नारी के हृदय की जटिलता को समझना दुनिया का सबसे मुश्क़िल काम है. एक पति द्वारा अपनी पत्नी पर शक़ करने का अत्यंत आश्चर्यजनक, लोमहर्षक और दुखद अंत होता है. पढ़ें, उपेन्द्रनाथ अश्क की कहानी पहेली, जो थोड़ा पुरातनपंथी लगती है, पर ज़िंदगी की पहली कुछ ऐसी ही तो है.
रामदयाल पूरा बहुरूपिया था. भेस और आवाज़ बदलने में उसे कमाल हासिल था. कॉलेज में पढ़ता था तो वहां उसके अभिनय की धूम मची रहती थी; अब सिनेमा की दुनिया में आ गया था तो यहां उसकी चर्चा थी. कॉलेज से डिग्री लेते ही उसे बम्बई की एक फ़िल्म-कम्पनी में अच्छी जगह मिल गई थी और अल्प-काल ही में उसकी गणना भारत के श्रेष्ठ अभिनेताओं में होने लगी थी. लोग उसके अभिनय को देख कर आश्चर्यचकित रह जाते थे. उसके पास प्रतिभा थी, कला थी और ख्याति के उच्च शिखर पर पहुंचने की महत्त्वाकांक्षा! इसीलिए जिस पात्र की भूमिका में काम करता बहुरूप और अभिनय में वह बात पैदा कर देता था कि दर्शक अनायास ही ‘वाह-वाह’ कर उठते और फिर हफ्तों उसकी कला की चर्चा लोगों में चला करती.
दो महीने हुए, उस की शादी हुई थी. बम्बई की एक निकटवर्ती बस्ती में छोटी-सी एक कोठी किराए पर ले कर वह रहने लगा था. कभी समय था कि वह निर्धन कहता था, परन्तु अब तो वह धन-सम्पत्ति में खेलता था. रुपए की उसे क्या परवाह थी? उसका विवाह भी उच्च घराने में हुआ था. पत्नी भी सुन्दर और सुशिक्षित मिली थी. जिस प्रकार बादल सूखी धरती पर अमृत की वर्षा कर के उसे तृप्त कर देता है, उसी प्रकार निर्धनता से सूखे हुए रामदयाल के हृदय को विधाता ने वैभव की वर्षा से सींच दिया था. सन्ध्या का समय था. साए बढ़ते-बढ़ते किसी भयानक देव की भांति संसार पर छा गए थे. रामदयाल लायब्रेरी में बैठा था. अभी तक कमरे में बिजली न जली थी और वह किवाड़ के समीप कुर्सी रखे एक लेख पढ़ने में निमग्न था.
चपरासी ने बिजली का बटन दबाया. क्षण भर में रोशनी से कमरा जगमगा उठा. रामदयाल ने रूमाल से ऐनक को साफ किया और फिर लेख पर अपनी दृष्टि जमा दी. वह ‘नवयुग’ का ‘महिला-अंक’ देख रहा था. अंक देखना तो उसने योंहीं शुरू किया था, परन्तु एक लेख कुछ ऐसा रोचक था कि एक बार जो पढ़ना आरम्भ किया तो समाप्त किए बिना जी न माना.
लेख में किसी अभिनेता के अभिनय की विवेचना न थी. छद्मवेष कला पर कोई नयी बात न लिखी गई थी. एक सीधा-साधा लेख था, जिसमें नारी स्वभाव पर एक नूतन दृष्टि-कोण से प्रकाश डाला गया था. एक सर्वथा नयी बात थी. लिखा था-
‘स्त्री प्रेम की देवी है. वह अपने प्रिय पति के लिए अपना सर्वस्व निछावर कर सकती है. वह उस की पूजा कर सकती है, पर यदि उस का पति उस के प्रेम की अवहेलना करे, उसकी मुहब्बत को ठुकरा दे तो अवसर मिलने पर वह अपने प्रेम की तृषा बुझाने के लिए किसी दूसरी चीज़ को ढूंढ़ लेती है-चाहे वह चल हो या अचल, सजीव हो या निर्जीव! यही प्रकृति का नियम है.’
रामदयाल उठा और गम्भीर मुद्रा धारण किए हुए पुस्तकालय के बाहर निकल आया. सड़क रोशनी से नव-वधू की भांति सज रही थी. रामदयाल अपने हृदय की गति के समान धीरे-धीरे चला जा रहा था. उसे देख कर कौन कह सकता था कि यह वही प्रसिद्ध अभिनेता है, जो अपनी कला से भारत भर को चकित कर देता है!
.. उर्मिला, उसकी पत्नी, अनुपम सुन्दरी थी, कल्पना से बनी हुई सुन्दर प्रतिमा-सी! मीठे, मादक स्वर में रूप में विधि ने उसे जादू दे डाला था. संगीत-कला में उसने विशेष क्षमता प्राप्त कर ली थी और यह गुण सोने में सुगन्ध का काम कर रहा था. जब भी कभी वह अपनी कोमल उंगलियों को सितार के पर्दों पर रखती और कान उमेठ कर तारों को छेड़ती तो सोये हुए उद्गार जाग उठते और कानों के रास्ते मिठास और मस्ती का एक समुद्र श्रोता की नस-नस में व्याप्त हो कर रह जाता. रामदयाल उस पर जी-जान से मुग्ध था और वह भी उसे हृदय की समस्त शक्तियों से प्यार करती थी. दोनों को एक-दूसरे पर गर्व था, किन्तु यह सब कुछ स्थायी न हो सका. असार संसार में कोई वस्तु स्थायी हो भी कैसे सकती है? मनोमालिन्य की आंधी ने मुहब्बत के इस छोटे-से पौधे को क्षण भर में बर्बाद कर दिया.
उर्मिला नीचे ड्राइंग-रूम में बैठी थी. वह रामदयाल की प्रतीक्षा कर रही थी. सामने के भवन में आज कोई युवक घूम रहा था. वह कुतूहलवश उसे भी देख रही थी. उसके कान सीढ़ियों की ओर लगे हुए थे, परन्तु आंखें उस युवक को बेचैनी से घूमते देख रही थीं. वह कोठी कई दिनों से ख़ाली थी, परन्तु अब कुछ दिन से इसे किसी ने किराये पर ले लिया था उसने दो-तीन बार किसी युवक को बिजली के प्रकाश में घूमते देखा था. ऐसा प्रतीत होता था, जैसे वह बेचैन हो, जैसे आकुलता उसे बैठने न देती हो.
अंगीठी पर रखी हुई घड़ी ने टन-टन नौ बजाये. सामने के भवन में रोशनी बुझ गई. उर्मिला अपने आपको अकेली-सी महसूस करने लगी. उसने सितार उठाया, उसकी कोमल उंगलियां उसके पर्दो पर थिरकने लगीं, उसके अधर हिले और दूसरे क्षण एक करूणापूर्ण गीत वायुमण्डल में गूंज उठा
सखि इन नैनन ते घन हारे
स्वर में दर्द था, लोच था और लय थी, सीने में प्रतीक्षा की आग थी. वह तन्मय हो गई, अपनी मधुर ध्वनि में खो गई और उसे यह भी मालूम न हुआ कि रामदयाल कब आया और कब तक किवाड़ की ओट में खड़ा उसे देखता रहा.
वह गाती गई, बेसुध हो कर गाती गई. उसकी आंखें सितार पर जमी हुई थीं, उसके कान सितार के मादक स्वर में डूब गए थे. रामदयाल की भृकुटी तन गई और वह चुपचाप मुड़ गया. खाने के कमरे में उसने दासी से खाना मंगाया और खा कर सोने चला गया. उर्मिला गाती रही, अपने दर्द-भरे गीत को वायु के कण-कण में बसाती रही. देवता आया और चला गया, पुजारी उसकी पूजा ही में व्यस्त रहा.
दूसरे दिन रामदयाल प्रात: ही घर से चला गया और बहुत रात गए घर लौटा. उर्मिला दौड़ी-दौड़ी गई और गंगासागर में पानी ले आई.
रामदयाल के चेहरे से क्रोध टपक रहा था.
‘आप इतनी देर कहां रहे?’
रामदयाल चुप.
उर्मिला ने पानी का भरा हुआ गंगासागर आगे रख दिया. घर में दो दासियां तो थीं, परन्तु पति की सेवा वह स्वयं किया करती थी. रामदयाल जब सन्ध्या को घर आया करता तो वह उसका हाथ-मुंह धुलाती, तश्तरी में कुछ खाने को लाती और स्टूडियो की ख़बरें पूछती. रामदयाल ने हाथ न बढ़ाये. वह चुपचाप खड़ी उसकी गम्भीर मुद्रा को देखती रही.
उसका हृदय धड़कने लगा. बीसियों प्रकार की शंकाएं उसके मन में उठने लगीं. उसने उन्हें बुलाने का इरादा किया, किन्तु झिड़क न दें, यह सोच कर चुप हो रही. आशा ने फिर गुदगुदी की, निराशा ने फिर दामन पकड़ लिया. मनुष्य के हृदय में जब सन्देह हो जाता है तो निराशा हमदर्द की भांति समीप आ जाती है और आशा मरीचिका बन कर भाग जाती है. फिर भी उसने साहस करके पूछा-
‘जी तो अच्छा है?’
‘चुप रहो!’
‘स्वामी?’
‘मैं कहता हूं, खामोश रहो!’
उर्मिला खड़ी-की-खड़ी रह गई. निराशा ने आशा को ठुकरा दिया और अब उस में उठने का भी साहस न रहा.
उसे कल की घटना याद हो आई, परन्तु साधारण-सी बात पर इतना क्रोध! वह समझ न सकी. उन्हें तो इस बात पर प्रसन्न होना चाहिए था. नहीं, यह बात नहीं; उससे अवश्य कोई दूसरी अवज्ञा हो गई है. हो सकता है, किसी से झगड़ पड़े हों अथवा कोई दूसरी घटना घटी हो. अशुभ की आशंका से उस का मन उद्विग्न हो उठा. उसके चरणों पर झुकते हुए उसने कहा ‘दासी से कोई अपराध हो गयाहो तो क्षमा कर दें.’
रामदयाल ने पांव खींच लिये, उर्मिला मुंह के बल गिरी. वह सोने चला गया.
उर्मिला बहुत देर तक उसी तरह बैठी रही और फिर लेट कर धरती में मुंह छिपा कर आंसू बहाने लगी. उसे विश्वास न होता था कि उसके पति ने इतनी-सी बात पर उसे नज़रों से गिरा दिया है. रामदयाल के प्रति उसके मन में कई प्रकार के विचार उठने लगे. उस ने उन्हें आज तक शिकायत का मौक़ा न दिया था. उस ने उनकी साधारण-सी बात को भी सिर-आंखों पर लिया था, फिर यह निरादर क्यों?
उसे शंका होने लगी, ‘कोई अभिनेत्री उनके जीवन-वृक्ष को विष से सींच रही है, ‘किन्तु दूसरे क्षण अपने इन विचारों पर उसे घृणा हो आई. ग्लानि से उसका सिर झुक गया. रामदयाल चाहे किसी के मोह में फंस जाये, परन्तु उर्मिला के लिये ऐसा सोचना भी पाप है. तो फिर वह अपने पति से इस अन्यमनस्कता का कारण ही क्यों न पूछ ले? क्या उसे इस बात का अधिकार नहीं? वह सहधर्मिणी नहीं क्या? अर्धांगिनी नहीं क्या? यह सोच कर वह उठी. उसके शरीर में स्फूर्ति का संचार हो आया. वह जायेगी, अपने पति से इस क्रोध का कारण पूछ कर रहेगी और उस समय तक न छोड़ेगी, जब तक वे उसे सब कुछ न बता दें, या अपनी भुजाओं में भींच कर यह न कह दें-मैं तो हंसी कर रहा था!
उसके मुख पर दृढ़-संकल्प के चिह्न प्रस्फुटित हो गए. वह उठी और धीरे-धीरे रामदयाल के कमरे में दाखिल हुई. वह लेटा हुआ था. उस के चेहरे पर एक गम्भीर मुस्कराहट खेल रही थी-अव्यक्त वेदना की अथवा गुप्त-उल्लास की, कौन जाने?
उर्मिला के आते ही वह उठ बैठा. उसने कड़क कर कहा, ‘मेरे कमरे से निकल जाओ, जा कर सो रहो, मुझे तंग मत करो.’
‘क्या अपराध ‘
‘मैं कहता हूं, चली जाओ!
उर्मिला खड़ी-की-खड़ी रह गई. जैसे किसी जादूगरनी ने उसके सिर पर जादू की छड़ी फेर दी हो. वह स्फूर्ति और संकल्प, जो कुछ देर पहले उसके मन में पैदा हुए थे, सब हवा हो गए. इच्छा होने पर भी वह दोबारा न पूछ सकी. उदासी का कारण पूछना, उस अकारण क्रोध का गिला करना, अपने कसूर की माफी मांगना, सब कुछ भूल गई. कल्पनाओं के भव्य प्रासाद पल भर में धराशायी हो गए. वह चुपचाप वापस चली आई और सारी रात गीले बिस्तर पर सोये हुए मनुष्य की भांति करवटें बदलती रही. नींद न जाने कहां उड़ गई थी?
समय के पंख लगा कर दिन उड़ते गए. रामदयाल अब घर में बहुत कम आता था. उर्मिला को सेवा के लिए दो दासियों में एक और की वृद्धि हो गई थी. वह उनसे तंग आ गई थी. वह सेवा की भूखी न थी, मुहब्बत की भूखी थी और मुहब्बत के फूल से उसकी जीवन-वाटिका सर्वथा शून्य थी. बरसात के बादल आकाश पर घिरे हुए थे. ठण्डी हवा साकी की चाल चल रही थी. बाहर किसी जगह पपीहा रह-रह कूक उठता था. वायु का एक झोंका अन्दर आया. उर्मिला के हृदय में उल्लास के बदले अवसाद की एक लहर दौड़ गई. हृदय की गहराइयों से एक लम्बी सांस निकल गई. उसने सितार उठाया और विरह का एक गीत गाने लगी. उसकी आवाज़ में दर्द था, गम था और जलन थी. वायु-मण्डल उसके गीत से झंकृत हो कर रह गया. अपने गीत की तन्मयता में वह बाह्य संसार को भूल गई. रात की नीरवता में उसका गीत वायु के कण-कण में बस गया.
सहसा सामने के भवन से, जैसे किसी ने सितार की आवाज़ के उत्तर में गाना आरम्भ किया –
पिया बिन चैन कहां मन को राग क्या था, किसी ने उर्मिला का दिल चीर कर सामने रख दिया था. वह अपना गाना भूल गई और तन्मय हो कर सुनने लगी. क्या आवाज़ थी, कैसा जादू था? रूह खिंची चली जाती थी. एक महीने से वहां कोई सितार बजाया करता था, किन्तु उर्मिला ने कभी उस ओर ध्यान न दिया था. आज न जाने क्यों, उसका हृदय अनायास ही गीत की ओर आकर्षित हुआ जा रहा था. इच्छा हुई खिड़की में जा कर बैठ जाय, परन्तु फिर झिझक गई, उसी तरह जैसे नया चोर चोरी करने से पहले हिचकिचाता है.
वह खिड़की से झांकने के लिए उठी. उसे अपने पति का ध्यान हो आया, वह फिर बैठ गई. उसने सितार को उठाया, फिर रख दिया कि गाने वाला यह न समझ ले कि उसके गीत का उत्तर दिया जा रहा है. उठ कर उसने एक पुस्तक ले ली और पढ़ना आरम्भ कर दिया, परन्तु पढ़ने में उसका जी न लगा. उसे हर पंक्ति में यही अक्षर लिखे हुए दिखायी दिए-
पिया बिन चैन कहां मन को उठ कर उसने पुस्तक को फेंक दिया और आराम-कुर्सी पर लेट गई. गाने वाला अब भी गा रहा था ओर गीत उसकी एक-एक नस में बसा जा रहा था. विवश हो कर वह उठी. उस ने सितार को उठाया, तारों में झनकार पैदा हुई, तारों पर उंगलियां थिरकने लगीं और वह धीरे-धीरे गाने लगी. शनै: शनै: उसका स्वर ऊंचा होता गया, यहां तक कि वह बेसुध हो कर पूरी आवाज़ से गा उठी:
पिया बिन चैन कहां मन को
गीत समाप्त हो गया, वायु-मण्डल के कण-कण पर छाया हुआ जादू टूट गया. वह जल्दी से उठ कर खिड़की में चली गई. उसने देखा, युवक सितार पर हाथ रखे उस का गाना सुन रहा है.
उसके शरीर में सनसनी दौड़ गई-विजय की सनसनी! उस समय वह रामदयाल, उसकी मुहब्बत, उसकी जुदाई, सब कुछ भूल गई. उसके हृदय में, उसके मस्तिष्क में केवल एक ही विचार बस गया-उसने दूसरे रागी को मात कर दिया है!
इसके बाद प्रतिदिन दोनों ओर से गीत उठते और वायु-मण्डल में बिखर जाते. दो दुखी आत्माएं संगीत द्वारा एक-दूसे से सहानुभूति प्रकट करतीं, दिल के दर्द गीतों की जबान से एक-दूसरे को सुनाये जाते.
एक महीना और बीत गया. कम्पनी एक नयी फ़िल्म तैयार कर रही थी और इन दिनों रामदयाल को रात में भी वहीं काम करना पड़ता था. कई रातें वह कम्पनी के स्टूडियो में ही बिता देता. इतने दिनों में वह केवल एक बार घर आया था. उर्मिला का दिल धड़क उठा था. पहली धड़कन और इस धड़कन में कितना अंतर था. पहले वह इस डर से कांप उठती थी कि रामदयाल कहीं उससे रूष्ट न हो जाये, अब वह इस भय से मरी जाती थी कि कहीं उस के दिल की बात न जान ले, कहीं वह रात भर रह कर उनके प्रेम-संगीत में बाधा न डाल दे.
अक्तूबर का अन्तिम सप्ताह था. रामदयाल घर आया. उर्मिला उसके मुख की ओर देख भी न सकी, उसके सामने भी न हो सकी. रामदयाल ने उसे बुलाया भी नहीं. वह दासी से केवल इतना कह कर चला गया,
‘मैं अभी और एक महीने तक घर न आ सकूंगा. चित्रपट के कुछ दृश्य ख़राब हो गए हैं, उन्हें फिर दुबारा लिया जायेगा.’
जब वह चला गया तो उर्मिला ने सुख की एक सांस ली, उसे के हृदय से एक बोझ-सा उतर गया. वह कोई ऐसा हमदर्द चाहती थी, जिस के सामने वह अपना प्रेमभरा दिल खोल कर रख दे. रामदयाल वह नहीं था, उस तक उसकी पहुंच न थी. पानी ऊंचाई की ओर नहीं जाता, निचाई की ओर ही बहता है. रामदयाल ऊंची जगह खड़ा था और गाने वाला नीची जगह. उर्मिला का हृदय अनायास उसकी ओर बह चला.
उस दिन उर्मिला ने एक मीठा गीत गाया, जिसमें उदासीनता के स्थान पर उल्लास हिलोरें ले रहा था. अब वह कमरे में बैठ कर गाने के बदले बाहर बरामदे में बैठ कर गाया करती थी. दोनों की तानें एक-दूसे की तानों में मिल कर रह जाती. उनके हृदय कब के मिल चुके थे.
सन्ध्या का समय था. उर्मिला वाटिका में घूम रही थी. उसकी आंखें रह-रह कर सामने वाले भवन की ओर उठ जाती थीं. उस समय वह चाहती थी, कहीं वह युवक उसकी वाटिका में आ जाय और वह उस के सामने दिल के समस्त उद्गार खोल कर रख दे.
वह अकेला ही था, यह उसे ज्ञात हो चुका था, किन्तु कभी उसने दिन के समय उसे वहां नहीं देखा था. अंधेरा बढ़ चला था और डूबते हुए सूरज की लाली धीरे-धीरे उसमें विलीन हो रही थी ठण्डी बयार चल रही थी; प्र्र्रकृति झूम रही थी और उर्मिला के दिल को कुछ हुआ जाता था, कुछ गुदगुदी-सी उठ रही थी. वह एक बेंच पर बैठ गई और गुनगुनाने लगी-
धीरे-धीरे यह गुनगुनाहट गीत बन गई और वह पूरी आवाज़ से गाने लगी. अपने गीत की धून में मस्त वह गाती गई. वाटिका की फसील के दूसरी ओर से किसी ने धीरे से कन्धे को छुआ. उसके स्वर में कम्पन पैदा हो गया और वह सिहर उठी.
‘आप तो खूब गाती है!’
बैठे-बैठे उर्मिला ने देखा वह एक सुन्दर बलिष्ठ युवक था. छोटी-छोटी मूंछें ऊपर को उठी हुई थीं. बाल लम्बे थे और बंगाली फ़ैशन से कटे हुए थे. गले में सिल्क का एक कुर्ता था और कमर में धोती.
उर्मिला ने कनखियों से युवक को देखा. दिल ने कहा, भाग चल, पर पांव वहीं जम गए. पंछी जाल के पास था, दाना सामने था, अब फंसा कि अब फंसा.
‘आप के गले में जादू हैं!’
उर्मिला ने युवक की ओर देखा और मुस्कुरायी. वह भी मुस्करा दिया. बोली,
‘यह तो आपकी कृपा है, नहीं मैं तो आपके चरणों में बैठ कर मु त तक सीख सकती हूं!’
वह हंसा.
‘आप अकेले रहते हैं?’
‘हां’
‘और आपकी पत्नी?’
वह एक फीकी हंसी हंसा
‘मेरी पत्नी, मेरी पत्नी कहां हैं? इस संसार में मैं सर्वथा एकाकी हूं, मुहब्बत से ठुकराया हुआ, यहां आ गया हूं, कोई मुझे पूछने वाला नहीं, कोई मुझसे बात करने वाला नहीं.’
युवक के स्वर में कम्पन था. उर्मिला ने देखा, उसका मुख पीला पड़ गया है और अवसाद तथा निराशा की एक हल्की-सी रेखा वहां साफ दिखायी देती है. उसके हृदय में सहानुभूति का समुद्र उमड़ पड़ा और उसकी आंखें डबडबा आयीं.
वह दीवार फांद कर बेंच पर आ बैठा. उर्मिला अभी तक बैठी ही थी, उठी न थी. वह तनिक खिसक गई, किन्तु उठने का साहस अब उसमें नहीं था.
युवक ने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया. उर्मिला के शरीर में सनसनी दौड़ गई. उसने हाथ छुड़ाना चाहा. युवक की आंखें सजल हो गयीं. उसका हाथ वहीं-का-वहीं रह गया. वह फिर बोला-
‘मेरा विचार था, मैं यहां आ कर, एकान्त में गा कर अपना दिल बहला लिया करूंगा. मेरे पास धन और वैभव का अभाव नहीं, परन्तु उससे मुझे चैन नहीं मिलता, हृदय को शान्ति प्राप्त नहीं होती. इसीलिए मैं सितार बजाता था! उसकी मनमोहक झंकार मेरे चंचल मन को एकाग्र्र कर देती थी, उसमें मुझे अपार शान्ति मिलती थी, परन्तु अब तो सितार भी बेबस हो गया है, वह भी मुझे शान्त नहीं कर सकता, मेरी शान्ति का आधार अब मेरे सितार बजाने पर नहीं रहा.’
उर्मिला सब कुछ समझ रही थी. उसने फिर हाथ छुड़ाने का प्रयास किया. युवक ने उसे नहीं छोड़ा और विद्युत वेग से उसे अपने प्यासे होठों से लगा लिया. उर्मिला के समस्त शरीर में आग-सी दौड़ गई. उसने हाथ छुड़ा लिया और भाग गई.
‘फिर कब दर्शन होंगे?’
उर्मिला ने कुछ उत्तर नहीं दिया. वह अपने कमरे में आ गई और पलंग पर लेट कर रोने लगी. पक्षी जाल में फंस चुका था और अब मुक्त होने के लिए छटपटा रहा था.
कितनी देर तक वह लेटे-लेटे रोती रही. उसे रह-रहकर अपने पति की निष्ठुरता का ध्यान आता था. आत्मग्लानि से उस का हृदय जला जा रहा था. वह इस मार्ग को छोड़ देना चाहती थी. पश्चाताप को आग उसे जलाये डालती थी. वह चाहती थी, उसका पति आ जाये, उसके पास बैठे, उससे प्रेम करे और वह उस के चरणों में बैठ कर इतना रोये, इतना रोये कि उसका पाषाण-हृदय पानी पानी हो जाये.
उठ कर वह रामदयाल के पुस्तकालय में गई. एक छोटी-सी मेज़ पर एक कोने में उसके पति का एक फोटो चौखटे में जड़ा रखा था. उस ने उसे उठाया, कई बार चूमा और उसकी आंखों से आंसू बह निकले.
रामदयाल के पैरों की चाप से उसके विचारों का क्रम टूट गया. वह उठी और सच्चे हृदय से उस का स्वागत करने को तैयार हो गई. उस समय उसका मन साफ था. विशुद्ध-प्रेम का एक सागर वहां उमड़ा आ रहा था, जिसके पानी को पश्चाताप की आग ने स्वच्छ और निर्मल कर दिया था.
वह रसोई-घर से पानी ले आई और रामदयाल के सामने जा खड़ी हुई. उसकी आंखें सजल थीं और मन आशा के तार से बंधा डोल रहा था. उसने देखा, रामदयाल ने उसके हाथ से गिलास ले कर मुंह धो लिया और फिर उसे कुछ नाश्ता लाने को कहा और जब वह मिठाई ले आई तो रामदयाल ने तश्तरी लेने के बदले उसे अपनी भुजाओं में ले कर उसके मुंह में मिठाई का एक टुकड़ा रख दिया. निमिष भर के लिए उसके मुख पर स्वर्गीय-आनन्द की ज्योति चमक उठी. उसने सिर उठाया, देखा-रामदयाल उसी तरह बैठा है. और वह उसी तरह गिलास लिये खड़ी है. आशा का तार टूट गया, मादक कल्पना हवा हो गई. सत्य सामने था-कितना कटु, कितना भयानक?
रामदयाल ने इशारे से उसे चले जाने को कहा. वह चुपचाप पुतली की भांति चली आई मानो वह सजीव नारी न हो कर अपने आविष्कारक के संकेत पर चलने वाली एक निर्जीव मूर्ति हो. अपने कमरे में आ कर उसने पानी का गिलास अंगीठी पर रख दिया और धरती पर लोट कर रोने लगी. धरती में, मूक और ठण्डी धरती में उसे कुछ आत्मीयता का आभास हुआ, एक बहनापा-सा महसूस हुआ और वह उसके अंक में लिपट कर रोयी. खूब रोयी. ऐसे मानो एक दुखी बहन अपनी सुखी बहन के गले लिपट कर आंसू बहा रही हो.
कई दिन तक वह अपने कमरे के बाहर न निकली. रामदयाल दासी से कह गया था,
‘मैं और पन्द्रह दिन घर न आ सकूंगा, इसलिए तुम सावधानी से रहना.’
उर्मिला को अपने पति की निर्दयता पर रोना आता था. वह पाप की नदी में बहे जा रही थी और उसका पति उसे बचाने को हाथ तक न हिलाता था. भ्रान्ति की विकराल लहरें लपलपाती हुई उस की ओर बढ़ी आ रही थीं और उसका पति निश्चेष्ट और निष्क्रिय एक ओर खड़ा तमाशा देख रहा था.
साथ के भवन से बराबर गीत उठते थे. उनमें उल्लास की तानें न होती थीं, दुख और वेदना का बाहुल्य रहता था. उर्मिला की संगीत-प्रिय आत्मा तड़प उठती थी, परन्तु वह अपने कमरे के बाहर न निकलती थी.
शाम का वक्त था. गाने वाला प्रलय के गीत गा रहा था. उस का एक-एक स्वर उर्मिला के हृदय में चुभा जा रहा था. वह उठी, ड्राइंग-रूम में आ गई. उसका सितार असहाय भिखारी की भांति एक ओर पड़ा था. उस पर मिट्टी की एक हल्की-सी तह जम गई थी. उसने उसे कपड़े से साफ किया और आवेश में आ कर चूम लिया. उसकी आंखों से आंसू छलक आये. गाने वाला गा रहा था. क्यों रूठ गए हमसे
उर्मिला ने एक दीर्घ-नि:श्वास छोड़ा और उस की कम्पित उंगलियां सितार के तारों पर थिरकने लगीं. बेखयाली में यही गीत उस के सितार से निकलने लगा
क्यों रूठ गए हमसे
वह गाता हुआ अपने भवन से उतरा और फसील को फांद कर उर्मिला के पास आ बैठा. वह सितार बजाती रही और वह गाता रहा.
दोनों अपनी कला के शिखर पर जा पहुंचे. उसने शायद इससे पहले इतना अच्छा न गाया हो और इसने शायद इससे पहले इतना अच्छा सितार न बजाया हो. गीत की लय और सितार की झनकार दोनों एक हो कर मानों रूठे हुए दिलों को प्रेम का मार्ग बता रही थीं.
गीत समाप्त हो गया. उर्मिला युवक की भुजाओं में थीं. अपने विशाल वक्षस्थल से भींचते हुए युवक ने उसे चूम लिया. उर्मिला चौकी, युवक पीछे हटा. वह उठ कर भागने को हुई. युवक ने उसे बैठा लिया और अपनी लम्बी मूंछें उतार दीं और सिर के लम्बे-लम्बे बाल दूर कर दिये.
गोधूलि का समय था. सन्ध्या के क्षीण प्रकाश में उर्मिला ने देखा वह अपने पति के सामने बैठी है. वह हंस रहा था, परन्तु उर्मिला के मुख पर मौत की नीरव स्याही पुत गई.
‘देखा हमारा बहुरूप उम्मी!’
रामदयाल ने विजय की ख़ुशी में उसे अपनी ओर खींचते हुए कहा. कौन जानता है कि वह ‘नवयुग’ में छपे लेख की परीक्षा न कर रहा था!
‘अभी आई!’
और उर्मिला ऊपर अपने कमरे में भाग गई.
कुछ समय बीत गया. रामदयाल अपने विचारों में निमग्न रहा.
उस के विचारों का क्रम उर्मिला के कमरे से आने वाली एक चीख से टूट गया. भाग कर ऊपर पहुंचा. देखा उर्मिला के कपड़ों को आग लगी हुई है और वह शान्त भाव से जल रही है.
रामदयाल कांप उठा. उसने उसे बचाने का भरसक प्रयत्न किया, पर वह सफल न हुआ.
श्मशान में उर्मिला का शव जल रहा था. और मूर्तिवत बैठा रामदयाल अपनी मूर्खता और नारी-हृदय की इस पहेली को समझने का प्रयास कर रहा था.
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