां सह लेती हैं, मार भी सह लेती हैं; पर मैके की निंदा उनसे नहीं सही जाती. आनंदी मुंह फेर कर बोली-हाथी मरा भी, तो नौ लाख का. वहां इतना घी नित्य नाई-कहार खा जाते हैं.
लालबिहारी जल गया, थाली उठाकर पलट दी, और बोला-जी चाहता है, जीभ पकड़ कर खींच लूं.
आनंद को भी क्रोध आ गया. मुंह लाल हो गया, बोली-वह होते तो आज इसका मज़ा चखाते.
अब अपढ़, उजड्ड लालबिहारी से न रहा गया. उसकी स्त्री एक साधारण ज़मींदार की बेटी थी. जब जी चाहता, उस पर हाथ साफ़ कर लिया करता था. खड़ाऊं उठाकर आनंदी की ओर ज़ोर से फेंकी, और बोला-जिसके गुमान पर फूली हुई हो, उसे भी देखूंगा और तुम्हें भी.
आनंदी ने हाथ से खड़ाऊं रोकी, सिर बच गया; पर ऊंगली में बड़ी चोट आई. क्रोध के मारे हवा से हिलते पत्ते की भांति कांपती हुई अपने कमरे में आ कर खड़ी हो गई. स्त्री का बल और साहस, मान और मर्यादा पति तक है. उसे अपने पति के ही बल और पुरुषत्व का घमंड होता है. आनंदी ख़ून का घूंट पी कर रह गई.

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श्रीकंठ सिंह शनिवार को घर आया करते थे. वृहस्पति को यह घटना हुई थी. दो दिन तक आनंदी कोप-भवन में रही. न कुछ खाया न पिया, उनकी बाट देखती रही. अंत में शनिवार को वह नियमानुकूल संध्या समय घर आए और बाहर बैठ कर कुछ इधर-उधर की बातें, कुछ देश-काल संबंधी समाचार तथा कुछ नए मुक़दमों आदि की चर्चा करने लगे. यह वार्तालाप दस बजे रात तक होता रहा. गांव के भद्र पुरुषों को इन बातों में ऐसा आनंद मिलता था कि खाने-पीने की भी सुधि न रहती थी. श्रीकंठ को पिंड छुड़ाना मुश्क़िल हो जाता था. ये दो-तीन घंटे आनंदी ने बड़े कष्ट से काटे! किसी तरह भोजन का समय आया. पंचायत उठी. एकांत हुआ, तो लालबिहारी ने कहा-भैया, आप ज़रा भाभी को समझा दीजिएगा कि मुंह संभाल कर बातचीत किया करें, नहीं तो एक दिन अनर्थ हो जाएगा.
बेनीमाधव सिंह ने बेटे की ओर साक्षी दी-हां, बहू-बेटियों का यह स्वभाव अच्छा नहीं कि मर्दों के मुंह लगें.
लालबिहारी-वह बड़े घर की बेटी हैं, तो हम भी कोई कुर्मी-कहार नहीं हैं.
श्रीकंठ ने चिंतित स्वर से पूछा-आख़िर बात क्या हुई?
लालबिहारी ने कहा-कुछ भी नहीं; यों ही आप ही आप उलझ पड़ीं. मैके के सामने हम लोगों को कुछ समझती ही नहीं.
श्रीकंठ खा-पीकर आनंदी के पास गए. वह भरी बैठी थी. यह हजरत भी कुछ तीखे थे. आनंदी ने पूछा-चित्त तो प्रसन्न है.
श्रीकंठ बोले-बहुत प्रसन्न है; पर तुमने आजकल घर में यह क्या उपद्रव मचा रखा है?
आनंदी की त्योरियों पर बल पड़ गए, झुंझलाहट के मारे बदन में ज्वाला-सी दहक उठी. बोली-जिसने तुमसे यह आग लगाई है, उसे पाऊं, मुंह झुलस दूं.
श्रीकंठ-इतनी गरम क्यों होती हो, बात तो कहो.
आनंदी-क्या कहूं, यह मेरे भाग्य का फेर है! नहीं तो गंवार छोकरा, जिसको चपरासीगिरी करने का भी शऊर नहीं, मुझे खड़ाऊं से मार कर यों न अकड़ता.
श्रीकंठ-सब हाल साफ़-साफ़ कहो, तो मालूम हो. मुझे तो कुछ पता नहीं.
आनंदी-परसों तुम्हारे लाड़ले भाई ने मुझसे मांस पकाने को कहा. घी हांडी में पाव-भर से अधिक न था. वह सब मैंने मांस में डाल दिया. जब खाने बैठा तो कहने लगा-दाल में घी क्यों नहीं है? बस, इसी पर मेरे मैके को बुरा-भला कहने लगा-मुझसे न रहा गया. मैंने कहा कि वहां इतना घी तो नाई-कहार खा जाते हैं, और किसी को जान भी नहीं पड़ता. बस इतनी-सी बात पर इस अन्यायी ने मुझ पर खड़ाऊं फेंक मारी. यदि हाथ से न रोक लेती, तो सिर फट जाता. उसी से पूछो, मैंने जो कुछ कहा है, वह सच है या झूठ.
श्रीकंठ की आंखें लाल हो गईं. बोले-यहां तक हो गया, इस छोकरे का यह साहस! आनंदी स्त्रियों के स्वभावानुसार रोने लगी; क्योंकि आंसू उनकी पलकों पर रहते हैं. श्रीकंठ बड़े धैर्यवान् और शांत पुरुष थे. उन्हें कदाचित् ही कभी क्रोध आता था; स्त्रियों के आंसू पुरुष की क्रोधाग्नि भड़काने में तेल का काम देते हैं. रात भर करवटें बदलते रहे. उद्विग्नता के कारण पलक तक नहीं झपकी. प्रात:काल अपने बाप के पास जाकर बोले-दादा, अब इस घर में मेरा निबाह न होगा.
इस तरह की विद्रोह-पूर्ण बातें कहने पर श्रीकंठ ने कितनी ही बार अपने कई मित्रों को आड़े हाथों लिया था; परन्तु दुर्भाग्य, आज उन्हें स्वयं वे ही बातें अपने मुंह से कहनी पड़ी! दूसरों को उपदेश देना भी कितना सहज है!
बेनीमाधव सिंह घबरा उठे और बोले-क्यों?
श्रीकंठ-इसलिए कि मुझे भी अपनी मान-प्रतिष्ठा का कुछ विचार है. आपके घर में अब अन्याय और हठ का प्रकोप हो रहा है. जिनको बड़ों का आदर-सम्मान करना चाहिए, वे उनके सिर चढ़ते हैं. मैं दूसरे का नौकर ठहरा घर पर रहता नहीं. यहां मेरे पीछे स्त्रियों पर खड़ाऊं और जूतों की बौछारें होती हैं. कड़ी बात तक हो तो चिन्ता नहीं. कोई एक की दो कह ले, वहां तक मैं सह सकता हूं किन्तु यह कदापि नहीं हो सकता कि मेरे ऊपर लात-घूंसे पड़ें और मैं मुंह न खोलूं.
बेनीमाधव सिंह कुछ जवाब न दे सके. श्रीकंठ सदैव उनका आदर करते थे. उनके ऐसे तेवर देखकर बूढ़ा ठाकुर अवाक् रह गया. केवल इतना ही बोला-बेटा, तुम बुद्धिमान होकर ऐसी बातें करते हो? स्त्रियां इस तरह घर का नाश कर देती हैं. उनको बहुत सिर चढ़ाना अच्छा नहीं.
श्रीकंठ-इतना मैं जानता हूं, आपके आशीर्वाद से ऐसा मूर्ख नहीं हूं. आप स्वयं जानते हैं कि मेरे ही समझाने-बुझाने से, इसी गांव में कई घर संभल गए, पर जिस स्त्री की मान-प्रतिष्ठा का ईश्वर के दरबार में उत्तरदाता हूं, उसके प्रति ऐसा घोर अन्याय और पशुवत् व्यवहार मुझे असह्य है. आप सच मानिए, मेरे लिए यही कुछ कम नहीं है कि लालबिहारी को कुछ दंड नहीं दिया.
अब बेनीमाधव सिंह भी गरमाए. ऐसी बातें और न सुन सके. बोले-लालबिहारी तुम्हारा भाई है. उससे जब कभी भूल-चूक हो, उसके कान पकड़ो लेकिन…
श्रीकंठ-लालबिहारी को मैं अब अपना भाई नहीं समझता.
बेनीमाधव सिंह-स्त्री के पीछे?
श्रीकंठ-जी नहीं, उसकी क्रूरता और अविवेक के कारण.
दोनों कुछ देर चुप रहे. ठाकुर साहब लड़के का क्रोध शांत करना चाहते थे, लेकिन यह नहीं स्वीकार करना चाहते थे कि लालबिहारी ने कोई अनुचित काम किया है. इसी बीच में गांव के और कई सज्जन हुक्के-चिलम के बहाने वहां आ बैठे. कई स्त्रियों ने जब यह सुना कि श्रीकंठ पत्नी के पीछे पिता से लड़ने की तैयार हैं, तो उन्हें बड़ा हर्ष हुआ. दोनों पक्षों की मधुर वाणियां सुनने के लिए उनकी आत्माएं तिलमिलाने लगीं. गांव में कुछ ऐसे कुटिल मनुष्य भी थे, जो इस कुल की नीतिपूर्ण गति पर मन ही मन जलते थे. वे कहा करते थे-श्रीकंठ अपने बाप से दबता है, इसीलिए वह दब्बू है. उसने विद्या पढ़ी, इसलिए वह किताबों का कीड़ा है. बेनीमाधव सिंह उसकी सलाह के बिना कोई काम नहीं करते, यह उनकी मूर्खता है. इन महानुभावों की शुभकामनाएं आज पूरी होती दिखाई दीं. कोई हुक्का पीने के बहाने और कोई लगान की रसीद दिखाने आ कर बैठ गया. बेनीमाधव सिंह पुराने आदमी थे. इन भावों को ताड़ गए. उन्होंने निश्चय किया चाहे कुछ ही क्यों न हो, इन द्रोहियों को ताली बजाने का अवसर न दूंगा. तुरंत कोमल शब्दों में बोले-बेटा, मैं तुमसे बाहर नहीं हूं. तुम्हारा जो जी चाहे करो, अब तो लड़के से अपराध हो गया.
इलाहाबाद का अनुभव-रहित झल्लाया हुआ ग्रैजुएट इस बात को न समझ सका. उसे डिबेटिंग-क्लब में अपनी बात पर अड़ने की आदत थी, इन हथकंडों की उसे क्या ख़बर? बाप ने जिस मतलब से बात पलटी थी, वह उसकी समझ में न आया. बोला-लालबिहारी के साथ अब इस घर में नहीं रह सकता.
बेनीमाधव-बेटा, बुद्धिमान लोग मूर्खों की बात पर ध्यान नहीं देते. वह बेसमझ लड़का है. उससे जो कुछ भूल हुई, उसे तुम बड़े होकर क्षमा करो.
श्रीकंठ सिंह को आवेश आ गया. बाले-उसकी इस दुष्टता को मैं कदापि नहीं सह सकता. या तो वही घर में रहेगा, या मैं ही. आपको यदि वह अधिक प्यारा है, तो मुझे विदा कीजिए, मैं अपना भार आप संभाल लूंगा. यदि मुझे रखना चाहते हैं तो उससे कहिए, जहां चाहे चला जाए. बस यह मेरा अंतिम निश्चय है.
लालबिहारी सिंह दरवाज़े की चौखट पर चुपचाप खड़ा बड़े भाई की बातें सुन रहा था. वह उनका बहुत आदर करता था. उसे कभी इतना साहस न हुआ था कि श्रीकंठ के सामने चारपाई पर बैठ जाए, हुक्का पी ले या पान खा ले. बाप का भी वह इतना मान न करता था. श्रीकंठ का भी उस पर हार्दिक स्नेह था. अपने होश में उन्होंने कभी उसे घुड़का तक न था. जब वह इलाहाबाद से आते, तो उसके लिए कोई न कोई वस्तु अवश्य लाते. मुगदर की जोड़ी उन्होंने ही बनवा दी थी. पिछले साल जब उसने अपने से ड्यौढ़े जवान को नागपंचमी के दिन दंगल में पछाड़ दिया, तो उन्होंने पुलकित होकर अखाड़े में ही जा कर उसे गले लगा लिया था, पांच रुपये के पैसे लुटाए थे. ऐसे भाई के मुंह से आज ऐसी हृदय-विदारक बात सुनकर लालबिहारी को बड़ी ग्लानि हुई. वह फूट-फूट कर रोने लगा. इसमें संदेह नहीं कि अपने किए पर पछता रहा था. भाई के आने से एक दिन पहले से उसकी छाती धड़कती थी कि देखूं भैया क्या कहते हैं. मैं उनके सम्मुख कैसे जाऊंगा, उनसे कैसे बोलूंगा, मेरी आंखें उनके सामने कैसे उठेंगी. उसने समझा था कि भैया मुझे बुलाकर समझा देंगे. इस आशा के विपरीत आज उसने उन्हें निर्दयता की मूर्ति बने हुए पाया. वह मूर्ख था. परंतु उसका मन कहता था कि भैया मेरे साथ अन्याय कर रहे हैं. यदि श्रीकंठ उसे अकेले में बुलाकर दो-चार बातें कह देते; इतना ही नहीं दो-चार तमाचे भी लगा देते तो कदाचित् उसे इतना दु:ख न होता; पर भाई का यह कहना कि अब मैं इसकी सूरत नहीं देखना चाहता, लालबिहारी से सहा न गया! वह रोता हुआ घर आया. कोठारी में जा कर कपड़े पहने, आंखे पोंछी, जिसमें कोई यह न समझे कि रोता था. तब आनंदी के द्वार पर आकर बोला-भाभी, भैया ने निश्चय किया है कि वह मेरे साथ इस घर में न रहेंगे. अब वह मेरा मुंह नहीं देखना चाहते; इसलिए अब मैं जाता हूं. उन्हें फिर मुंह न दिखाऊंगा! मुझसे जो कुछ अपराध हुआ, उसे क्षमा करना. यह कहते-कहते लालबिहारी का गला भर आया.

जिस समय लालबिहारी सिंह सिर झुकाए आनंदी के द्वार पर खड़ा था, उसी समय श्रीकंठ सिंह भी आंखें लाल किए बाहर से आए. भाई को खड़ा देखा, तो घृणा से आंखें फेर लीं, और कतरा कर निकल गए. मानों उसकी परछाईं से दूर भागते हों. आनंदी ने लालबिहारी की शिकायत तो की थी, लेकिन अब मन में पछता रही थी वह स्वभाव से ही दयावती थी. उसे इसका तनिक भी ध्यान न था कि बात इतनी बढ़ जाएगी. वह मन में अपने पति पर झुंझला रही थी कि यह इतने गरम क्यों होते हैं. उस पर यह भय भी लगा हुआ था कि कहीं मुझसे इलाहाबाद चलने को कहें, तो कैसे क्या करूंगी. इस बीच में जब उसने लालबिहारी को दरवाज़े पर खड़े यह कहते सुना कि अब मैं जाता हूं, मुझसे जो कुछ अपराध हुआ, क्षमा करना, तो उसका रहा-सहा क्रोध भी पानी हो गया. वह रोने लगी. मन का मैल धोने के लिए नयन-जल से उपयुक्त और कोई वस्तु नहीं है.
श्रीकंठ को देखकर आनंदी ने कहा-लाला बाहर खड़े बहुत रो रहे हैं.
श्रीकंठ-तो मैं क्या करूँ?
आनंदी-भीतर बुला लो. मेरी जीभ में आग लगे! मैंने कहां से यह झगड़ा उठाया.
श्रीकंठ-मैं न बुलाऊंगा.
आनंदी-पछताओगे. उन्हें बहुत ग्लानि हो गई है, ऐसा न हो, कहीं चल दें.
श्रीकंठ न उठे. इतने में लालबिहारी ने फिर कहा-भाभी, भैया से मेरा प्रणाम कह दो. वह मेरा मुंह नहीं देखना चाहते; इसलिए मैं भी अपना मुंह उन्हें न दिखाऊंगा.
लालबिहारी इतना कह कर लौट पड़ा, और शीघ्रता से दरवाज़े की ओर बढ़ा. अंत में आनंदी कमरे से निकली और उसका हाथ पकड़ लिया. लालबिहारी ने पीछे फिर कर देखा और आंखों में आंसू भरे बोला-मुझे जाने दो.
आनंदी-कहां जाते हो?
लालबिहारी-जहां कोई मेरा मुंह न देखे.
आनंदी-मैं न जाने दूंगी?
लालबिहारी-मैं तुम लोगों के साथ रहने योग्य नहीं हूं.
आनंदी-तुम्हें मेरी सौगंध अब एक पग भी आगे न बढ़ाना.
लालबिहारी-जब तक मुझे यह न मालूम हो जाए कि भैया का मन मेरी तरफ़ से साफ़ हो गया, तब तक मैं इस घर में कदापि न रहूंगा.
आनंदी-मैं ईश्वर को साक्षी दे कर कहती हूं कि तुम्हारी ओर से मेरे मन में तनिक भी मैल नहीं है.
अब श्रीकंठ का हृदय भी पिघला. उन्होंने बाहर आकर लालबिहारी को गले लगा लिया. दोनों भाई खूब फूट-फूट कर रोए. लालबिहारी ने सिसकते हुए कहा-भैया, अब कभी मत कहना कि तुम्हारा मुंह न देखूंगा. इसके सिवा आप जो दंड देंगे, मैं सहर्ष स्वीकार करूंगा.
श्रीकंठ ने कांपते हुए स्वर में कहा-लल्लू! इन बातों को बिल्कुल भूल जाओ. ईश्वर चाहेगा, तो फिर ऐसा अवसर न आएगा.
बेनीमाधव सिंह बाहर से आ रहे थे. दोनों भाइयों को गले मिलते देखकर आनंद से पुलकित हो गए. बोल उठे-बड़े घर की बेटियां ऐसी ही होती हैं. बिगड़ता हुआ काम बना लेती हैं.
गांव में जिसने यह वृत्तांत सुना, उसी ने इन शब्दों में आनंदी की उदारता को सराहा-‘बड़े घर की बेटियां ऐसी ही होती हैं.’

Illustration: Pinterest

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