‘‘फ़िल्म द कश्मीर फ़ाइल्स पर इतना कुछ लिखा जा चुका है कि कुछ लिखने की सचमुच ज़रूरत नहीं है. सोशल मीडिया पर इस फ़िल्म को लेकर इतना ग़दर मचा हुआ है, पक्ष और विपक्ष में इतना कुछ लिखा जा चुका है. इसी सब को समझने के लिए मैं फ़िल्म देखने के लिए गई. मेरा मानना है कि किसी भी बात को केवल ब्लैक ऐंड वाइट में नहीं देखा जा सकता. विशेषतः जब बात मनुष्यों से संबंधित हो. इसके बीच एक ग्रे शेड हमेशा मौजूद रहता है. तो मैं इस फ़िल्म में मौजूद इसी ग्रे शेड की तलाश में मैं कुछ लिखने को उद्यत हुईं.’’ आइए पढ़ते हैं, इस फ़िल्म पर भारती पंडित का नज़रिया…
फ़िल्म द कश्मीर फ़ाइल्स पर इतना कुछ लिखा जा चुका है कि कुछ लिखने की सचमुच ज़रूरत नहीं है. सोशल मीडिया पर इस फ़िल्म को लेकर इतना ग़दर मचा हुआ है, पक्ष और विपक्ष में इतना कुछ लिखा जा चुका है कि एक फ़िल्म को लेकर लोग सीधे-सीधे दो धड़े बने हुए नज़र आ रहे हैं जिनमें से एक इसे पूरी तरह से ख़ारिज कर रहा है और एक इसे सिर आंखों पर बिठा रहा है. इसी सब को समझने के लिए मैं फ़िल्म देखने के लिए गई. मेरा अपना मानना है कि किसी भी बात को केवल ब्लैक ऐंड वाइट में नहीं देखा जा सकता. विशेषतः जब बात मनुष्यों से संबंधित हो. इसके बीच एक ग्रे शेड हमेशा मौजूद रहता है. तो इस फ़िल्म में मौजूद इसी ग्रे शेड की तलाश में कुछ लिखने को उद्यत हुई.
फ़िल्म देखते समय पहला विचार यही आया कि जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं वे ऐसा क्यों कर रहे हैं? अत्याचार का भी क्या धर्म, जाति या वर्ग होता है? बलात्कार पर तो आवाज़ उठनी ही चाहिए. वही आवाज़ नरसंहार पर भी उठनी ही चाहिए, लोगों को घर से बेदखल करने पर भी उठनी ही चाहिए. वर्ष 1990 में यदि कश्मीर में यह सब हुआ है, तो उसे स्वीकारना होगा और उस ग़लती को सुधारने के प्रयास भी करने होंगे.
फ़िल्म देखते समय यह भी लगा कि कितनी ही ऐसी कड़वी लगने वाली बातें हैं, जो निर्देशक ने पात्रों के मुख से कहलवा दी हैं. प्रोफ़ेसर राधिका मेनन कश्मीर मुद्दे की गहराई तक जाकर जिस तरह से उसकी पड़ताल करती है और प्रमाणों के साथ कहती है कि कश्मीर कभी भी भारत का हिस्सा रहा ही नहीं या जेकेएलएफ़ का आतंकी बिट्टा जिस तरह से तंज कसता है कि नेहरू और वाजपेयी जी जनता के प्यार के भूखे थे, मगर आज के आपके प्रधानमंत्री जनता को डराकर उस पर राज करना चाहते हैं, क्या इतना साहसी और स्पष्ट वक्तव्य आज तक किसी फ़िल्म में दिखाई दिया है?
विस्थापन का दर्द वही समझ सकता है जिसका घर-बार छीनकर उसे किसी शरणार्थी कैंप में पटक दिया जाए, सभी सुविधाओं से वंचित करके भिखारियों सा जीवन बिताने को मजबूर कर दिया जाए. और हमारे देश का यह दुर्भाग्य है कि हमारे यहां हुक्मरानों की नीयत में खोट ही रहा है, हरेक ने समस्याओं को वोट बैंक के रूप में ही कैश किया है, उन्हें सुलझाने के नहीं वरन बनाए रखने की ही नीयत रखी है. यह फ़िल्म ऐसे ही एक परिवार की दास्तान बयां करती है और उसके बुरे वक्त में जिस-जिसने उसका साथ छोड़ा, उस वाक़ये को सामने लाती है.
इस फ़िल्म की शुरुआत में यह भी कहा गया है कि यह फ़िल्म सत्य घटनाओं पर आधारित है और कुछ पुस्तकों/आलेखों का भी सन्दर्भ दिया गया है. जाहिर है इतने संवेदनशील मुद्दे पर फ़िल्म बनाते वक्त थोड़ी-बहुत जानकारी निर्माता-निर्देशक ने भी इकट्ठी की ही होगी. हां, अब उसमें कितना सच है और कितना झूठ, यह बहस का विषय हो सकता है, क्योंकि हरेक व्यक्ति का सच अलग है, यहां तक कि उसके दर्ज आंकड़े भी अलग हैं. विरोधियों के पास अपने आंकडें हैं, समर्थकों के पास अपने और सरकारों के पास अपने!
यहां तक तो सब कुछ ठीक ही है फिर फ़िल्म का इतना विरोध क्यों?
तो सबसे पहले तो इसलिए कि विवेक अग्निहोत्री पूरी तरह से राइट विंग के व्यक्ति हैं. उनकी नीयत को लेकर ही पहला संदेह उपजता है कि वे इस मुद्दे पर फ़िल्म बना ही क्यों रहे हैं…? उन्होंने वर्ष 2019 में चुनावों के समय ताशकंद फ़ाइल्स बनाई, जिसे आलोचकों की प्रशंसा मिली, पर उनकी नीयत पर संदेह क़ायम रहा. और अब वर्ष 2024 के चुनाव से पहले यह फ़िल्म. यानी सही फ़िल्म के लिए ग़लत समय चुनना, अब ये तो वही जानें कि यह बात उनकी आदत है या मजबूरी.
दूसरी संदेह की बात इस फ़िल्म को लेकर नेताओं द्वारा प्रोपेगंडा किया जाना है. विशेषकर देश के नेतृत्व का हैरानी भरा वक्तव्य कि कश्मीर का सत्य तो अब सामने आया है. फ़िल्म देखते हुए यह सोचकर हंसी आई कि जिस केंद्र सरकार को बार-बार दोष दिया जा रहा था, उस समय केंद्र में भाजपा समर्थित वी. पी. सिंह की सरकार थी और सनद रहे कि इतना सब होने पर भी भाजपा ने न तो अपना समर्थन वापस लिया था और ना ही विस्थापितों के लिए कुछ विशेष किया था. अच्छा है न अपनी ही सरकार की अक्षमता का यूं उत्सव मनाया जाना! आपको याद होगा, इसी मसले पर एक सुन्दर सी फ़िल्म शिकारा बनी थी, जिसके बारे में न तो कुछ लिखा गया, न ही कोई विवाद उठा.
तीसरी बात यह कि बेशक़ बहुत से मुस्लिम पड़ोसियों ने पंडितों का साथ नहीं दिया होगा, मगर कुछ लोगों ने मदद की भी होगी. कुछ महिलाओं ने राशन छीना होगा, मगर किसी ने अपने हिस्से का राशन दिया भी होगा. तो क्या इसे भी दिखाया नहीं जा सकता था? इसी तरह राहत के नाम पर केवल बाला साहब की बात क्यों कही गई? जबकि और भी कई प्रदेशों में यह राहत दी गई थी?
चौथी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि यदि विवेक अग्निहोत्री फ़िल्म में एक सीन नहीं दिखाते तो उनकी मंशा पर कम से कम मुझे ज़्यादा शंका नहीं होती. कश्मीर की आज़ादी की वक़ालत करती राधिका मेनन के साथ बिट्टा की एक तस्वीर पूरे दृश्य को ही उलटकर रख देती है. किसके मुख से कहे गए संवाद प्रभावी होंगे और किस एक दृश्य से सारा माज़रा बदल सकता है, आप इसे महसूस कर सकेंगे.
वास्तव में कश्मीर में होने वाली किसी भी घटना को हम केवल उसी घटना के प्रकाश में देख ही नहीं सकते. इसके लिए उसका इतिहास समझना ही होगा. कश्मीर को भारत का हिस्सा बनाने के लिए जिस तरह की राजनीति खेली गई, किस तरह से जनमत संग्रह का वादा करके सरकारें उससे मुकर गईं, किस तरह घाटी में सामान्य लोगों की आवाज़ों को दबाया गया, सुरक्षा के नाम पर तैनात सेना के कुछ पूर्वाग्रही लोगों ने स्थानीय लोगों के साथ कैसा सुलूक किया और इस सबका लाभ कैसे आतंकवादी संगठनों को मिला, उन्होंने आज़ादी के सपने दिखाए और कश्मीर के बहुत से लोग किस तरह और क्यों उनके साथ हो गए, इस सबको समझे बिना वर्ष 1990 की घटना को समझा ही नहीं जा सकता.
हिंसा किसी पर भी हो, क़तई स्वीकार्य नहीं है, पर इसके साथ-सतह उसके पीछे की राजनीतिक मंशा और वोट बैंक के षड्यंत्र को भी समझना होगा. यह भी समझना होगा कि वर्ष 1990 में केवल हिन्दू ही नहीं, वरन उनका साथ देने वाले सभी लोग अत्याचार का शिकार बने थे यानी यह लड़ाई केवल हिन्दू-मुस्लिम के बीच की क़तई नहीं थी. और यदि होगी भी तो उसे भारत के बाक़ी हिस्सों के परिप्रेक्ष्य में देखना बिलकुल ही मूर्खता होगी. वास्तव में कश्मीर को समझने के लिए कश्मीर का होना पड़ेगा, कश्मीरियों का भी होना पड़ेगा, उसके इतिहास को समझना होगा- चरक, सुश्रुत या शंकराचार्य से लेकर आक्रमणकारियों और सत्तासीन दलों तक के इतिहास को टटोलना होगा.
बहरहाल फ़िल्म में मुद्दों को उभारने की कोशिश में भावनाएं थोड़ी कम पड़ जाती हैं, करुणा के दृश्य भी रुलाते नहीं हैं. हां, हिंसा स्तब्ध करती है. पल्लवी जोशी वाला गीत हम देखेंगे की धुन बहुत ही मधुर बन पड़ी है.
तो मैं कहूंगी कि यह फ़िल्म देखिए. इसे देखकर समझने की कोशिश कीजिए कि क्या ग़लत है, क्या सही, किसके सच को सच कहना चाहिए और किसके सच को नकारना चाहिए. और हां, कश्मीर के वास्तविक इतिहास के दस्तावेज़ों को भी पढ़िए, वहां के कुछ लोगों से बात कीजिए, ताकि स्वयं शोध करके किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सके.
और हां, यदि कश्मीरी विस्थापितों के लिए कुछ किया जाना चाहिए था तो वह उनकी घर वापसी ही थी, पर तीस सालों में किसी ने ऐसा प्रयास नहीं किया. अब इसका लाभ है या नहीं, मुझे नहीं मालूम, क्योंकि तीस सालों में देश और मन दोनों की ही ज़मीनों में बहुत बदलाव आ चुका होगा.
एक बात और, मैंने जब यह फ़िल्म देखी तो न तो थियेटर में किसी तरह की नारेबाज़ी हुई (जिसकी बात लोग कह रहे हैं), न ही कोई ग़लत शब्द बोले गए, जबकि थिएटर खचाखच भरा हुआ था. हां, पास बैठे दो-तीन युवा यह बात कर रहे थे कि कश्मीर के इतिहास को ठीक से पढ़ना पड़ेगा यदि हमें पता करना है कि सच वास्तव में है क्या…?
कितनी अच्छी बात है न यह तो? बस, उन्हें इतिहास जानने के लिए सही स्रोत मिल सके सके, यही कामना है.
फ़ोटो: गूगल