• होम पेज
  • टीम अफ़लातून
No Result
View All Result
डोनेट
ओए अफ़लातून
  • सुर्ख़ियों में
    • ख़बरें
    • चेहरे
    • नज़रिया
  • हेल्थ
    • डायट
    • फ़िटनेस
    • मेंटल हेल्थ
  • रिलेशनशिप
    • पैरेंटिंग
    • प्यार-परिवार
    • एक्सपर्ट सलाह
  • बुक क्लब
    • क्लासिक कहानियां
    • नई कहानियां
    • कविताएं
    • समीक्षा
  • लाइफ़स्टाइल
    • करियर-मनी
    • ट्रैवल
    • होम डेकोर-अप्लाएंसेस
    • धर्म
  • ज़ायका
    • रेसिपी
    • फ़ूड प्लस
    • न्यूज़-रिव्यूज़
  • ओए हीरो
    • मुलाक़ात
    • शख़्सियत
    • मेरी डायरी
  • ब्यूटी
    • हेयर-स्किन
    • मेकअप मंत्र
    • ब्यूटी न्यूज़
  • फ़ैशन
    • न्यू ट्रेंड्स
    • स्टाइल टिप्स
    • फ़ैशन न्यूज़
  • ओए एंटरटेन्मेंट
    • न्यूज़
    • रिव्यूज़
    • इंटरव्यूज़
    • फ़ीचर
  • वीडियो-पॉडकास्ट
ओए अफ़लातून
Home बुक क्लब क्लासिक कहानियां

वांग्चू: एक बौद्ध भिक्षु की कहानी (लेखक: भीष्म साहनी)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
March 25, 2021
in क्लासिक कहानियां, ज़रूर पढ़ें, बुक क्लब
A A
वांग्चू: एक बौद्ध भिक्षु की कहानी (लेखक: भीष्म साहनी)
Share on FacebookShare on Twitter

वांग्चू एक चीनी बौद्ध भिक्षु था, जिसने अपनी ज़िंदगी का लंबा अरसा भारत में अध्ययन करते हुए बिताया. पर भारत और चीन के बीच युद्ध छिड़ते ही उसकी पूरी ज़िंदगी बदल गई. डेढ़ दांतों की मुस्कान वाले उस शांत भिक्षु का जीवन ही अशांत हो गया.

तभी दूर से वांग्चू आता दिखाई दिया.
नदी के किनारे, लालमंडी की सड़क पर धीरे-धीरे डोलता-सा चला आ रहा था. धूसर रंग का चोगा पहने था और दूर से लगता था कि बौद्ध भिक्षुओं की ही भांति उसका सिर भी घुटा हुआ है. पीछे शंकराचार्य की ऊंची पहाड़ी थी और ऊपर स्वच्छ नीला आकाश. सड़क के दोनों ओर ऊंचे-ऊंचे सफेदे के पेड़ों की कतारें. क्षण-भर के लिए मुझे लगा, जैसे वांग्चू इतिहास के पन्नों पर से उतरकर आ गया है. प्राचीनकाल में इसी भांति देश-विदेश से आनेवाले चीवरधारी भिक्षु पहाड़ों और घाटियों को लांघकर भारत के आया करते होंगे. अतीत के ऐसे ही रोमांचकारी धुंधलके में मुझे वांग्चू भी चलता हुआ नजर आया. जब से वह श्रीनगर में आया था, बौद्ध विहारों के खंडहरों और संग्रहालयों में घूम रहा था. इस समय भी वह लालमंडी के संग्रहालय में से निकलकर आ रहा था जहां बौद्धकाल के अनेक अवषेष रखे हैं. उसकी मनः स्थिति को देखते हुए लगता, वह सचमुच ही वर्तमान से कटकर अतीत के ही किसी कालखंड में विचर रहा था.
“बोधिसत्वों से भेंट हो गई?” पास आने पर मैंने चुटकी ली.
वह मुस्करा दिया, हल्की टेढ़ी-सी मुस्कान, जिसे मेरी मौसेरी बहन डेढ़ दांत की मुस्कान कहा करती थी, क्योंकि मुस्कराते वक़्त वांग्चू का ऊपर का होंठ केवल एक ओर से थोड़ा-सा ऊपर को उठता था.
“संग्रहालय के बाहर बहुत-सी मूर्तियां रखी हैं. मैं वही देखता रहा.” उसने धीमे से कहा, फिर वह सहसा भावुक होकर बोला,“एक मूर्ति के केवल पैर ही पैर बचे हैं…. ”
मैंने सोचा, आगे कुछ कहेगा, परंतु वह इतना भाव विहल हो उठा था कि उसका गला रुंध गया और उसके लिए बोलना असंभव हो गया.
हम एक साथ घर की ओर लौटने लगे.
“महाप्राण के भी पैर ही पहले दिखाए जाते थे.” उसने कांपती-सी आवाज़ में कहा और अपना हाथ मेरी कोहनी पर रख दिया. उसके हाथ का हल्का-सा कम्पन धड़कते दिल की तरह महसूस हो रहा था.
“आरम्भ में महाप्राण की मूर्तियां नहीं बनाई जाती थीं ना! तुम तो जानते हो, पहले स्तूप के नीचे केवल पैर ही दिखाए जाते थे. मूर्तियां तो बाद में बनाई जाने लगी थीं.”
ज़ाहिर है, बोधिसत्त्व के पैर देखकर उसे महाप्राण के पैर याद हो आए थे और वह भावुक हो उठा था. कुछ पता नहीं चलता था, कौन-सी बात किस वक़्त वांग्चू को पुलकाने लगे, किस वक़्त वह गद्गद् होने लगे.
“तुमने बहुत देर कर दी. सभी लोग तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं. मैं चिनारों के नीचे भी तुम्हें खोज आया हूं.” मैंने कहा.
“मैं संग्रहालय में था….”
“वह तो ठीक है, पर दो बजे तक हमें हब्बाकदल पहुंच जाना चाहिए, वरना जाने का कोई लाभ नहीं.”
उसने छोटे-छोटे झटकों के साथ तीन बार सिर हिलाया और क़दम बढ़ा दिए.
वांग्चू भारत में मतवाला बना घूम रहा था. वह महाप्राण के जन्मस्थान लुम्बिनी की यात्रा नंगे पांव कर चुका था, सारा रास्ता हाथ जोड़े हुए. जिस-जिस दिशा में महाप्राण के चरण उठे थे, वांग्चू मन्त्रमुग्ध-सा उसी-उसी दिशा में घूम आया था. सारनाथ में, जहां महाप्राण ने अपना पहला प्रवचन दिया था और दो मृगशावक मन्त्रमुग्ध-से झाड़ियों में से निकलकर उनकी ओर देखते रह गए थे, वांग्चू एक पीपल के पेड़ के नीचे घंटों नतमस्तक बैठा रहा था, यहां तक कि उसके कथानुसार उसके मस्तक से अस्फुट-से वाक्य गूंजने लगे थे और उसे लगा था, जैसे महाप्राण का पहला प्रवचन सुन रहा है. वह इस भक्तिपूर्ण कल्पना में इतना गहरा डूब गया था कि सारनाथ में ही रहने लगा था. गंगा की धार को वह दसियों शताब्दियों के धुंधलके में पावन जलप्रवाह के रूप में देखता. जब से श्रीनगर में आया था, बर्फ के ढंके पहाड़ों की चोटियों की ओर देखते हुए अक्सर मुझसे कहता-वह रास्ता ल्हासा को जाता है ना, उसी रास्ते बौद्ध ग्रंथ तिब्बत में भेजे गए थे. वह उस पर्वतमाला को भी पुण्य-पावन मानता था क्योंकि उस पर बिछी पगडंडियों के रास्ते बौद्ध भिक्षु तिब्बत की ओर गए थे.
वांग्चू कुछ वर्षों पहले वृद्ध प्रोफ़ेसर तान शान के साथ भारत आया था. कुछ दिनों तक तो वह उन्हीं के साथ रहा और हिंदी और अंगरेजी भाषाओं का अध्ययन करता रहा, फिर प्रोफ़ेसर शान चीन लौट गए और वह यहीं बना रहा और किसी बौद्ध सोसाइटी से अनुदान प्राप्त कर सारनाथ में आकर बैठ गया. भावुक, काव्यमयी प्रकृति का जीवन, जो प्राचीनता के मनमोहक वातावरण में विचरते रहना चाहता था…. वह यहां तथ्यों की खोज करने कहीं आया था, वह तो बोधिसत्त्वों की मूर्तियों को देखकर गद्गद् होने आया था. महीने-भर से संग्रहालयों से चक्कर काट रहा था, लेकिन उसने कभी नहीं बताया कि बौद्ध धर्म की किस शिक्षा से उसे सबसे अधिक प्रेरणा मिलती है. न तो वह किसी तथ्य को पाकर उत्साह से खिल उठता, न उसे काई संशय परेशान करता. वह भक्त अधिक और जिज्ञासु कम था.
मुझे याद नहीं कि उसने हमारे साथ कभी खुलकर बात की हो या किसी विषय पर अपना मत पेश किया हो. उन दिनों मेरे और मेरे दोस्तों के बीच घंटों बहसें चला करतीं, कभी देश की राजनीति के बारे में, कभी धर्म मे बारे में, लेकिन वांग्चू इनमें कभी भाग नहीं लेता था. वह सारा वक़्त धीमे-धीमे मुस्कराता रहता और कमरे के एक कोने में दुबककर बैठा रहता. उन दिनों देश में वलवलों का सैलाब-सा उठ रहा था. स्वतन्त्रता-आंदोलन कौन-सा रूख पकड़ेगा. क्रियात्मक स्तर पर तो हम लोग कुछ करते-कराते नहीं थे, लेकिन भावनात्मक स्तर पर उसके साथ बहुत कुछ जुड़े हुए थे. इस पर वांग्चू की तटस्थता कभी हमें अखरने लगाती, तो कभी अचम्भे में डाल देती. वह हमारे देश की ही गतिविधि के बारे में नहीं, अपने देश की गतिविधि में भी कोई विशेष दिलचस्पी नहीं लेता था. उससे उसके अपने देश के बारे में भी पूछो, तो मुस्कराता सिर हिलाता रहता था.
कुछ दिनों से श्रीनगर की हवा भी बदली हुई थी. कुछ मास पहले यहां गोली चली थी. कश्मीर के लोग महाराजा के खिलाफ़ उठ खड़े हुए थे और अब कुछ दिनों से शहर में एक नई उत्तेजना पाई जाती थी. नेहरूजी श्रीनगर आनेवाले थे और उनका स्वागत करने के लिए नगर को दुल्हन की तरह सजाया जा रहा था. आज ही दोपहर को नेहरूजी श्रीनगर पहुंच रहे हैं. नदी के रास्ते नावों के जुलूस की शक्ल में उन्हें लाने की योजना थी और इसी कारण मैं वांग्चू को खोजता हुआ उस ओर आ निकला था.
हम घर की ओर बढ़े जा रहे थे, जब सहसा वांग्चू ठिठककर खड़ा हो गया. “क्या मेरा जाना बहुत जरूरी है? जैसा तुम कहो….”
मुझे धक्का-सा लगा. ऐसे समय में, जब लाखों लोग नेहरूजी के स्वागत के लिए इकट्ठे हो रहे थे, वांग्चू का यह कहना कि अगर वह साथ न जाए, तो कैसा रहे, मुझे सचमुच बुरा लगा. लेकिन फिर स्वयं ही कुछ सोचकर उसने अपने आग्रह को दोहराया नहीं और हम घर की ओर साथ-साथ जाने लगे.
कुछ देर बाद हब्बाकदल के पुल के निकट लाखों की भीड़ में हम लोग खड़े थे-मैं, वांग्चू तथा मेरे दो-तीन मित्र. चारों ओर जहां तक नजर जाती, लोग ही लोग थे-मकानों की छतों पर, पुल पर, नदी के ढलवां किनारों पर. मैं बार-बार कनखियों से वांग्चू के चेहरे की ओर देख रहा था कि उसकी क्या प्रतिक्रिया हुई है, कि हमारे दिल में उठनेवाले वलवलों का उस पर क्या असर हुआ है. यों भी यह मेरी आदत-सी बन गई है, जब भी कोई विदेशी साथ में हो मैं उसके चेहरे का भाव पढ़ने की कोशिश करता रहता हूं कि हमारे रीति-रिवाज, हमारे जीवनयापन के बारे में उसकी क्या प्रतिक्रिया होती है. वांग्चू अधमुंदी आंखों से सामने का दृश्य देखे जा रहा था. जिस समय नेहरूजी की नाव सामने आई, तो जैसे मकानों की छतें भी हिल उठीं. राजहंस शक्ल की सफ़ेद नाव में नेहरूजी स्थानीय नेताओं के साथ खड़े हाथ हिला-हिलाकर लोगों का अभिवादन कर रहे थे. और हवा में फूल ही फूल बिखर गए. मैंने पलटकर वांग्चू के चेहरे की ओर देखा. वह पहले ही की तरह निष्चेष्ट-सा सामने का दृश्य देखे जा रहा था.
“आपको नेहरूजी कैसे लगे?” मेरे एक साथी ने वांग्चू से पूछा. वांग्चू ने अपनी टेढ़ी-सी आंखें उठाकर चेहरे की ओर देखा, फिर अपनी डेढ़ दांत की मुस्कान के साथ कहा,“अच्चा, बहुत अच्चा!”
वांग्चू मामूली-सी हिन्दी और अंग्रेजी जानता था. अगर तेज़ बोलो, तो उसके पल्ले कुछ नहीं पड़ता था.
नेहरूजी की नाव दूर जा चुकी थी लेकिन नावों का जुलूस अभी भी चलता जा रहा था, जब वांग्चू सहसा मुझसे बोला,“मैं थोड़ी देर के लिए संग्रहालय में जाना चाहूंगा. इधर से रास्ता जाता है, मैं स्वयं चला जाऊंगा.” और वह बिना कुछ कहे, एक बार अधमिची आंखों से मुस्काया और हल्के से हाथ हिलाकर मुड़ गया.
हम सभी हैरान रह गए. इसे सचमुच जुलूस में रुचि नहीं रही होगी जो इतनी जल्दी संग्रहालय की ओर अकेला चल दिया है.
“यार, किस बूदम को उठा लाए हो? यह क्या चीज़ है? कहां से पकड़ लाए हो इसे?” मेरे एक मित्र ने कहा.
“बाहर का रहनेवाला है, इसे हमारी बातों में कैसे रुचि हो सकती है!” मैंने सफाई देते हुए कहा.
“वाह, देश में इतना कुछ हो रहा हो और इसे रुचि न हो!”
वांग्चू अब तक दूर जा चुका था और भीड़ में से निकलकर पेड़ों की कतार के नीचे आंखों से ओझल होता जा रहा था.
“मगर यह है कौन?” दूसरा एक मित्र बोला,“न यह बोलता है, न चहकता है. कुछ पता नहीं चलता, हंस रहा है या रो रहा है. सारा वक़्त एक कोने में दुबककर बैठा रहता है.”
“नहीं, नहीं बड़ा समझदार आदमी है. पिछले पांच साल से यहां पर रह रहा है. बड़ा पढ़ा-लिखा आदमी है. बौद्ध धर्म के बारे में बहुत कुछ जानता है.” मैंने फिर उसकी सफ़ाई देते हुए कहा.
मेरी नज़र में इस बात का बड़ा महत्व था कि वह बौद्ध ग्रंथ बांचता है और उन्हें बांचने के लिए इतनी दूर से आया है.
“अरे भाड़ में जाए ऐसी पढ़ाई. वाह जी, जुलूस को छोड़कर म्यूज़ियम की ओर चल दिया है!”
“सीधी-सी बात है यार!” मैंने जोड़ा,“इसे यहां भारत का वर्तमान खींचकर नहीं लाया, भारत का अतीत लाया है. ह्यूनत्सांग भी तो यहां बौद्ध ग्रंथ ही बांचने आया था. यह भी शिक्षार्थी है. बौद्ध मत में इसकी रुचि है.”
घर लौटते हुए हम लोग सारा रास्ता वांग्चू की ही चर्चा करते रहे. अजय का मत था, अगर वह पांच साल भारत में काट गया है, तो अब वह जिन्दगी-भर यहीं पर रहेगा.
“अब आ गया है, तो लौटकर नहीं जाएगा. भारत में एक बार परदेशी आ जाए, तो लौटने का नाम नहीं लेता.”
“भारत देश वह दलदल है कि जिसमें एक बार बाहर के आदमी का पांव पड़ जाए, तो धंसता ही चला जाता है, निकलना चाहे भी तो नहीं निकल सकता!” दिलीप ने मज़ाक में कहा,“न जाने कौन-से कमल-फूल तोड़ने के लिए इस दलदल में घुसा है!”
“हमारा देश हम हिंदुस्तानियों को पसंद नहीं, बाहर के लोगों को तो बहुत पसंद है.” मैंने कहा.
“पसंद क्यों न होगा! यहां थोड़े में गुज़र हो जाती है, सारा वक़्त धूप खिली रहती है, फिर बाहर के आदमी को लोग परेशान नहीं करते, जहां बैठा वहीं बैठा रहने देते हैं. इस पर उन्हें तुम जैसे झुड्डू भी मिल जाते हैं जो उनका गुणगान करते रहते हैं और उनकी आवभगत करते रहते हैं. तुम्हारा वांग्चू भी यहीं पर मरेगा…..”
हमारे यहां उन दिनों मेरी छोटी मौसेरी बहन ठहरी हुई थी, वही जो वांग्चू की मुस्कान को डेढ़ दांत की मुस्कान कहा करती थी. चुलबुली-सी लड़की बात-बात पर ठिठोली करती रहती थी. मैंने दो-एक बार वांग्चू को कनखियों से उसकी ओर देखते पाया था, लेकिन कोई विशेष ध्यान नहीं दिया, क्योंकि वह सभी को कनखियों से ही देखता था. पर उस शाम नीलम मेरे पास आयी और बोली,“आपके दोस्त ने मुझे उपहार दिया है. प्रेमोपहार!”
मेरे कान खड़े हो गए,“क्या दिया है?”
“झूमरों का जोड़ा.”
और उसने दोनों मुट्ठियां खोल दीं जिनमें चांदी के कश्मीरी चलन के दो सफ़ेद झूमर चमक रहे थे. और फिर वह दोनों झूमर अपने कानों के पास ले जाकर बोली,“कैसे लगते हैं?”
मैं हत्बुद्धि-सा नीलम की ओर देख रहा था.
“उसके अपने कान कैसे भूरे-भूरे हैं!” नीलम ने हंसकर कहा. “किसके?”
“मेरे इस प्रेमी के.”
“तुम्हें उसके भूरे कान पसन्द हैं?”
“बहुत ज्यादा. जब शरमाता है, तो ब्राउन हो जाते हैं गहरे ब्राउन.” और नीलम खिलखिलाकर हंस पड़ी.
लड़कियां कैसे उस आदमी के प्रेम का मज़ाक उड़ा सकती है, जो उन्हें पसंद न हो! या कहीं नीलम मुझे बना तो नहीं रही है?
पर मैं इस सूचना से बहुत विचलित नहीं हुआ था. नीलम लाहौर में पढ़ती थी और वांग्चू सारनाथ में रहता था और अब वह हफ्ते-भर में श्रीनगर से वापस जानेवाला था. इस प्रेम का अंकुर अपने-आप ही जल-भुन जाएगा.
“नीलम, ये झूमर तो तुमने उससे ले लिए हैं, पर इस प्रकार की दोस्ती अंत में उसके लिए दुखदायी होगी. बने-बनाएगा कुछ नहीं.’’
“वाह भैया, तुम भी कैसे दकियानूस हो! मैंने भी चमड़े का एक राइटिंग पैड उसे उपहार में दिया है. मेरे पास पहले से पड़ा था, मैंने उसे दे दिया. जब लौटेगा तो प्रेम-पत्र लिखने में उसे आसानी होगी.”
“वह क्या कहता था?”
“कहता क्या था, सारा वक़्त उसके हाथ कांपते रहे और चेहरा कभी लाल होता रहा, कभी पीला. कहता था, मुझे पत्र लिखना, मेरे पत्रों का जवाब देना. और क्या कहेगा बेचारा, भूरे कानोंवाला.”
मैंने ध्यान से नीलम की ओर देखा, पर उसकी आंखों में मुझे हंसी के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं दिया. लड़कियां दिल की बात छिपाना ख़ूब जानती हैं. मुझे लगा, नीलम उसे बढ़ावा दे रही है. उसके लिए वह खिलवाड़ था, लेकिन वांग्चू ज़रूर इसका दूसरा ही अर्थ निकालेगा.
इसके बाद मुझे लगा कि वांग्चू अपना सन्तुलन खो रहा है. उसी रात मैं अपने कमरे की खिड़की के पास खड़ा बाहर मैदान में चिनारों की पांत की ओर देख रहा था, जब चांदनी में, कुछ दूरी पर पेड़ों के नीचे मुझे वांग्चू टहलता दिखाई दिया. वह अक्सर रात को देर तक पेड़ों के नीचे टहलता रहता था. पर आज वह अकेला नहीं था. नीलम भी उसके साथ ठुमक-ठुमककर चलती जा रही थी. मुझे नीलम पर गुस्सा आया. लड़कियां कितनी जालिम होती हैं! यह जानते हुए भी कि इस खिलवाड़ से वांग्चू की बेचैनी बढ़ेगी, वह उसे बढ़ावा दिए जा रही थी.
दूसरे रोज़ खाने की मेज पर नीलम फिर उसके साथ ठिठोली करने लगी. किचन में से एक चौड़ा-सा एल्युमीनियम का डिब्बा उठा लाई. उसका चेहरा तपे तांबे जैसा लाल हो रहा था.
“आपके लिए रोटियां और आलू बना लाई हूं. आम के अचार की फांक भी रखी है. आप जानते हैं फांक किसे कहते हैं? एक बार कहो तो ‘फांक’. कहो वांग्चू जी, ‘फांक’!”
उसने नीलम की ओर खोई-खोई आंखों से देखा और बोला,“बांक!” हम सभी खिलखिलाकर हंस पड़े.
“बांक नहीं, फांक!”
फिर हंसी का फव्वारा फूट पड़ा.
नीलम ने डिब्बा खोला. उसमें से आम के अचार का टुकड़ा निकालकर उसे दिखाते हुए बोली,“यह है फांक, फांक इसे कहते हैं!” और उसे वांग्चू की नाक के पास ले जाकर बोली,“इसे सूंघने पर मुंह में पानी भर आता है. आया मुंह में पानी? अब कहो, ‘फांक’!”
“नीलम, क्या फिजूल बातें कर रही हो! बैठो आराम से!” मैंने डांटते हुए कहा.
नीलम बैठ गई, पर उसकी हरक़तें बंद नहीं हुई. बड़े आग्रह से वांग्चू से कहने लगी,“बनारस जाकर हमें भूल नहीं जाइएगा. हमें खत ज़रूर लिखिएगा और मगर किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो संकोच नहीं कीजिएगा.”
वांग्चू शब्दों के अर्थ तो समझ लेता था लेकिन उनके व्यंग्य की ध्वनि वह नहीं पकड़ पाता था. वह अधिकाधिक विचलित महसूस कर रहा था.
“भेड़ की खाल की ज़रूरत हो या कोई नमदा या अखरोट…” “नीलम!”
“क्यों भैया, भेड़ की खाल पर बैठकर ग्रंथ बांचेंगे!”
वांग्चू के कान लाल होने लगे. शायद पहली बार उसे भास होने लगा था कि नीलम ठिठोली कर रही है. उसके कान सचमुच भूरे रंग के हो रहे थे, जिनका नीलम मज़ाक उड़ाया करती थी.
“नीलम जी, आप लोगों ने मेरा बड़ा अतिथि-सत्कार किया है. मैं बड़ा कृतज्ञ हूं.”
हम सब चुप हो गए. नीलम भी झेंप-सी गई. वांग्चू ने ज़रूर ही उसकी ठिठोली से समझ लिया होगा. उसके मन को ज़रूर ठेस लगी होगी. पर मेरे मन में यह विचार भी उठा कि एक तरह से यह अच्छा ही है कि नीलम के प्रति उसकी भावना बदले, वरना उसे ही सबसे अधिक परेशानी होगी.
शायद वांग्चू अपनी स्थिति को जानते-समझते हुए भी एक स्वाभाविक आकर्षण की चपेट में आ गया था. भावुक व्यक्ति का अपने पर कोई काबू नहीं होता. वह पछाड़ खाकर गिरता है, तभी अपनी भूल को समझ पाता है.
सप्ताह के अन्तिम दिनों में वह रोज कोई-न-कोई उपहार लेकर आने लगा.
एक बार मेरे लिए भी एक चोगा ले आया और बच्चों की तरह ज़िद करने लगा कि मैं और वह अपना-अपना चोगा पहनकर एक साथ घूमने जाएं. संग्रहालय में वह अब भी जाता था, दो-एक बार नीलम को भी अपने साथ ले गया था और लौटने पर सारी शाम नीलम बोधिसत्त्वों की खिल्ली उड़ाती रही थी. मैं मन-ही-मन नीलम के इस व्यवहार का स्वागत ही करता रहा, क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि वांग्चू की कोई भावना हमारे घर में जड़ जमा पाए. सप्ताह बीत गया और वांग्चू सारनाथ लौट गया.
वांग्चू के चले जाने के बाद उसके साथ मेरा संपर्क वैसा ही रहा, जैसा आमतौर पर एक परिचित व्यक्ति के साथ रहता है. गाहे-ब-गाहे कभी खत आ जाता, कभी किसी आते-जाते व्यक्ति से उसकी सूचना मिल जाती. वह उन लोगों में से था, जो बरसों तक औपचारिक परिचय की परिधि पर ही डोलते रहते हैं, न परिधि लांघकर अंदर आते हैं और न ही पीछे हटकर आंखों से ओझल होते हैं. मुझे इतनी ही जानकारी रही कि उसकी समतल और बंधी-बंधाई दिनचर्या में कोई अन्तर नहीं आया. कुछ देर तक मुझे कुतूहल-सा बना रहा कि नीलम और वांग्चू के बीच की बात आगे बढ़ी या नहीं, लेकिन लगा कि वह प्रेम भी वांग्चू के जीवन पर हावी नहीं हो पाया.
बरस और साल बीतते गए. हमारे देश में उन दिनों बहुत कुछ घट रहा था. आए दिन सत्याग्रह होते, बंगाल में दुर्भिक्ष फूटा, ‘भारत छोड़ो’ का आंदोलन हुआ, सड़कों पर गोलियां चलीं, बम्बई में नाविकों का विद्रोह हुआ, देश में खूरेजी हुई, फिर देश का बंटवारा हुआ, और सारा वक़्त वांग्चू सारनाथ में ही बना रहा. वह अपने में सन्तुष्ट जाना पड़ता था. कभी लिखता कि तन्त्रज्ञान का अध्ययन कर रहा है, कभी पता चलता कि कोई पुस्तक लिखने की योजना बना रहा है.
इसके बाद मेरी मुलाकात वांग्चू से दिल्ली में हुई. यह उन दिनों की बात है, जब चीन के प्रधानमंत्री चाऊ-एन-लाई भारत-यात्रा पर आनेवाले थे. वांग्चू अचानक सड़क पर मुझे मिल गया और मैं उसे अपने घर ले आया. मुझे अच्छा लगा कि चीन के प्रधानमंत्री के आगमन की सूचना मिली है, तो मुझे उसकी मनोवृत्ति पर अचम्भा हुआ. उसका स्वभाव वैसा-का-वैसा ही था. पहले की ही तरह हौले-हौले अपनी डेढ़ दांत की मुस्कान मुस्कराता रहा. वैसा ही निश्चेष्ट, असम्पृक्त. इसी बीच उसने कोई पुस्तक अथवा लेखादि भी नहीं लिखे थे. मेरे पूछने पर इस काम में उसने कोई विशेष रुचि भी नहीं दिखाई. तन्त्रज्ञान की चर्चा करते समय भी वह बहुत चहका नहीं. दो-एक ग्रंथों के बारे में बताता रहा, जिसमें से वह कुछ टिप्पणियां लेता रहा था. अपने किसी लेख की भी चर्चा उसने की, जिस पर वह अभी काम कर रहा था. नीलम के साथ उसकी चिट्ठी-पत्री चलती रही, उसने बताया, हालांकि नीलम कब की ब्याही जा चुकी थी और दो बच्चों की मां बन चुकी थी. समय की गति के साथ हमारी मूल धारणाएं भले ही न बदलें, पर उनके आग्रह और उत्सुकता में स्थिरता-सी आ गई थी पहले जैसी भावविह्नलता नहीं थी. बोधिसत्त्वों के पैरों पर अपने प्राण न्योछावर नहीं करता फिरता था. लेकिन अपने जीवन से सन्तुष्ट था. पहले की ही भांति थोड़ा खाता, थोड़ा पढ़ता, थोड़ा भ्रमण करता और थोड़ा सोता था. और दूर लड़कपन से झुटपुटे में किसी भावावेश में चुने गए अपने जीवन-पथ पर कछुए की चाल मज़े से चलता आ रहा था.
खाना खाने के बाद हमारे बीच बहस छिड़ गई,“सामाजिक शक्तियों को समझे बिना तुम बौद्ध धर्म को भी कैसे समझ पाओगे? ज्ञान का प्रत्येक क्षेत्र एक-दूसरे से जुड़ा है, जीवन से जुड़ा है. कोई चीज़ जीवन से अलग नहीं है. तुम जीवन से अलग होकर धर्म को भी कैसे समझ सकते हो?”
कभी वह मुस्कराता, कभी सिर हिलाता और सारा वक़्त दार्शनिकों की तरह मेरे चेहरे की ओर देखता रहा. मुझे लग रहा था कि मेरे कहे का उस पर कोई असर नहीं हो रहा, कि चिकने घड़े पर मैं पानी उंड़ेले जा रहा हूं.
“हमारे देश में न सही, तुम अपने देश के जीवन में तो रुचि लो! इतना जानो-समझो कि वहां पर क्या हो रहा है!”
इस पर भी वह सिर हिलाता और मुस्कराता रहा. मैं जानता था कि एक भाई को छोड़कर चीन में उसका कोई नहीं है. 1929 में वहां पर कोई राजनीतिक उथल-पुथल हुई थी, उसमें उसका गांव जला डाला गया था और सब सगे-संबंधी मर गए थे या भाग गए थे. ले-देकर एक भाई बचा था और वह पेकिंग के निकट किसी गांव में रहता था. बरसों से वांग्चू का संपर्क उसके साथ टूट चूका था. वांग्चू पहले गांव के स्कूल में पढ़ता रहा था, बाद में पेकिंग के एक विद्यालय में पढ़ने लगा था. वहीं से वह प्रोफ़ेसर शान के साथ भारत चला आया था.

“सुनो वांग्चू, भारत और चीन के बीच बंद दरवाज़े अब खुल रहे हैं. अब दोनों देशों के बीच संपर्क स्थापित हो रहे हैं और इसका बड़ा महत्त्व है. अध्ययन का जो काम तुम अभी तक अलग-थलग करते रहे हो, वही अब तुम अपने देश के मान्य प्रतिनिधि के रूप में कर सकते हो. तुम्हारी सरकार तुम्हारे अनुदान का प्रबंध करेगी. अब तुम्हें अलग-थलग पड़े नहीं रहना पड़ेगा. तुम पन्द्रह साल से अधिक समय से भारत में रह रहे हो, अंग्रेज़ी और हिंदी भाषाएं जानते हो, बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन करते रहे हो, तुम दोनों देशों के सांस्कृतिक संपर्क में एक बहुमूल्य कड़ी बन सकते हो….”
उसकी आंखों में हल्की-सी चमक आई. सचमुच उसे कुछ सुविधाएं मिल सकती थीं. क्यों न उनसे लाभ उठाया जाए. दोनो देशों के बीच पाई जानेवाली सद्भावना से वह भी प्रभावित हुआ था. उसने बताया कि कुछ ही दिनों पहले अनुदान की रकम लेने जब वह बनारस गया, तो सड़कों पर राह चलते लोग उससे गले मिल रहे थे. मैंने उसे मशविरा दिया कि कुछ समय के लिए ज़रूर अपने देश लौट जाए और वहां होने वाले विराट परिवर्तनों को देखे और समझे कि सारनाथ में अलग-थलग बैठे रहने से उसे कुछ लाभ नहीं होगा, आदि-आदि.
वह सुनता रहा, सिर हिलाता और मुस्कराता रहा, लेकिन मुझे कुछ मालूम नहीं हो पाया कि उस पर कोई असर हुआ है या नहीं.
लगभग छह महीने बाद उसका पत्र आया कि वह चीन जा रहा है. मुझे बड़ा संतोष हुआ. अपने देश में जाएगा तो धोबी के कुत्तेवाली उसकी स्थिति ख़त्म होगी, कहीं का होकर तो रहेगा. उसके जीवन में नई स्फूर्ति आएगी. उसने लिखा कि वह अपना एक ट्रंक सारनाथ में छोड़े जा रहा है जिसमें उसकी कुछ किताबें और शोध के काग़ज़ आदि रखे हैं, कि बरसों तक भारत में रह चुकने के बाद वह अपने को भारत का ही निवासी मानता है, कि वह शीघ्र ही लौट आएगा और फिर अपना अध्ययन-कार्य करने लगेगा. मैं मन-ही-मन हंस दिया, एक बार अपने देश में गया लौटकर यहां नहीं आने का.
चीन में वह लगभग दो वर्षों तक रहा. वहां से उसने मुझे पेकिंग के प्राचीन राजमहल का चित्रकार्ड भेजा, दो-एक पत्र भी लिखे, पर उनसे मनः स्थिति के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं मिली.
उन दिनों चीन में भी बड़े वलवले उठ रहे थे, बड़ा जोश था और उस जोश की लपेट में लगभग सभी लोग थे. जीवन नई करवट ले रहा था. लोग काम करने जाते, तो टोलियां बनाकर, गाते हुए, लाल ध्वज हाथ में उठाए हुए. वांग्चू सड़क के किनारे खड़ा उन्हें देखता रह जाता. अपने संकोची स्वभाव के कारण वह टोलियों के साथ गाते हुए जा तो नहीं सकता था, लेकिन उन्हें जाते देखकर हैरान-सा खड़ा रहता, मानों किसी दूसरी दुनिया में पहुंच गया हो.
उसे अपना भाई तो नहीं मिला, लेकिन एक पुराना अध्यापक, दूर-पार की उसकी मौसी और दो-एक परिचित मिल गए थे. वह अपने गांव गया. गांव में बहुत कुछ बदल गया था. स्टेशन से घर की ओर जाते हुए उसका एक सहयात्री उसे बताने लगा-वहां, उस पेड़ के नीचे, ज़मींदार के सभी कागज, सभी दस्तावेज़ जला डाले गए थे और ज़मींदार हाथ बांधे खड़ा रहा था.
वांग्चू ने बचपन में ज़मींदार का बड़ा घर देखा था, उसकी रंगीन खिड़कियां उसे अभी भी याद भी. दो-एक बार ज़मींदार की बग्घी को भी क़स्बे की सड़कों पर जाते देखा था. अब वह घर ग्राम प्रशासन केंद्र बना हुआ था और भी बहुत कुछ बदला था. पर यहां पर भी उसके लिए वैसी ही स्थिति थी जैसी भारत में रही थी. उसके मन में उछाह नहीं उठता था. दूसरों का उत्साह उसके दिल पर से फिसल-फिसल जाता था. वह यहां भी दर्शक ही बना घूमता था. शुरू-शुरू के दिनों में उसकी आवभगत भी हुई. उसके पुराने अध्यापक की पहलकदमी पर उसे स्कूल में आमंत्रित किया गया. भारत-चीन सांस्कृतिक संबंधों की महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में उसे सम्मानित भी किया गया. वहां वांग्चू देर तक लोगों को भारत के बारे में बताता रहा. लोगों ने तरह-तरह के सवाल पूछे, रीति-रिवाज के बारे में, तीर्थों, मेलों-पर्वों के बारे में, वांग्चू केवल उन्हीं प्रश्नों का संतोषप्रद उत्तर दे पाता जिनके बारे में भारत में रहते हुए भी वह कुछ नहीं जानता था.
कुछ दिनों बाद चीन में ‘बड़ी छलांग’ की मुहिम जोर पकड़ने लगी. उसके गांव में भी लोग लोहा इकट्ठा कर रहे थे. एक दिन सुबह उसे भी रद्दी लोहा बटोरने के लिए एक टोली के साथ भेज दिया गया था. दिन-भर वह लोग बड़े गर्व से दिखा-दिखाकर ला रहे थे और साझे ढेर पर डाल रहे थे. रात के वक़्त आग के लपलपाते शोलों के बीच उस ढेर को पिघलाया जाने लगा. आग के इर्द-गिर्द बैठे लोग क्रांतिकारी गीत गा रहे थे. सभी लोग एक स्वर में सहगान में भाग ले रहे थे. अकेला वांग्चू मुंह बाए बैठा था.
चीन में रहते, धीरे-धीरे वातावरण में तनाव-सा आने लगा और एक झुटपुटा-सा घिरने लगा. एक रोज एक आदमी नीले रंग का कोट और नीले ही रंग की पतलून पहने उसके पास आया और उसे अपने साथ ग्राम प्रशासन केंद्र में लिवा ले गया. रास्ते भर वह आदमी चुप बना रहा. केंद्र में पहुंचने पर उसने पाया कि एक बड़े-से कमरे में पांच व्यक्तियों का एक दल मेज के पीछे बैठा उसकी राह देख रहा है.
जब वांग्चू उनके सामने बैठ गया, तो वे बारी-बारी से उसके भारत निवास के बारे में पूछने लगे,‘तुम भारत में कितने वर्षों तक रहे?…’
‘वहां पर क्या करते थे?’…‘कहां-कहां घूमे?’ आदि-आदि. फिर बौद्ध धर्म के प्रति वांग्चू की जिज्ञासा के बारे में जानकर उनमें से एक व्यक्ति बोला,“तुम क्या सोचते हो, बौद्ध धर्म का भौतिक आधार क्या है?”
सवाल वांग्चू की समझ में नहीं आया. उसने आंखें मिचमिचाईं. “द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी की दृष्टि से तुम बौद्ध धर्म को कैसे आंकते हो?” सवाल फिर भी वांग्चू की समझ में नहीं आया, लेकिन उसने बुदबुदाते हुए उत्तर दिया,“मनुष्य के आध्यात्मिक विकास के लिए उसके सुख और शांति के लिए बौद्ध धर्म का पथ-प्रदर्शन बहुत ही महत्त्वपूर्ण है. महाप्राण के उपदेश…”
और वांग्चू बौद्ध धर्म के आठ उपदेशों की व्याख्या करने लगा. वह अपना कथन अभी समाप्त नहीं कर पाया था जब प्रधान की कुर्सी पर बैठे पैनी तिरछी आंखों वाले एक व्यक्ति ने बात काटकर कहा,“भारत की विदेशी-नीति के बारे में तुम क्या सोचते है?”
वांग्चू मुस्कराया अपनी डेढ़ दांत की मुस्कान, फिर बोला,“आप भद्रजन इस संबंध में ज़्यादा जानते हैं. मैं तो साधारण बौद्ध जिज्ञासु हूं. पर भारत बड़ा प्राचीन देश है. उसकी संस्कृति शांति और मानवीय सद्भावना की संस्कृति है…”
“नेहरू के बारे में तुम क्या सोचते हो?”
“नेहरू को मैंने तीन बार देखा है. एक बार तो उनसे बातें भी की हैं. उन पर पश्चिमी विज्ञान का प्रभाव है, परंतु प्राचीन संस्कृति के वह भी बड़े प्रशंसक हैं.”
उसके उत्तर सुनते हुए कुछ सदस्य तो सिर हिलाने लगे, कुछ का चेहरा तमतमाने लगा. फिर तरह-तरह के पैने सवाल पूछे जाने लगे. उन्होंने पाया कि जहां तक तथ्यों का और भारत के वर्तमान जीवन का सवाल है, वांग्चू की जानकारी अधूरी और हास्यास्पद है.
“राजनीतिक दृष्टि से तो तुम शून्य हो. बौद्ध धर्म की अवधारणाओं को भी समाजशास्त्र की दृष्टि से तुम आंक नहीं सकते. न जाने वहां बैठे क्या करते रहे हो! पर हम तुम्हारी मदद करेंगे.”
पूछताछ घंटों तक चलती रही. पार्टी-अधिकारियों ने उसे हिंदी पढ़ाने का काम दे दिया, साथ ही पेकिंग के संग्रहालय मे सप्ताह में दो दिन काम करने की भी इजाज़त दे दी.
जब वांग्चू पार्टी-दफ़्तर से लौटा तो थका हुआ था. उसका सिर भन्ना रहा था. अपने देश में उसका दिल जम नहीं पाया था. आज वह और भी ज़्यादा उखड़ा-उखड़ा महसूस कर रहा था. छप्पर के नीचे लेटा तो उसे सहसा ही भारत की याद सताने लगी. उसे सारनाथ की अपनी कोठरी याद आई जिसमें दिन-भर बैठा पोथी बांचा करता था. नीम का घना पेड़ याद आया जिसके नीचे कभी-कभी सुस्ताया करता था. स्मृतियों की श्रृंखला लंबी होती गई. सारनाथ की कैंटीन का रसोइया याद आया जो सदा प्यार से मिलता था, सदा हाथ जोड़कर ‘कहो भगवान’ कहकर अभिवादन करता था.
एक बार वांग्चू बीमार पड़ गया था तो दूसरे रोज कैंटीन का रसोईया अपने-आप उसकी कोठरी में चला आया था,“मैं भी कहूं, चीनी बाबू चाय पीने नहीं आए, दो दिन हो गए! पहले आते थे, तो दर्शन हो जाते थे. हमें ख़बर की होती भगवान, तो हम डाक्टर बाबू को बुला लाते…. मैं भी कहूं, बात क्या है.” फिर उसकी आंखों के सामने गंगा का तट आया जिस पर वह घंटों घूमा करता था. फिर सहसा दृश्य बदल गया और कश्मीर की झील आंखों के सामने आ गई और पीछे हिमाच्छादित पर्वत, फिर नीलम सामने आई, उसकी खुली-खुली आंखें, मोतियों-सी झिलमिलाती दंतपंक्ति…. उसका दिल बेचैन हो उठा.
ज्यों-ज्यों दिन बीतने लगे, भारत की याद उसे ज़्यादा परेशान करने लगी. वह जल में से बाहर फेंकी हुई मछली की तरह तड़पने लगा. सारनाथ के विहार में सवाल-जवाब नहीं होते थे. जहां पड़े रहो, पड़े रहो. रहने के लिए कोठरी और भोजन का प्रबंध विहार की ओर से था. यहां पर नई दृष्टि से धर्मग्रंथों को पढ़ने और समझने के लिए उसमें धैर्य नहीं था, जिज्ञासा भी नहीं थी. बरसों तक एक ढर्रे पर चलते रहने के कारण वह परिवर्तन से कतराता था. इस बैठक के बाद वह फिर से सकुचाने-सिमटने लगा था. कहीं-कहीं पर उसे भारत सरकार-विरोधी वाक्य सुनने को मिलते. सहसा वांग्चू बेहद अकेला महसूस करने लगा और उसे लगा कि जि़न्दा रह पाने के लिए उसे अपने लड़कपन के उस ‘दिवा-स्वप्न’ में फिर से लौट जाना होगा, जब वह बौद्ध भिक्षु बनकर भारत में विचरने की कल्पना करता था.
उसने सहसा भारत लौटने की ठान ली. लौटना आसान नहीं था. भारतीय दूतावास से तो वीजा मिलने में कठिनाई नहीं हुई, लेकिन चीन की सरकार ने बहुत-से ऐतराज उठाए. वांग्चू की नागरिकता का सवाल था, और अनेक सवाल थे. पर भारत और चीन के संबंध अभी तक बहुत बिगड़े नहीं थे, इसलिए अंत में वांग्चू को भारत लौटने की इजाज़त मिल गई. उसने मन-ही-मन निश्चय कर लिया कि वह भारत में ही अब ज़िंदगी के दिन काटेगा. बौद्ध भिक्षु ही बने रहना उसकी नियति थी.
जिस रोज़ वह कलकत्ता पहुंचा, उसी रोज सीमा पर चीनी और भारतीय सैनिकों के बीच मुठभेड़ हुई थी और दस भारतीय सैनिक मारे गए थे. उसने पाया कि लोग घूर-घूरकर उसकी ओर देख रहे हैं. वह स्टेशन के बाहर अभी निकला ही था, जब दो सिपाही आकर उसे पुलिस के दफ्तर में ले गए और वहां घंटे-भर एक अधिकारी उसके पासपोर्ट और कागजों की छानबीन करता रहा.
“दो बरस पहले आप चीन गए थे. वहां जाने का क्या प्रयोजन था?”
“मैं बहुत बरस तक यहां रहता रहा था, कुछ समय के लिए अपने देश जाना चाहता था.” पुलिस-अधिकारी ने उसे सिर से पैर तक देखा. वांग्चू आश्वस्त था और मुस्करा रहा था-वहीं टेढ़ी-सी मुस्कान.
“आप वहां क्या करते रहे?”
“वहां एक कम्यून में मैं खेती-बारी की टोली में काम करता था.”
“मगर आप तो कहते हैं कि आप बौद्ध ग्रंथ पढ़ते हैं?”
“हां, पेकिंग में मैं एक संस्था में हिंदी पढ़ाने लगा था और पेकिंग म्यूज़ियम में मुझे काम करने की इजाजत मिल गई थी.”
“अगर इजाज़त मिल गई थी तो आप अपने देश से भाग क्यों आए?” पुलिस-अधिकारी ने ग़ुस्से में कहा.
वांग्चू क्या जवाब दे? क्या कहे?
“मैं कुछ समय के लिए ही वहां गया था, अब लौट आया हूं….” पुलिस-अधिकारी ने फिर से सिर से पांव तक उसे घूरकर देखा, उसकी
आंखों में संशय उतर आया था. वांग्चू अटपटा-सा महसूस करने लगा. भारत में पुलिस-अधिकारियों के सामने खड़े होने का उसका पहला अनुभव था. उससे जामिनी के लिए पूछा गया, तो उसने प्रोफ़ेसर तान-शान का नाम लिया, फिर गुरूदेव का, पर दोनों मर चुके थे. उसने सारनाथ की संस्था के मंत्री का नाम लिया, शांतिनिकेतन के पुराने दो-एक सहयोगियों के नाम लिए, जो उसे याद थे. सुपरिंटेंडेंट ने सभी नाम और पते नोट कर लिए. उसके कपड़ों की तीन बार तलाशी ली गई. उसकी डायरी को रख लिया गया जिसमें उसने अनेक उद्धरण और टिप्पणियां लिख रहे थे और सुपरिंटेंडेंट ने उसके नाम के आगे टिप्पणी लिख दी कि इस आदमी पर नजर रखने की ज़रूरत है.
रेल के डिब्बे में बैठा, तो मुसाफिर गोली-कांड की चर्चा कर रहे थे उसे बैठते देख सब चुप हो गए और उसकी ओर घूरने लगे.
कुछ देर बाद जब मुसाफिरों ने देखा कि वह थोड़ी-बहुत बंगाली और हिंदी बोल लेता है, तो एक बंगाली बाबू उचककर उठ खड़े हुए और हाथ झटक-झटकर कहने लगे,“या तो कहो कि तुम्हारे देशवालों ने विश्वासघात किया है, नहीं तो हमारे देश से निकल जाओ…. निकल जाओ…. निकल जाओ!”
डेढ़ दांत की मुस्कान जाने कहां ओझल हो चुकी थी. उसकी जगह चेहरे पर त्रास उतर आया था. भयाकुल और मौन वांग्चू चुपचाप बैठा रहा. कहे भी तो क्या कहे? गोली-कांड के बारे में जानकर उसे भी गहरा धक्का लगा था. उस झगड़े के कारण के बारे में उसे कुछ भी स्पष्ट मालूम नहीं था और वह जानना चाहता भी नहीं था.
हां, सारनाथ में पहुंचकर वह सचमुच भावविह्वल हो उठा. अपना थैला रिक्शा में रखे जब वह आश्रम के निकट पहुंचा, तो कैंटीन का रसोइया सचमुच लपककर बाहर निकल आया,“आ गए भगवान! आ गए मेरे चीनी बाबू! बहुत दिनों बाद दर्शन दिए! हम भी कहें, इतने अरसा हो गया चीनी बाबू नहीं लौटे! और कहिए, सब कुशल-मंगल है? आप यहां नहीं थे, हम कहें जाने कब लौटेंगे. यहां पर थे तो दिन में दो बातें हो जाती थीं, भले आदमी के दर्शन हो जाते थे. इससे बड़ा पुण्य होता है. “और उसने हाथ बढ़ाकर थैला उठा लिया, “हम दें पैसे, चीनी बाबू?’’
वांग्चू को लगा, जैसे वह अपने घर पहुंच गया है.
“आपका ट्रंक, चीनी बाबू, हमारे पास रखी है. मंत्रीजी से हमने ले ली. आपकी कोठरी में एक दूसरे सज्जन रहने आए, तो हमने कहा कोई चिंता नहीं, यह ट्रंक हमारे पास रख जाइए, और चीनी बाबू, आप अपना लोटा बाहर ही भूल गए थे. हमने मंत्रीजी से कहा, यह लोटा चीनी बाबू का है, हम जानते हैं, हमारे पास छोड़ जाइए.”
वांग्चू का दिल भर-भर आया. उसे लगा, जैसे उसकी डावांडोल जिंदगी में संतुलन आ गया है. डगमगाती जीवन-नौका फिर से स्थिर गति से चलने लगी है.
मंत्रीजी भी स्नेह से मिले. पुरानी जान-पहचान के आदमी थे. उन्होंने एक कोठरी भी खोलकर दे दी, परंतु अनुदान के बारे में कहा कि उसके लिए फिर से कोशिश करनी होगी. वांग्चू ने फिर से कोठरी के बीचोंबीच चटाई बिछा ली, खिड़की के बाहर वही दृश्य फिर से उभर आया. खोया हुआ जीव अपने स्थान पर लौट आया.
तभी मुझे उसका पत्र मिला कि वह भारत लौट आया है और फिर से जमकर बौद्धग्रंथों का अध्ययन करने लगा है. उसने यह भी लिखा कि उसे मासिक अनुदान के बारे में थोड़ी चिंता है और इस सिलसिले में मैं बनारस में यदि अमुक सज्जन को पत्र लिख दूं, तो अनुदान मिलने में सहायता होगी.
पत्र पाकर मुझे खटका हुआ. कौन-सी मृगतृष्णा इसे फिर से वापस खींच लाई है? यह लौट क्यों आया है? अगर कुछ दिन और वहां बना रहता तो अपने लोगों के बीच इसका मन लगने लगता. पर किसी की सनक का कोई इलाज नहीं. अब जो लौट आया है, तो क्या चारा है! मैंने ‘अमुक’ जी को पत्र लिख दिया और वांग्चू के अनुदान का छोटा-मोटा प्रबंध हो गया.
पर लौटने के दसेक दिन बाद वांग्चू एक दिन प्रातः चटाई पर बैठा एक ग्रंथ पढ़ रहा था और बार-बार पुलक रहा था, जब उसकी किताब पर किसी का साया पड़ा. उसने नजर उठाकर देखा, तो पुलिस का थानेदार खड़ा था, हाथ में एक पर्चा उठाए हुए. वांग्चू को बनारस के बड़े पुलिस स्टेशन में बुलाया गया था. वांग्चू का मन आशंका से भर उठा था.
तीन दिन बाद वांग्चू बनारस के पुलिस के बरामदे में बैठा था. उसी के साथ बेंच पर बड़ी उम्र का एक और चीनी व्यक्ति बैठा था जो जूते बनाने का काम करता था. आखिर बुलावा आया और वांग्चू चिक उठाकर बड़े अधिकारी की मेज के सामने जा खड़ा हुआ.
“तुम चीन से कब लौटे?” वांग्चू ने बता दिया.
“कलकत्ता में तुमने अपने बयान में कहा कि तुम शांतिनिकेतन जा रहे हो, फिर तुम यहां क्यों चले आए? पुलिस को पता लगाने में बड़ी परेशानी उठानी पड़ी है.”
“मैंने दोनों स्थानों के बारे में कहा था. शांतिनिकेतन तो मैं केवल दो दिन के लिए जाना चाहता था.”
“मैं भारत में रहना चाहता हूं….” उसने पहले का जवाब दोहरा दिया. “जो लौट आना था, तो गए क्यों थे?”
यह सवाल वह बहुत बार पहले भी सुन चुका था. जवाब में बौद्धग्रंथों का हवाला देने के अतिरिक्त उसे कोई और उत्तर नहीं सूझ पाता था.
बहुत लम्बी इंटरव्यू नहीं हुई. वांग्चू को हिदायत की गई कि हर महीने के पहले सोमवार को बनारस के बड़े पुलिस स्टेशन में उसे आना होगा और अपनी हाजिरी लिखानी होगी.
वांग्चू बाहर आ गया, पर खिन्न-सा महसूस करने लगा. महीने में एक बार आना कोई बड़ी बात नहीं थी, लेकिन वह उसके समतल जीवन में बाधा थी, व्यवधान था.
वाडचू मन-ही-मन इतना खिन्न-सा महसूस कर रहा था कि बनारस से लौटने के बाद कोठरी में जाने की बजाय वह सबसे पहले उस नीरव पुण्य स्थान पर जाकर बैठ गया, जहां शताब्दियों पहले महाप्राण ने अपना पहला प्रवचन किया था, और देर तक बैठा मनन करता रहा. बहुत देर बाद उसका मन फिर से ठिकाने पर आने लगा और दिल में फिर से भावना की तरंगें उठने लगीं.
पर वांग्चू को चैन नसीब नहीं हुआ. कुछ ही दिन बाद सहसा चीन और भारत के बीच जंग छिड़ गई. देश-भर में जैसे तूफान उठा खड़ा हुआ. उसी रोज़ शाम को पुलिस के कुछ अधिकारी एक जीप में आए और वांग्चू को हिरासत में लेकर बनारस चले गए. सरकार यह न करती, तो और क्या करती? शासन करनेवालों को इतनी फुरसत कहां कि संकट के समय संवेदना और सद्भावना के साथ दुश्मन के एक-एक नागरिक की स्थिति की जांच करते फिरें?
दो दिनों तक दोनों चीनियों को पुलिस स्टेशन की एक कोठरी में रखा गया. दोनों के बीच किसी बात में भी समानता नहीं थी. जूते बनानेवाला चीनी सारा वक़्त सिगरेट फूंकता रहता और घुटनों पर कोहनियां टिकाए बड़बड़ाता रहता, जबकि वांग्चू उद्भ्रांत और निढाल-सा दीवार के साथ पीठ लगाए बैठा शून्य में देखता रहता.

इन्हें भीपढ़ें

फ़िक्शन अफ़लातून#9 सेल्फ़ी (लेखिका: डॉ अनिता राठौर मंजरी)

फ़िक्शन अफ़लातून#9 सेल्फ़ी (लेखिका: डॉ अनिता राठौर मंजरी)

March 16, 2023
vaikhari_festival-of-ideas

जन भागीदारी की नींव पर बने विचारों के उत्सव वैखरी का आयोजन 24 मार्च से

March 15, 2023
Dr-Sangeeta-Jha_Poem

बोलती हुई औरतें: डॉ संगीता झा की कविता

March 14, 2023
पैसा वसूल फ़िल्म है तू झूठी मैं मक्कार

पैसा वसूल फ़िल्म है तू झूठी मैं मक्कार

March 14, 2023

जिस समय वांग्चू अपनी स्थिति को समझने की कोशिश कर रहा था, उसी समय दो-तीन कमरे छोड़कर पुलिस सुपरिंटेंडेंट की मेज पर उसकी छोटी-सी पोटली की तलाशी ली जा रही थी. उसकी गैरमौजूदगी में पुलिस के सिपाही कोठरी में से उसका ट्रंक उठा लाए थे. सुपरिंटेंडेंट के सामने कागजों का पुलिंदा रखा था, जिस पर कहीं पाली में तो कहीं संस्कृत भाषा में उद्धरण लिखे थे. लेकिन बहुत-सा हिस्सा चीनी भाषा में था. साहब कुछ देर तक तो काग़ज़ों में उलटते-पलटे रहे, रोशनी के सामने रखकर उनमें लिखी किसी गुप्त भाषा को ढूंढ़ते भी रहे, अंत में उन्होंने हुक्म दिया कि कागजों के पुलिंदे को बांधकर दिल्ली के अधिकारियों के पास भेज दिया जाए, क्योंकि बनारस में कोई आदमी चीनी भाषा नहीं जानता था.
पांचवें दिन लड़ाई बंद हो गई, लेकिन वांग्चू के सारनाथ लौटने की इजाज़त एक महीने के बाद मिली. चलते समय जब उसे उसका ट्रंक दिया गया और उसने उसे खोलकर देखा, तो सकते में आ गया. उसके काग़ज़ उसमें नहीं थे, जिस पर वह बरसों से अपनी टिप्पणियां और लेखादि लिखता रहा था और जो एक तरह से उसके सर्वस्व थे. पुलिस अधिकारी के कहने पर कि उन्हें दिल्ली भेज दिया गया है, वह सिर से पैर तक कांप उठा था.
“वे मेरे कागज आप मुझे दे दीजिए. उन पर मैंने बहुत कुछ लिखा है, वे बहुत ज़रूरी हैं.”
इस पर अधिकारी रूखाई से बोला,“मुझे उन काग़ज़ों का क्या करना है, आपके हैं, आपको मिल जाएंगे.” और उसने वांग्चू को चलता किया. वांग्चू अपनी कोठरी में लौट आया. अपने काग़ज़ों के बिना वह अधमरा-सा हो रहा था. न पढ़ने में मन लगता, न कागजों पर नए उद्धरण उतारने में. और फिर उस पर कड़ी निगरानी रखी जाने लगी थी. खिड़की से थोड़ा हटकर नीम के पेड़ के नीचे एक आदमी रोज़ बैठा नज़र आने लगा. डंडा हाथ में लिए वह कभी एक करवट बैठता, कभी दूसरी करवट. कभी उठकर डोलने लगता. कभी कुएं की जगत पर जा बैठता, कभी कैंटीन की बेंच पर आ बैठता, कभी गेट पर जा खड़ा होता. इसके अतिरिक्त अब वांग्चू को महीने में एक बार के स्थान पर सप्ताह में एक बार बनारस में हाजिरी लगवाने जाना पड़ता था.
तभी मुझे वांग्चू की चिट्ठी मिली. सारा ब्यौरा देने के बाद उसने लिखा कि बौद्ध विहार का मंत्री बदल गया है और नए मंत्री को चीन से नफ़रत है और वांग्चू को डर है कि अनुदान मिलना बंद हो जाएगा. दूसरे, कि मैं जैसे भी हो उसके काग़ज़ों को बचा लूं. जैसे भी बन पड़े, उन्हें पुलिस के हाथों से निकलवाकर सारनाथ में उसके पास भिजवा दूं. और अगर बनारस के पुलिस स्टेशन में प्रति सप्ताह पेश होने की बजाय उसे महीने में एक बार जाना पड़े तो उसके लिए सुविधाजनक होगा, क्योंकि इस तरह महीने में लगभग दस रूपए आने-जाने में लग जाते हैं और फिर काम में मन ही नहीं लगता, सिर पर तलवार टंगी रहती है.
वांग्चू ने पत्र तो लिख दिया, लेकिन उसने यह नहीं सोचा कि मुझ जैसे आदमी से यह काम नहीं हो पाएगा. हमारे यहां कोई काम बिना जान-पहचान और सिफ़ारिश के नहीं हो सकता. और मेरे परिचय का बड़े-से बड़ा आदमी मेरे कॉलेज का प्रिंसिपल था. फिर भी मैं कुछेक संसद-सदस्यों के पास गया, एक ने दूसरे की ओर भेजा, दूसरे ने तीसरे की ओर. भटक-भटककर लौट आया. आश्वासन तो बहुत मिले, पर सब यही पूछते,“वह चीन जो गया था वहां से लौट क्यों आया?” या फिर पूछते,“पिछले बीस साल से अध्ययन ही कर रहा है?”
पर जब मैं उसकी पाण्डुलिपियों का जिक्र करता, तो सभी यही कहते,“हां, यह तो कठिन नहीं होना चाहिए.” और सामने रखे काग़ज़ पर कुछ नोट कर लेते. इस तरह के आश्वासन मुझे बहुत मिले. सभी सामने रखे काग़ज़ पर मेरा आग्रह नोट कर लेते. पर सरकारी काम के रास्ते चक्रव्यूह के रास्तों के सामने होते हैं और हर मोड़ पर कोई-न-कोई आदमी तुम्हें तुम्हारी हैसियत का बोध कराता रहता है. मैंने जवाब में उसे अपनी कोशिशों का पूरा ब्यौरा दिया, यह भी आश्वासन दिया कि मैं फिर लोगों से मिलूंगा, पर साथ ही मैंने यह भी सुझाव दिया कि जब स्थिति बेहतर हो जाए, तो वह अपने देश वापस लौट जाए, उसके लिए यही बेहतर है.
खत से उसके दिल की क्या प्रतिक्रिया हुई, मैं नहीं जानता. उसने क्या सोचा होगा? पर उन तनाव के दिनों में जब मुझे स्वयं चीन के व्यवहार पर गुस्सा आ रहा था, मैं वांग्चू की स्थिति को बहुत सहानुभूति के साथ नहीं देख सकता था.
उसका फिर एक खत आया. उसमें चीन लौट जाने का काई जिक्र नहीं था. उसमें केवल अनुदान की चर्चा की गई थी. अनुदान की रकम अभी भी चालीस रूपए ही थी, लेकिन उसे पूर्व सूचना दे दी गई थी कि साल ख़त्म होने पर उस पर फिर से विचार किया जाएगा कि वह मिलती रहेगी या बंद कर दी जाएगी.
लगभग साल-भर बाद वांग्चू को एक पुर्जा मिला कि तुम्हारे काग़ज़ वापस किए जा सकते हैं, कि तुम पुलिस स्टेशन आकर उन्हें ले जा सकते हो. उन दिनों वह बीमार पड़ा था, लेकिन बीमारी की हालत में भी वह गिरता-पड़ता बनारस पहुंचा. लेकिन उसके हाथ एक-तिहाई काग़ज़ लगे. पोटली अभी भी अधखुली थी. वांग्चू को पहले तो यक़ीन नहीं आया, फिर उसका चेहरा जर्द पड़ गया और हाथ-पैर कांपने लगे. इस पर थानेदार रूखाई के साथ बोला,“हम कुछ नहीं जानते! इन्हें उठाओ और यहां से ले जाओ वरना इधर लिख दो कि हम लेने से इन्कार करते हैं.’’
कांपती टांगों से वांग्चू पुलिंदा बगल में दबाए लौट आया. काग़ज़ों में केवल एक पूरा निबन्ध और कुछ टिप्पणियां बची थीं.
उसी दिन से वांग्चू की आंखों के सामने धूल उड़ने लगी थी.
वांग्चू की मौत की ख़बर मुझे महीने-भर बाद मिली, वह भी बौद्ध विहार के मंत्री की ओर से. मरने से पहले वांग्चू ने आग्रह किया था उसका छोटा-सा ट्रंक और उसकी गिनी चुनी किताबें मुझे पहुंचा दी जाएं.
उम्र के इस हिस्से में पहुंचकर इंसान बुरी ख़बरें सुनने का आदी हो जाता है और वे दिल पर गहरा आघात नहीं करतीं.
मैं फौरन सारनाथ नहीं जा पाया, जाने में कोई तुक भी नहीं थी, क्योंकि वहां वांग्चू का कौन बैठा था, जिसके सामने अफ़सोस करता, वहां तो केवल ट्रंक ही रखा था. पर कुछ दिनों बाद मौक़ा मिलने पर मैं गया. मंत्रीजी ने वांग्चू के प्रति सद्भावना के शब्द कहे,‘बड़ा नेक़दिल आदमी था, सच्चे अर्थों में बौद्ध भिक्षु था,’ आदि-आदि. मेरे दस्तखत लेकर उन्होंने ट्रंक में वांग्चू के कपड़े थे, वह फटा-पुराना चोगा था, जो नीलम ने उसे उपहारस्वरूप दिया था. तीन-चार किताबें थीं, पाली की और संस्कृत की. चिट्ठियां थीं, जिनमें कुछ चिट्ठियां मेरी, कुछ नीलम की रही होंगी, कुछ और लोगों की.
ट्रंक उठाए मैं बाहर की ओर जा रहा था जब मुझे अपने पीछे क़दमों की आहट मिली. मैंने मुड़कर देखा, कैंटीन का रसोइया भागता चला आ रहा था. अपने पत्रों में अक्सर वांग्चू उसका जिक्र किया करता था.
“बाबू आपको बहुत याद करते थे. मेरे साथ आपकी चर्चा बहुत करते थे. बहुत भले आदमी थे…”
और उसकी आंखें डबडबा गईं. सारे संसार में शायद यही अकेला जीव था, जिसने वांग्चू की मौत पर दो आंसू बहाए थे.
“बड़ी भोली तबीयत थी. बेचारे को पुलिसवालों ने बहुत परेशान किया. शुरू-शुरू में तो चौबीस घंटे की निगरानी रहती थी. मैं उस हवलदार से कहूं, भैया, तू क्यों इस बेचारे को परेशान करता है? वह कहे, मैं तो ड्यूटी कर रहा हूं…!”
मैं ट्रंक और काग़ज़ों का पुलिंदा ले आया हूं. इस पुलिंदे का क्या करूं? कभी सोचता हूं, इसे छपवा डालूं. पर अधूरी पाण्डुलिपि को कौन छापेगा? पत्नी रोज़ बिगड़ती है कि मैं घर में कचरा भरता जा रहा हूं. दो-तीन बार वह फेंकने की धमकी भी दे चुकी है, पर मैं इसे छिपाता रहता हूं. कभी किसी तख्ते पर रख देता हूं, कभी पलंग के नीचे छिपा देता हूं. पर मैं जानता हूं किसी दिन ये भी गली में फेंक दिए जाएंगे.

 

Illustration: Pinterest

Tags: Bhishm SahaniBhishm Sahani ki kahaniBhishm Sahani ki kahani WangachuBhishm Sahani storiesFamous Indian WriterFamous writers storyHindi KahaniHindi StoryHindi writersIndian WritersKahaniWangachuकहानीभीष्म साहनीभीष्म साहनी की कहानियांभीष्म साहनी की कहानीभीष्म साहनी की कहानी वांग्चूमशहूर लेखकों की कहानीवांग्चूहिंदी कहानीहिंदी के लेखकहिंदी स्टोरी
टीम अफ़लातून

टीम अफ़लातून

हिंदी में स्तरीय और सामयिक आलेखों को हम आपके लिए संजो रहे हैं, ताकि आप अपनी भाषा में लाइफ़स्टाइल से जुड़ी नई बातों को नए नज़रिए से जान और समझ सकें. इस काम में हमें सहयोग करने के लिए डोनेट करें.

Related Posts

Fiction-Aflatoon_Dilip-Kumar
ज़रूर पढ़ें

फ़िक्शन अफ़लातून#8 डेड एंड (लेखक: दिलीप कुमार)

March 14, 2023
gulmohar-movie
ओए एंटरटेन्मेंट

गुलमोहर: ज़िंदगी के खट्टे-मीठे रंगों से रूबरू कराती एक ख़ूबसूरत फ़िल्म

March 12, 2023
Fiction-Aflatoon_Meenakshi-Vijayvargeeya
ज़रूर पढ़ें

फ़िक्शन अफ़लातून#7 देश सेवा (लेखिका: मीनाक्षी विजयवर्गीय)

March 11, 2023
Facebook Twitter Instagram Youtube
ओए अफ़लातून

हर वह शख़्स फिर चाहे वह महिला हो या पुरुष ‘अफ़लातून’ ही है, जो जीवन को अपने शर्तों पर जीने का ख़्वाब देखता है, उसे पूरा करने का जज़्बा रखता है और इसके लिए प्रयास करता है. जीवन की शर्तें आपकी और उन शर्तों पर चलने का हुनर सिखाने वालों की कहानियां ओए अफ़लातून की. जीवन के अलग-अलग पहलुओं पर, लाइफ़स्टाइल पर हमारी स्टोरीज़ आपको नया नज़रिया और उम्मीद तब तक देती रहेंगी, जब तक कि आप अपने जीवन के ‘अफ़लातून’ न बन जाएं.

संपर्क

ईमेल: [email protected]
फ़ोन: +91 9967974469
+91 9967638520
  • About
  • Privacy Policy
  • Terms

© 2022 Oyeaflatoon - Managed & Powered by Zwantum.

No Result
View All Result
  • सुर्ख़ियों में
    • ख़बरें
    • चेहरे
    • नज़रिया
  • हेल्थ
    • डायट
    • फ़िटनेस
    • मेंटल हेल्थ
  • रिलेशनशिप
    • पैरेंटिंग
    • प्यार-परिवार
    • एक्सपर्ट सलाह
  • बुक क्लब
    • क्लासिक कहानियां
    • नई कहानियां
    • कविताएं
    • समीक्षा
  • लाइफ़स्टाइल
    • करियर-मनी
    • ट्रैवल
    • होम डेकोर-अप्लाएंसेस
    • धर्म
  • ज़ायका
    • रेसिपी
    • फ़ूड प्लस
    • न्यूज़-रिव्यूज़
  • ओए हीरो
    • मुलाक़ात
    • शख़्सियत
    • मेरी डायरी
  • ब्यूटी
    • हेयर-स्किन
    • मेकअप मंत्र
    • ब्यूटी न्यूज़
  • फ़ैशन
    • न्यू ट्रेंड्स
    • स्टाइल टिप्स
    • फ़ैशन न्यूज़
  • ओए एंटरटेन्मेंट
    • न्यूज़
    • रिव्यूज़
    • इंटरव्यूज़
    • फ़ीचर
  • वीडियो-पॉडकास्ट
  • टीम अफ़लातून

© 2022 Oyeaflatoon - Managed & Powered by Zwantum.

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist