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लाल पान की बेगम: हल्की-फुल्की नोकझोंक की कहानी (लेखक: फणीश्वरनाथ रेणु)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
April 12, 2022
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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लाल पान की बेगम: हल्की-फुल्की नोकझोंक की कहानी (लेखक: फणीश्वरनाथ रेणु)
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ग्रामीण परिवेश पर आधारित इस कहानी में नारी स्वभाव और स्वाभिमान का ख़ूबसूरत चित्रण है. गांव की महिलाओं की हंसी-ठिठौली, पति-पत्नी के बीच की नोकझोंक के बीच बीत रही सौंधी-सी ज़िंदगी की महक है ‘लाल पान की बेगम’ में.

‘क्यों बिरजू की मां, नाच देखने नहीं जाएगी क्या?’
बिरजू की मां शकरकंद उबाल कर बैठी मन-ही-मन कुढ़ रही थी अपने आंगन में. सात साल का लड़का बिरजू शकरकंद के बदले तमाचे खा कर आंगन में लोट-पोट कर सारी देह में मिट्टी मल रहा था. चंपिया के सिर भी चुड़ैल मंडरा रही है… आधे-आंगन धूप रहते जो गई है सहुआन की दुकान छोवा-गुड़ लाने, सो अभी तक नहीं लौटी, दीया-बाती की बेला हो गई. आए आज लौट के जरा! बागड़ बकरे की देह में कुकुरमाछी लगी थी, इसलिए बेचारा बागड़ रह-रह कर कूद-फांद कर रहा था. बिरजू की मां बागड़ पर मन का ग़ुस्सा उतारने का बहाना ढूंढ़ कर निकाल चुकी थी. …पिछवाड़े की मिर्च की फूली गाछ! बागड़ के सिवा और किसने कलेवा किया होगा! बागड़ को मारने के लिए वह मिट्टी का छोटा ढेला उठा चुकी थी, कि पड़ोसिन मखनी फुआ की पुकार सुनाई पड़ी,‘क्यों बिरजू की मां, नाच देखने नहीं जाएगी क्या?’
‘बिरजू की मां के आगे नाथ और पीछे पगहिया हो तब न, फुआ!’
गरम ग़ुस्से में बुझी नुकीली बात फुआ की देह में धंस गई और बिरजू के मां ने हाथ के ढेले को पास ही फेंक दिया,‘बेचारे बागड़ को कुकुरमाछी परेशान कर रही है. आ-हा, आय… आय! हर्र-र-र! आय-आय!’
बिरजू ने लेटे-ही-लेटे बागड़ को एक डंडा लगा दिया. बिरजू की मां की इच्छा हुई कि जा कर उसी डंडे से बिरजू का भूत भगा दे, किंतु नीम के पास खड़ी पनभरनियों की खिलखिलाहट सुन कर रुक गई. बोली,‘ठहर, तेरे बप्पा ने बड़ा हथछुट्टा बना दिया है तुझे! बड़ा हाथ चलता है लोगों पर. ठहर!’
मखनी फुआ नीम के पास झुकी कमर से घड़ा उतार कर पानी भर कर लौटती पनभरनियों में बिरजू की मां की बहकी हुई बात का इंसाफ़ करा रही थी,‘जरा देखो तो इस बिरजू की मां को! चार मन पाट (जूट) का पैसा क्या हुआ है, धरती पर पांव ही नहीं पड़ते! निसाफ करो! खुद अपने मुंह से आठ दिन पहले से ही गांव की गली-गली में बोलती फिरी है,‘हां, इस बार बिरजू के बप्पा ने कहा है, बैलगाड़ी पर बिठा कर बलरामपुर का नाच दिखा लाऊंगा. बैल अब अपने घर है, तो हजार गाड़ी मंगनी मिल जाएंगी.’ सो मैंने अभी टोक दिया, नाच देखनेवाली सब तो औन-पौन कर तैयार हो रही हैं, रसोई-पानी कर रहे हैं. मेरे मुंह में आग लगे, क्यों मैं टोकने गई! सुनती हो, क्या जवाब दिया बिरजू की मां ने?’
मखनी फुआ ने अपने पोपले मुंह के होंठों को एक ओर मोड़ कर ऐंठती हुई बोली निकाली,‘अर्-र्रे-हां-हां! बि-र-र-ज्जू की मै…या के आगे नाथ औ-र्र पीछे पगहिया हो, तब ना-आ-आ!’
जंगी की पुतोहू बिरजू की मां से नहीं डरती. वह ज़रा गला खोल कर ही कहती है,‘फुआ-आ! सरबे सित्तलर्मिटी (सर्वे सेट्लमेंट) के हाकिम के बासा पर फूलछाप किनारीवाली साड़ी पहन के तू भी भटा की भेंटी चढ़ाती तो तुम्हारे नाम से भी दु-तीन बीघा धनहर जमीन का पर्चा कट जाता! फिर तुम्हारे घर भी आज दस मन सोनाबंग पाट होता, जोड़ा बैल खरीदता! फिर आगे नाथ और पीछे सैकड़ो पगहिया झूलती!’
जंगी की पुतोहू मुंहज़ोर है. रेलवे स्टेशन के पास की लड़की है. तीन ही महीने हुए, गौने की नई बहू हो कर आई है और सारे कुर्माटोली की सभी झगड़ालू सासों से एकाध मोरचा ले चुकी है. उसका ससुर जंगी दागी चोर है, सी-किलासी है. उसका खसम रंगी कुर्माटोली का नामी लठैत. इसीलिए हमेशा सींग खुजाती फिरती जंगी की पुतोहू!
बिरजू की मां के आंगन में जंगी की पुतोहू की गला-खोल बोली गुलेल की गोलियों की तरह दनदनाती हुई आई थी. बिरजू के मां ने एक तीखा जवाब खोज कर निकाला, लेकिन मन मसोस कर रह गई. …गोबर की ढेरी में कौन ढेला फेंके!
जीभ के झाल को गले में उतार कर बिरजू की मां ने अपनी बेटी चंपिया को आवाज़ दी,‘अरी चंपिया-या-या, आज लौटे तो तेरी मूड़ी मरोड़ कर चूल्हे में झोंकती हूं! दिन-दिन बेचाल होती जाती है! …गांव में तो अब ठेठर-बैसकोप का गीत गानेवाली पतुरिया-पुतोहू सब आने लगी हैं. कहीं बैठके ‘बाजे न मुरलिया’ सीख रही होगी ह-र-जा-ई-ई! अरी चंपिया-या-या!’
जंगी की पुतोहू ने बिरजू की मां की बोली का स्वाद ले कर कमर पर घड़े को संभाला और मटक कर बोली,‘चल दिदिया, चल! इस मुहल्ले में लाल पान की बेगम बसती है! नहीं जानती, दोपहर-दिन और चौपहर-रात बिजली की बत्ती भक्-भक् कर जलती है!’
भक्-भक् बिजली-बत्ती की बात सुन कर न जाने क्यों सभी खिलखिला कर हंस पड़ी. फुआ की टूटी हुई दंत-पंक्तियों के बीच से एक मीठी गाली निकली,‘सैतान की नानी!’
बिरजू की मां की आंखों पर मानो किसी ने तेज़ टार्च की रोशनी डाल कर चौंधिया दिया. …भक्-भक् बिजली-बत्ती! तीन साल पहले सर्वे कैंप के बाद गांव की जलनडाही औरतों ने एक कहानी गढ़ के फैलाई थी, चंपिया की मां के आंगन में रात-भर बिजली-बत्ती भुकभुकाती थी! चंपिया की मां के आंगन में नाकवाले जूते की छाप घोड़े की टाप की तरह. …जलो, जलो! और जलो! चंपिया की मां के आंगन में चांदी-जैसे पाट सूखते देख कर जलनेवाली सब औरतें खलिहान पर सोनोली धान के बोझों को देख कर बैंगन का भुर्ता हो जाएंगी.
मिट्टी के बरतन से टपकते हुए छोवा-गुड़ को उंगलियों से चाटती हुई चंपिया आई और मां के तमाचे खा कर चीख पड़ी,‘मुझे क्यों मारती है-ए-ए-ए! सहुआइन जल्दी से सौदा नहीं देती है-एं-एं-एं-एं!’
‘सहुआइन जल्दी सौदा नहीं देती की नानी! एक सहुआइन की दुकान पर मोती झरते हैं, जो जड़ गाड़ कर बैठी हुई थी! बोल, गले पर लात दे कर कल्ला तोड़ दूंगी हरजाई, जो फिर कभी ‘बाजे न मुरलिया’ गाते सुना! चाल सीखने जाती है टीशन की छोकरियों से!’
बिरजू के मां ने चुप हो कर अपनी आवाज़ अंदाज़ी कि उसकी बात जंगी के झोंपड़े तक साफ-साफ पहुंच गई होगी.
बिरजू बीती हुई बातों को भूल कर उठ खड़ा हुआ था और धूल झाड़ते हुए बरतन से टपकते गुड़ को ललचाई निगाह से देखने लगा था. …दीदी के साथ वह भी दुकान जाता तो दीदी उसे भी गुड़ चटाती, ज़रूर! वह शकरकंद के लोभ में रहा और मांगने पर मां ने शकरकंद के बदले…
‘ए मैया, एक अंगुली गुड़ दे दे बिरजू ने तलहथी फैलाई-दे ना मैया, एक रत्ती भर!’
‘एक रत्ती क्यों, उठाके बरतन को फेंक आती हूं पिछवाड़े में, जाके चाटना! नहीं बनेगी मीठी रोटी! …मीठी रोटी खाने का मुंह होता है बिरजू की मां ने उबले शकरकंद का सूप रोती हुई चंपिया के सामने रखते हुए कहा, बैठके छिलके उतार, नहीं तो अभी…!’
दस साल की चंपिया जानती है, शकरकंद छीलते समय कम-से-कम बारह बार मां उसे बाल पकड़ कर झकझोरेगी, छोटी-छोटी खोट निकाल कर गालियां देगी,‘पांव फैलाके क्यों बैठी है उस तरह, बेलल्जी!’ चंपिया मां के ग़ुस्से को जानती है.
बिरजू ने इस मौके पर थोड़ी-सी ख़ुशामद करके देखा ,‘मैया, मैं भी बैठ कर शकरकंद छीलूं?’
‘नहीं?’ मां ने झिड़की दी,‘एक शकरकंद छीलेगा और तीन पेट में! जाके सिद्धू की बहू से कहो, एक घंटे के लिए कड़ाही मांग कर ले गई तो फिर लौटाने का नाम नहीं. जा जल्दी!’
मुंह लटका कर आंगन से निकलते-निकलते बिरजू ने शकरकंद और गुड़ पर निगाहें दौड़ाई. चंपिया ने अपने झबरे केश की ओट से मां की ओर देखा और नज़र बचा कर चुपके से बिरजू की ओर एक शकरकंद फेंक दिया. …बिरजू भागा.
‘सूरज भगवान डूब गए. दीया-बत्ती की बेला हो गई. अभी तक गाड़ी…’
चंपिया बीच में ही बोल उठी,‘कोयरीटोले में किसी ने गाड़ी नहीं दी मैया! बप्पा बोले, मां से कहना सब ठीक-ठाक करके तैयार रहें. मलदहियाटोली के मियांजान की गाड़ी लाने जा रहा हूं.’
सुनते ही बिरजू की मां का चेहरा उतर गया. लगा, छाते की कमानी उतर गई घोड़े से अचानक. कोयरीटोले में किसी ने गाड़ी मंगनी नहीं दी! तब मिल चुकी गाड़ी! जब अपने गांव के लोगों की आंख में पानी नहीं तो मलदहियाटोली के मियांजान की गाड़ी का क्या भरोसा! न तीन में न तेरह में! क्या होगा शकरकंद छील कर! रख दे उठा के! …यह मर्द नाच दिखाएगा. बैलगाड़ी पर चढ़ कर नाच दिखाने ले जाएगा! चढ़ चुकी बैलगाड़ी पर, देख चुकी जी-भर नाच… पैदल जानेवाली सब पहुंच कर पुरानी हो चुकी होंगी.
बिरजू छोटी कड़ाही सिर पर औंधा कर वापस आया,‘देख दिदिया, मलेटरी टोपी! इस पर दस लाठी मारने पर भी कुछ नहीं होता.’
चंपिया चुपचाप बैठी रही, कुछ बोली नहीं, ज़रा-सी मुस्कराई भी नहीं. बिरजू ने समझ लिया, मैया का ग़ुस्सा अभी उतरा नहीं है पूरे तौर से.
मढ़ैया के अंदर से बागड़ को बाहर भगाती हुई बिरजू की मां बड़बड़ाई,‘कल ही पंचकौड़ी कसाई के हवाले करती हूं राकस तुझे! हर चीज में मुंह लगाएगा. चंपिया, बांध दे बागड़ को. खोल दे गले की घंटी! हमेशा टुनुर-टुनुर! मुझे जरा नहीं सुहाता है!’
‘टुनुर-टुनुर’ सुनते ही बिरजू को सड़क से जाती हुई बैलगाड़ियों की याद हो आई,‘अभी बबुआनटोले की गाड़ियां नाच देखने जा रही थीं… झुनुर-झुनुर बैलों की झुमकी, तुमने सु…’
‘बेसी बक-बक मत करो!’ बागड़ के गले से झुमकी खोलती बोली चंपिया.
‘चंपिया, डाल दे चूल्हे में पानी! बप्पा आवे तो कहना कि अपने उड़नजहाज पर चढ़ कर नाच देख आएं! मुझे नाच देखने का सौख नहीं! …मुझे जगैयो मत कोई! मेरा माथा दुख रहा है.’
मढ़ैया के ओसारे पर बिरजू ने फिसफिसा के पूछा,‘क्यों दिदिया, नाच में उड़नजहाज भी उड़ेगा?’
चटाई पर कथरी ओढ़ कर बैठती हुई चंपिया ने बिरजू को चुपचाप अपने पास बैठने का इशारा किया, मुफ़्त में मार खाएगा बेचारा!
बिरजू ने बहन की कथरी में हिस्सा बांटते हुए चुक्की-मुक्की लगाई. जाड़े के समय इस तरह घुटने पर ठुड्डी रख कर चुक्की-मिक्की लगाना सीख चुका है वह. उसने चंपिया के कान के पास मुंह ले जा कर कहा,‘हम लोग नाच देखने नहीं जाएंगे? …गांव में एक पंछी भी नहीं है. सब चले गए.’
चंपिया को तिल-भर भी भरोसा नहीं. संझा तारा डूब रहा है. बप्पा अभी तक गाड़ी ले कर नहीं लौटे. एक महीना पहले से ही मैया कहती थी, बलरामपुर के नाच के दिन मीठी रोटी बनेगी, चंपिया छींट की साड़ी पहनेगी, बिरजू पैंट पहनेगा, बैलगाड़ी पर चढ़ कर.
चंपिया की भीगी पलकों पर एक बूंद आंसू आ गया.
बिरजू का भी दिल भर आया. उसने मन-ही-मन में इमली पर रहनेवाले जिनबाबा को एक बैंगन कबूला, गाछ का सबसे पहला बैंगन, उसने ख़ुद जिस पौधे को रोपा है! …जल्दी से गाड़ी ले कर बप्पा को भेज दो, जिनबाबा!
मढ़ैया के अंदर बिरजू की मां चटाई पर पड़ी करवटें ले रही थी. उंह, पहले से किसी बात का मनसूबा नहीं बांधना चाहिए किसी को! भगवान ने मनसूबा तोड़ दिया. उसको सबसे पहले भगवान से पूछना है, यह किस चूक का फल दे रहे हो भोला बाबा! अपने जानते उसने किसी देवता-पित्तर की मान-मनौती बाक़ी नहीं रखी. सर्वे के समय ज़मीन के लिए जितनी मनौतियां की थीं… ठीक ही तो! महाबीर जी का रोट तो बाक़ी ही है. हाय रे दैव!… भूल-चूक माफ़ करो महाबीर बाबा! मनौती दूनी करके चढ़ाएगी बिरजू की मां!…
बिरजू की मां के मन में रह-रह कर जंगी की पुतोहू की बातें चुभती हैं, भक्-भक् बिजली-बत्ती!… चोरी-चमारी करनेवाली की बेटी-पुतोहू जलेगी नहीं! पांच बीघा ज़मीन क्या हासिल की है बिरजू के बप्पा ने, गांव की भाईखौकियों की आंखों में किरकिरी पड़ गई है. खेत में पाट लगा देख कर गांव के लोगों की छाती फटने लगी, धरती फोड़ कर पाट लगा है, बैसाखी बादलों की तरह उमड़ते आ रहे हैं पाट के पौधे! तो अलान, तो फलान! इतनी आंखों की धार भला फसल सहे! जहां पंद्रह मन पाट होना चाहिए, सिर्फ़ दस मन पाट कांटा पर तौल के ओजन हुआ भगत के यहां….
इसमें जलने की क्या बात है भला!… बिरजू के बप्पा ने तो पहले ही कुर्माटोली के एक-एक आदमी को समझा के कहा,‘जिंदगी-भर मजदूरी करते रह जाओगे. सर्वे का समय हो रहा है, लाठी कड़ी करो तो दो-चार बीघे जमीन हासिल कर सकते हो.’ सो गांव की किसी पुतखौकी का भतार सर्वे के समय बाबूसाहेब के खिलाफ खांसा भी नहीं… बिरजू के बप्पा को कम सहना पड़ा है! बाबूसाहेब ग़ुस्से से सरकस नाच के बाघ की तरह हुमड़ते रह गए. उनका बड़ा बेटा घर में आग लगाने की धमकी देकर गया… आखिर बाबूसाहेब ने अपने सबसे छोटे लड़के को भेजा. बिरजू की मां को ‘मौसी’ कहके पुकारा,‘यह जमीन बाबू जी ने मेरे नाम से खरीदी थी. मेरी पढ़ाई-लिखाई उसी जमीन की उपज से चलती है.’ …और भी कितनी बातें. खूब मोहना जानता है उत्ता ज़रा-सा लड़का. ज़मींदार का बेटा है कि…
‘चंपिया, बिरजू सो गया क्या? यहां आ जा बिरजू, अंदर. तू भी आ जा, चंपिया!… भला आदमी आए तो एक बार आज!’
बिरजू के साथ चंपिया अंदर चली गई .
‘ढिबरी बुझा दे…. बप्पा बुलाएं तो जवाब मत देना. खपच्ची गिरा दे.’
भला आदमी रे, भला आदमी! मुंह देखो जरा इस मर्द का!… बिरजू की मां दिन-रात मंझा न देती रहती तो ले चुके थे जमीन! रोज आ कर माथा पकड़ के बैठ जाएं,‘मुझे जमीन नहीं लेनी है बिरजू की मां, मजूरी ही अच्छी.’…जवाब देती थी बिरजू की मां खूब सोच-समझके, ‘छोड़ दो, जब तुम्हारा कलेजा ही स्थिर नहीं होता है तो क्या होगा? जोरु-जमीन जोर के, नहीं तो किसी और के!…
बिरजू के बाप पर बहुत तेज़ी से ग़ुस्सा चढ़ता है. चढ़ता ही जाता है. …बिरजू की मां का भाग ही ख़राब है, जो ऐसा गोबरगणेश घरवाला उसे मिला. कौन-सा सौख-मौज दिया है उसके मर्द ने? कोल्हू के बैल की तरह खट कर सारी उम्र काट दी इसके यहां, कभी एक पैसे की जलेबी भी ला कर दी है उसके खसम ने! …पाट का दाम भगत के यहां से ले कर बाहर-ही-बाहर बैल-हटटा चले गए. बिरजू की मां को एक बार नमरी लोट देखने भी नहीं दिया आंख से. …बैल ख़रीद लाए. उसी दिन से गांव में ढिंढोरा पीटने लगे, बिरजू की मां इस बार बैलगाड़ी पर चढ़ कर जाएगी नाच देखने! …दूसरे की गाड़ी के भरोसे नाच दिखाएगा!
अंत में उसे अपने-आप पर क्रोध हो आया. वह ख़ुद भी कुछ कम नहीं! उसकी जीभ में आग लगे! बैलगाड़ी पर चढ़ कर नाच देखने की लालसा किसी कुसमय में उसके मुंह से निकली थी, भगवान जानें! फिर आज सुबह से दोपहर तक, किसी-न-किसी बहाने उसने अठारह बार बैलगाड़ी पर नाच देखने की चर्चा छेड़ी है. …लो, ख़ूब देखो नाच! कथरी के नीचे दुशाले का सपना! …कल भोरे पानी भरने के लिए जब जाएगी, पतली जीभवाली पतुरिया सब हंसती आएंगी, हंसती जाएंगी. …सभी जलते है उससे, हां भगवान, दाढ़ीजार भी! दो बच्चों की मां हो कर भी वह जस-की-तस है. उसका घरवाला उसकी बात में रहता है. वह बालों में गरी का तेल डालती है. उसकी अपनी ज़मीन है. है किसी के पास एक घूर ज़मीन भी अपने इस गांव में! जलेंगे नहीं, तीन बीघे में धान लगा हुआ है, अगहनी. लोगों की बिखदीठ से बचे, तब तो!
बाहर बैलों की घंटियां सुनाई पड़ीं. तीनों सतर्क हो गए. उत्कर्ण होकर सुनते रहे.
‘अपने ही बैलों की घंटी है, क्यों री चंपिया?’
चंपिया और बिरजू ने प्राय: एक ही साथ कहा,‘हूं-ऊं-ऊं!’
‘चुप बिरजू की मां ने फिसफिसा कर कहा, शायद गाड़ी भी है, घड़घड़ाती है न?’
‘हूं-ऊं-ऊं!’ दोनों ने फिर हुंकारी भरी.
‘चुप! गाड़ी नहीं है. तू चुपके से टट्टी में छेद करके देख तो आ चंपी! भागके आ, चुपके-चुपके.’
चंपिया बिल्ली की तरह हौले-हौले पांव से टट्टी के छेद से झांक आई,‘हां मैया, गाड़ी भी है!’
बिरजू हड़बड़ा कर उठ बैठा. उसकी मां ने उसका हाथ पकड़ कर सुला दिया,‘बोले मत!’
चंपिया भी गुदड़ी के नीचे घुस गई.
बाहर बैलगाड़ी खोलने की आवाज़ हुई. बिरजू के बाप ने बैलों को जोर से डांटा,‘हां-हां! आ गए घर! घर आने के लिए छाती फटी जाती थी!’
बिरजू की मां ताड़ गई, ज़रूर मलदहियाटोली में गांजे की चिलम चढ़ रही थी, आवाज़ तो बड़ी खनखनाती हुई निकल रही है.
‘चंपिया-ह!’ बाहर से पुकार कर कहा उसके बाप ने,‘बैलों को घास दे दे, चंपिया-ह!’
अंदर से कोई जवाब नहीं आया. चंपिया के बाप ने आंगन में आ कर देखा तो न रोशनी, न चिराग, न चूल्हे में आग. …बात क्या है! नाच देखने, उतावली हो कर, पैदल ही चली गई क्या…!
बिरजू के गले में खसखसाहट हुई और उसने रोकने की पूरी कोशिश भी की, लेकिन खांसी जब शुरू हुई तो पूरे पांच मिनट तक वह खांसता रहा.
‘बिरजू! बेटा बिरजमोहन!’ बिरजू के बाप ने पुचकार कर बुलाया, मैया ग़ुस्से के मारे सो गई क्या? …अरे अभी तो लोग जा ही रहे हैं.’
बिरजू की मां के मन में आया कि कस कर जवाब दे, नहीं देखना है नाच! लौटा दो गाड़ी!
‘चंपिया-ह! उठती क्यों नहीं? ले, धान की पंचसीस रख दे. धान की बालियों का छोटा झब्बा झोंपड़े के ओसरे पर रख कर उसने कहा,‘दीया बालो!’
बिरजू की मां उठ कर ओसारे पर आई,‘डेढ़ पहर रात को गाड़ी लाने की क्या जरुरत थी? नाच तो अब खत्म हो रहा होगा.’
ढिबरी की रोशनी में धान की बालियों का रंग देखते ही बिरजू की मां के मन का सब मैल दूर हो गया. …धानी रंग उसकी आंखों से उतर कर रोम-रोम में घुल गया.
‘नाच अभी शुरू भी नहीं हुआ होगा. अभी-अभी बलमपुर के बाबू की संपनी गाड़ी मोहनपुर होटिल-बंगला से हाकिम साहब को लाने गई है. इस साल आख़िरी नाच है…. पंचसीस टट्टी में खोंस दे, अपने खेत का है.’
‘अपने खेत का? हुलसती हुई बिरजू की मां ने पूछा, पक गये धान?’
‘नहीं, दस दिन में अगहन चढ़ते-चढ़ते लाल हो कर झुक जाएंगी सारे खेत की बालियां! …मलदहियाटोली पर जा रहा था, अपने खेत में धान देख कर आंखें जुड़ा गईं. सच कहता हूं, पंचसीस तोड़ते समय उंगलियां कांप रही थीं मेरी!’
बिरजू ने धान की एक बाली से एक धान ले कर मुंह में डाल लिया और उसकी मां ने एक हल्की डांट दी,‘कैसा लुक्क्ड़ है तू रे! …इन दुश्मनों के मारे कोई नेम-धरम बचे!’
‘क्या हुआ, डांटती क्यों है?’
‘नवान्न के पहले ही नया धान जुठा दिया, देखते नहीं?’
‘अरे, इन लोगों का सब कुछ माफ है. चिरई-चुरमुन हैं यह लोग! दोनों के मुंह में नवान्न के पहले नया अन्न न पड़े?’
इसके बाद चंपिया ने भी धान की बाली से दो धान लेकर दांतों-तले दबाए,‘ओ मैया! इतना मीठा चावल!’
‘और गमकता भी है न दिदिया?’ बिरजू ने फिर मुंह में धान लिया.
‘रोटी-पोटी तैयार कर चुकी क्या?’ बिरजू के बाप ने मुस्कराकर पूछा.
‘नहीं!’ मान-भरे सुर में बोली बिरजू की मां,‘जाने का ठीक-ठिकाना नहीं… और रोटी बनाती!’
‘वाह! खूब हो तुम लोग!…जिसके पास बैल है, उसे गाड़ी मंगनी नहीं मिलेगी भला? गाड़ीवालो को भी कभी बैल की ज़रूरत होगी. …पूछूंगा तब कोयरीटोलावालों से! …ले, जल्दी से रोटी बना ले.’
‘देर नहीं होगी!’
‘अरे, टोकरी भर रोटी तो तू पलक मारते बना देती है, पांच रोटियां बनाने में कितनी देर लगेगी!’
अब बिरजू की मां के होंठों पर मुस्कराहट खुल कर खिलने लगी. उसने नज़र बचा कर देखा, बिरजू का बप्पा उसकी ओर एकटक निहार रहा है. …चंपिया और बिरजू न होते तो मन की बात हंस कर खोलने में देर न लगती. चंपिया और बिरजू ने एक-दूसरे को देखा और खुशी से उनके चेहरे जगमगा उठे,‘मैया बेकार ग़ुस्सा हो रही थी न!’
‘चंपी! जरा घैलसार में खड़ी हो कर मखनी फुआ को आवाज़ दे तो!’
‘ऐ फू-आ-आ! सुनती हो फूआ-आ! मैया बुला रही है!’
फुआ ने कोई जवाब नहीं दिया, किंतु उसकी बड़बड़ाहट स्पष्ट सुनाई पड़ी,‘हां! अब फुआ को क्यों गुहारती है? सारे टोले में बस एक फुआ ही तो बिना नाथ-पगहियावाली है.’
‘अरी फुआ!’ बिरजू की मां ने हंस कर जवाब दिया,‘उस समय बुरा मान गई थी क्या? नाथ-पगहियावाले को आ कर देखो, दोपहर रात में गाड़ी लेकर आया है! आ जाओ फुआ, मैं मीठी रोटी पकाना नहीं जानती.’
फुआ कांखती-खांसती आई,‘इसी के घड़ी-पहर दिन रहते ही पूछ रही थी कि नाच देखने जाएगी क्या? कहती, तो मैं पहले से ही अपनी अंगीठी यहां सुलगा जाती.’
बिरजू की मां ने फुआ को अंगीठी दिखला दी और कहा,‘घर में अनाज-दाना वगैरह तो कुछ है नहीं. एक बागड़ है और कुछ बरतन-बासन, सो रात-भर के लिए यहां तंबाकू रख जाती हूं. अपना हुक्का ले आई हो न फुआ?’
फुआ को तंबाकू मिल जाए, तो रात-भर क्या, पांच रात बैठ कर जाग सकती है. फुआ ने अंधेरे में टटोल कर तंबाकू का अंदाज़ किया… ओ-हो! हाथ खोल कर तंबाकू रखा है बिरजू की मां ने! और एक वह है सहुआइन! राम कहो! उस रात को अफीम की गोली की तरह एक मटर-भर तंबाकू रख कर चली गई गुलाब-बाग मेले और कह गई कि डिब्बी-भर तंबाकू है.
बिरजू की मां चूल्हा सुलगाने लगी. चंपिया ने शकरकंद को मसल कर गोले बनाए और बिरजू सिर पर कड़ाही औंधा कर अपने बाप को दिखलाने लगा,‘मलेटरी टोपी! इस पर दस लाठी मारने पर भी कुछ नहीं होगा!’
सभी ठठा कर हंस पड़े. बिरजू की मां हंस कर बोली,‘ताखे पर तीन-चार मोटे शकरकंद हैं, दे दे बिरजू को चंपिया, बेचारा शाम से ही…’
‘बेचारा मत कहो मैया, खूब सचारा है’ अब चंपिया चहकने लगी,‘तुम क्या जानो, कथरी के नीचे मुंह क्यों चल रहा था बाबू साहब का!’
‘ही-ही-ही!’
बिरजू के टूटे दूध के दांतो की फांक से बोली निकली,‘बिलैक-मारटिन में पांच शकरकंद खा लिया! हा-हा-हा!’
सभी फिर ठठा कर हंस पड़े. बिरजू की मां ने फुआ का मन रखने के लिए पूछा, ‘एक कनवां गुड़ है. आधा दूं फुआ?’
फुआ ने गदगद हो कर कहा,‘अरी शकरकंद तो खुद मीठा होता है, उतना क्यों डालेगी?’
जब तक दोनों बैल दाना-घास खा कर एक-दूसरे की देह को जीभ से चाटें, बिरजू की मां तैयार हो गई. चंपिया ने छींट की साड़ी पहनी और बिरजू बटन के अभाव में पैंट पर पटसन की डोरी बंधवाने लगा.
बिरजू के मां ने आंगन से निकल गांव की ओर कान लगा कर सुनने की चेष्टा की,‘उंहुं, इतनी देर तक भला पैदल जानेवाले रुके रहेंगे?’
पूर्णिमा का चांद सिर पर आ गया है. …बिरजू की मां ने असली रूपा का मंगटिक्का पहना है आज, पहली बार. बिरजू के बप्पा को हो क्या गया है, गाड़ी जोतता क्यों नहीं, मुंह की ओर एकटक देख रहा है, मानो नाच की लाल पान की…
गाड़ी पर बैठते ही बिरजू की मां की देह में एक अजीब गुदगुदी लगने लगी. उसने बांस की बल्ली को पकड़ कर कहा,‘गाड़ी पर अभी बहोत जगह है. …ज़रा दाहिनी सड़क से गाड़ी हांकना.’
बैल जब दौड़ने लगे और पहिया जब चूं-चूं करके घरघराने लगा तो बिरजू से नहीं रहा गया,‘उड़नजहाज की तरह उड़ाओ बप्पा!’
गाड़ी जंगी के पिछवाड़े पहुंची. बिरजू की मां ने कहा,‘जरा जंगी से पूछो न, उसकी पुतोहू नाच देखने चली गई क्या?’
गाड़ी के रुकते ही जंगी के झोंपड़े से आती हुई रोने की आवाज़ स्पष्ट हो गई. बिरजू के बप्पा ने पूछा,‘अरे जंगी भाई, काहे कन्न-रोहट हो रहा है आंगन में?’
जंगी घूर ताप रहा था, बोला,‘क्या पूछते हो, रंगी बलरामपुर से लौटा नहीं, पुतोहिया नाच देखने कैसे जाए! आसरा देखते-देखते उधर गांव की सभी औरतें चली गई.’
‘अरी टीसनवाली, तो रोती है काहे!’ बिरजू की मां ने पुकार कर कहा,‘आ जा झट से कपड़ा पहन कर. सारी गाड़ी पड़ी हुई है! बेचारी! …आ जा जल्दी!’
बगल के झोंपड़े से राधे की बेटी सुनरी ने कहा,‘काकी, गाड़ी में जगह है? मैं भी जाऊंगी.’
बांस की झाड़ी के उस पार लरेना खवास का घर है. उसकी बहू भी नहीं गई है. गिलट का झुमकी-कड़ा पहन कर झमकती आ रही है.
‘आ जा! जो बाक़ी रह गई हैं, सब आ जाएं जल्दी!’
जंगी की पुतोहू, लरेना की बीवी और राधे की बेटी सुनरी, तीनों गाड़ी के पास आई. बैल ने पिछला पैर फेंका. बिरजू के बाप ने एक भद्दी गाली दी,‘साला! लताड़ मार कर लंगड़ी बनाएगा पुतोहू को!’
सभी ठठा कर हंस पड़े. बिरजू के बाप ने घूंघट में झुकी दोनों पुतोहूओं को देखा. उसे अपने खेत की झुकी हुई बालियों की याद आ गई.
जंगी की पुतोहू का गौना तीन ही मास पहले हुआ है. गौने की रंगीन साड़ी से कड़वे तेल और लठवा-सिंदूर की गंध आ रही है. बिरजू की मां को अपने गौने की याद आई. उसने कपड़े की गठरी से तीन मीठी रोटियां निकाल कर कहा,‘खा ले एक-एक करके. सिमराह के सरकारी कूप में पानी पी लेना.’
गाड़ी गांव से बाहर हो कर धान के खेतों के बगल से जाने लगी. चांदनी, कातिक की! …खेतों से धान के झरते फूलों की गंध आती है. बांस की झाड़ी में कहीं दुद्धी की लता फूली है. जंगी की पुतोहू ने एक बीड़ी सुलगा कर बिरजू की मां की ओर बढ़ाई. बिरजू की मां को अचानक याद आई चंपिया, सुनरी, लरेना की बीवी और जंगी की पुतोहू, ये चारों ही गांव में बैसकोप का गीत गाना जानती हैं. …ख़ूब!
गाड़ी की लीक धनखेतों के बीच हो कर गई. चारों ओर गौने की साड़ी की खसखसाहट-जैसी आवाज़ होती है. …बिरजू की मां के माथे के मंगटिक्के पर चांदनी छिटकती है.
‘अच्छा, अब एक बैसकोप का गीत गा तो चंपिया! …डरती है काहे? जहां भूल जाओगी, बगल में मासटरनी बैठी ही है!’
दोनों पुतोहुओं ने तो नहीं, किंतु चंपिया और सुनरी ने खंखार कर गला साफ किया.
बिरजू के बाप ने बैलों को ललकारा,‘चल भैया! और जरा जोर से!… गा रे चंपिया, नहीं तो मैं बैलों को धीरे-धीरे चलने को कहूंगा.’
जंगी की पुतोहू ने चंपिया के कान के पास घूंघट ले जा कर कुछ कहा और चंपिया ने धीमे से शुरु किया,‘चंदा की चांदनी…’
बिरजू को गोद में ले कर बैठी उसकी मां की इच्छा हुई कि वह भी साथ-साथ गीत गाए. बिरजू की मां ने जंगी की पुतोहू को देखा, धीरे-धीरे गुनगुना रही है वह भी. कितनी प्यारी पुतोहू है! गौने की साड़ी से एक ख़ास क़िस्म की गंध निकलती है. ठीक ही तो कहा है उसने! बिरजू की मां बेगम है, लाल पान की बेगम! यह तो कोई बुरी बात नहीं. हां, वह सचमुच लाल पान की बेगम है!
बिरजू की मां ने अपनी नाक पर दोनों आंखों को केंद्रित करने की चेष्टा करके अपने रूप की झांकी ली, लाला साड़ी की झिलमिल किनारी, मंगटिक्का पर चांद. …बिरजू की मां के मन में अब और कोई लालसा नहीं. उसे नींद आ रही है.

Illustration: Pinterest

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