सामाजिक चिंतक, लेखक और दयाल सिंह कॉलेज, करनाल के पूर्व प्राचार्य डॉ रामजीलाल द्वारा शुरू ‘महिला किसान’ श्रृंखला में तेभागा किसान आंदोलन के बाद आज चर्चा की बारी है तेलंगाना के किसान आंदोलन की. इस आंदोलन को जो भी सफलता मिली, उसमें महिलाओं की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता.
तेलंगाना किसान आंदोलन की पृष्ठभूमि
तेलंगाना किसान आंदोलन को ‘तेलंगाना पीपुल्स स्ट्रगल ‘अथवा’ तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष’ के नामों से भी संबोधित किया जाता है. भारतीय किसान आंदोलन के इतिहास में सन् 1772 से सन् 1900 तक लगभग 100 सशस्त्र किसान आंदोलनों का वर्णन मिलता है. परंतु तेलंगाना किसान आंदोलन इन सभी आंदोलनों से बिल्कुल अलग है, क्योंकि यह आंदोलन तेभागा किसान आंदोलन (सन्1946 सन् 1947) की भांति मार्क्सवादी- लेनिनवादी -साम्यवादी चिंतन के आधार पर लड़ा गया. प्रारंभ में एक यह शांतिप्रिय जन आंदोलन था, परंतु 4 जुलाई 1946 को कदवेंडी गांव (वारंगल जिला) के विष्णुर देशमुख के समर्थकों ने 1000 से अधिक किसानों के जुलूस पर अंधाधुंध फायरिंग कर दी. परिणाम स्वरूप स्थानीय संघ के नेता डोड्डी कोमारय्या सहित असंख्य किसान मारे गए और घायल हुए. स्थानीय पुलिस के आने पर आंदोलनकारी तितर-बितर हो गए. परंतु अग्रिम जत्थे के द्वारा विष्णुर देशमुख के निवास स्थान को आग के हवाले कर दिया गया और कालांतर में एक पड़ोसी गांव में देशमुख की 200 एकड़ ज़मीन पर कब्जा कर लिया तथा उसकी जमीन और संपत्ति को किसानों में पुनर्वितरित कर दिया गया. यह तेलंगाना किसान आंदोलन का महत्वपूर्ण मोड़ था. यहीं से किसानों का शांतिप्रिय तेलंगाना आंदोलन स्वतःस्फूर्त सशस्त्र आंदोलन में परिवर्तित हो गया.
क्या था तेलंगाना किसान आंदोलन का कारण?
कोई भी आंदोलन यूं ही नहीं हो जाता. उसके पीछे शोषण की दास्तां होती है. हैदराबाद राज्य की सामंतवादी व्यवस्था आम जनता के सामाजिक और आर्थिक जीवन पर हावी थी. निज़ाम के शासन में आम जनता का दमन और शोषण पूरे ज़ोरों पर था. उस सामंतवादी व्यवस्था का चरित्र-चित्रण अग्रलिखित है:
हैदराबाद राज्य में 53,000,000 एकड़ में से लगभग 30,000,000 एकड़ यानी लगभग 60 प्रतिशत सरकारी भूमि राजस्व प्रणाली के तहत दीवानी या खासला क्षेत्र में आती थी. लगभग 15,000,000 एकड़ यानी लगभग 30 प्रतिशत भूमि जागीरदारी प्रणाली के तहत थी, और लगभग 10 प्रतिशत निज़ाम की ख़ुद की प्रत्यक्ष संपत्ति यानी सरफ़-ए-ख़ास प्रणाली के तहत थी. सरफ़ ख़ास क्षेत्र से किसानों को होने वाली आय या लूट, रुपये की राशि 20,000,000 सालाना पूरी तरह से निज़ाम के परिवार और उसके अनुचरों के ख़र्च को पूरा करने के लिए इस्तेमाल की जाती थी.
पूरे क्षेत्र को उनकी निजी संपत्ति माना जाता था. वह उस क्षेत्र के आर्थिक और सामाजिक लाभ में लोगों की आजीविका के विकास या विकास के लिए कोई राशि ख़र्च करने के लिए बाध्य नहीं था. इन क्षेत्रों के किसान निज़ाम के अधीन बंधुआ-ग़ुलाम या कुल कृषिदास के अलावा कुछ नहीं थे. यहां तक कि दीवानी क्षेत्र में जो भी छोटे-छोटे अधिकार मौजूद थे, उन्हें भी उनसे वंचित कर दिया गया. जागीर क्षेत्र कुल राज्य का 30 प्रतिशत था. इन क्षेत्रों में, पैगस, समस्थानम, जागीरदार, इजावदार, बंजारदार, मुक्तेदार, इनामदार, या अग्रहारम विभिन्न प्रकार के सामंती परिसर थे. इनमें से कुछ के पास करों का अपना राजस्व होता था, जो वे लगाते थे. इनमें से जागीर, पैगस, संस्थानम की अपनी अलग पुलिस, राजस्व, नागरिक और आपराधिक व्यवस्था थी. वे हैदराबाद के निज़ाम राज्य के अधीन अधीनस्थ राज्य थे, जो स्वयं ब्रिटिश रियासतों के अधीन एक मज़बूत देसी राज्य था.
तेलंगाना संघर्ष के प्रमुख नेता पी. सुंदरिया के अनुसार 40% भूमि या तो सीधे निज़ाम के स्वामित्व में थी या निज़ाम द्वारा जागीरों के रूप में अभिजात वर्ग को दी गई थी. 60% भूमि सरकार की भू-राजस्व प्रणाली के अधीन थी, ज़मीन पर खेती करने वाले लोगों को बेदखली से कोई क़ानूनी अधिकार या सुरक्षा नहीं देता था
पी. सुंदरिया ने आगे लिखा है कि कुछ प्रमुख ज़मींदारों के पास 30,000 से 100,000 एकड़ तक प्रत्येक ज़मींदार के पास भूमि थी . 550 ज़मींदारों के पास प्रत्येक ज़मींदार के पास 500 एकड़ से अधिक भूमि थी. यह खेती योग्य भूमि का लगभग 60-70% थी. किसानों से की जाने वाली राजस्व की वसूली बहुत अधिक थी. उदाहरण के तौर पर उनमें से 110 ज़मींदार प्रतिवर्ष 100,000,000 रुपए राजस्व की वसूली एकत्रित करते थे. यह राजस्व राशि हैदराबाद राज्य की आधिकारिक राजस्व आय (80,000,000 रुपए) से अधिक थी (सुंदरय्या 1972: पृ. 15-16).
किसान श्रमिकों का सामंतवादी व्यवस्था के द्वारा शोषण और दमन का सर्वोत्तम और सटीक उदाहरण 19वीं शताब्दी के अंतिम दशक में भी मिलता है.उदाहरण के तौर पर सामंतों के खेतों में श्रमिक किसानों के पास बैलों का अभाव था. परिणाम स्वरूप हलों में बैलों की अपेक्षा किसान श्रमिक जोते जाते थे. अर्थात् हलों को किसान श्रमिक खींचते थे. अन्य शब्दों में किसान श्रमिकों को इंसान नहीं पशु के समान समझा जाता था.
दमन नीतियां, जिन्होंने भड़काई आंदोलन की चिंगारी
तत्कालीन तेलंगाना क्षेत्र में सामाजिक कुरीतियां अत्याधिक दमनकारी और अमानवीय थीं. डॉ एम श्रीदेवी जेवियर ने दमनकारी सामाजिक परिस्थितियों का वर्णन करते हुए लिखा है.
तेलंगाना के ज़िलों में सामाजिक परिस्थितियां दमनकारी थीं, परिवार में बच्चे के जन्म, विवाह या मृत्यु आदि के समय अनगिनत अवैध वसूली जैसे-भुगतान नज़राना (निज़ाम को उपहार या नकद में दिया गया) आदि. ‘वेट्टी’ और तेलंगाना में ‘वेत्तीचाकिरी’ (बंधुआ मज़दूरी) प्रणाली सभी व्यापक सामाजिक परिघटनाओं में लोगों के सभी वर्गों को अलग-अलग डिग्री में प्रभावित कर रही थी (खुसरो, एएम, 1958, पृ. 4).
ज़मींदारों, देशमुखों आदि को विभिन्न सेवा-जाति के लोगों जैसे बुनकरों, धोबियों, ताड़ी-टेपरों, कुम्हारों, नाइयों, चरवाहों, व्यापारियों और ग्रामीणों से ‘वेट्टी’ और वसूली प्राप्त हुई. इन सभी सामंती अत्याचारों में से सबसे बुरा ज़मींदारों के घरों में लड़कियों को ‘ग़ुलाम’ के रूप में रखने का चलन था. जब ज़मींदारों ने अपनी बेटियों को शादी में दिया, तो उन्होंने इन दासियों को पेश किया और उन्हें अपनी शादीशुदा बेटियों के साथ भेज दिया, उनके नए घरों में उनकी सेवा करने के लिए. इन ग़ुलाम लड़कियों को ज़मींदारों द्वारा रखेलियों (उपपत्नी) के रूप में इस्तेमाल किया जाता था (सुंदरय्या, 1972, पृ. 14). इस प्रकार ‘वेट्टी’ प्रणाली ने तेलंगाना के लोगों के जीवन को पूरी तरह से पतन और दयनीय भूदासता का बना दिया था. इसने मनुष्य के स्वाभिमान को पूरी तरह से बर्बाद कर दिया था.
सामंतवादी व्यवस्था में सामंतों तथा कृषि श्रमिकों के मध्य मालिक और दास का संबंध था. सामंत अकूत धन के साथ-साथ पुलिस, राजस्व और प्रशासनिक शक्तियों के कारण आम जनता का शोषण और दमन करते थे. श्रमिक वर्ग को दिहाड़ी कैश की अपेक्षा वस्तु (अनाज) के रूप दी जाती थी. बीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में दिहाड़ी दो से तीन सेर तक होती थी. संपूर्ण ग्रामीण व्यवस्था में जातिवाद के कारण दलित वर्ग का अधिक शोषण और दमन किया जाता था. केवल यही नहीं प्रत्येक घर में और घर के बाहर महिलाओं को पुरुष के बराबर दर्जा प्राप्त नहीं था. अतः लैंगिक असमानता के कारण महिलाएं पर्दानशी थीं और अपनी बात खुलकर करने के लिए तैयार नहीं थी. उन्हें बाहरी जगत का अधिक ज्ञान नहीं था. महिलाओं की य़ह स्थिति भी लगभग दासों के समान थी.
संक्षेप में कृषि श्रमिकों का जीवन अमानवीय उत्पीड़न के कारण नारकीय था. संक्षेप में ग्राम्य में जीवन में सामंतवाद, जातिवाद, छुआछूत, स्त्री-पुरुष में असमानता, श्रमिकों को पारिश्रमिक कैश की अपेक्षा वस्तु (अनाज) के रूप में दिए जाने इत्यादि के कारण गरीबी, भूखमरी, अज्ञानता, रूढिवादी कुरीतियो, दमन, शोषण और अत्याचारों की प्रकाष्ठा विद्यमान थी.
तेलंगाना सशस्त्र किसान आंदोलन में महिलाओं की भूमिका
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में सन् 1857 से लेकर सन्1947 तक लैंगिक असमानता के कारण महिलाओं के योगदान को कम आंका गया है. यद्यपि महिलाओं की प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप में राष्ट्रीय आंदोलन में भूमिका, कुर्बानी व त्याग किसी भी रूप में पुरुषों से कम नहीं है. सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम, गांधीवादी आंदोलनों, साम्यवादी और समाजवादी विचारधारा के आधार पर चलाए गए आंदोलनों अथवा क्रांतिकारी आंदोलन में महिलाओं की भूमिका, त्याग, कुर्बानी, शौर्य और योगदान का वास्तव में समुचित विवरण नहीं किया गया. इसका मूल कारण पुरुषवादी सोच और पितृसत्तात्मक का व्यवस्था का हावी होना है. इस में महिलाओं की स्थिति गौण दिखाई गई है. केवल भारतीय इतिहास में ही नहीं अपितु भूतपूर्व सोवियत संघ, चीन, वियतनाम तथा अन्य देशों के इतिहास में भी महिलाओं की भूमिका का समुचित वर्णन नहीं किया गया है. इस लेख में हमारा प्रयास तेलंगाना सशस्त्र विद्रोह में महिलाओं की भूमिका का चित्र व चरित्र का समुचित वर्णन करना है.
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में 18वीं शताब्दी की फ्रांसीसी क्रांति के उद्घोष–स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व गूंजते रहे. परंतु इसके बिल्कुल विपरीत तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष सामंतवादी, दमनकारी, क्रूर व्यवस्था की प्रवृत्ति को बदलने के लिए एक वैकल्पिक आंदोलन था. तेभागा किसान आंदोलन की भांति तेलंगाना किसान आंदोलन का मुख्य उद्घोष भी ‘लैंड टू टीलर’ था. दूसरे शब्दों में इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य सामंतवादी व्यवस्था को समाप्त करना और जमीन को भूमिहीनों में बंटवारा करना था ताकि उनको शोषण से मुक्ति मिल सके.
तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष में महिलाओं की वीरतापूर्ण सहभागिता के कारण
सशस्त्र किसान विद्रोह में महिलाओं की वीरतापूर्ण सहभागिता के कारणों का वर्णन अग्रलिखित हैं:
पहला: सामंतवादी व्यवस्था के शोषण एवं आदिवासियों के विरुद्ध ब्रिग्स योजना के अंतर्गत कोया, चेंचू व लंबाडी के क्षेत्रों में आदिवासी बस्तियों अथवा मैदानी क्षेत्रों में बस्तियों से बाहर निकालने के लिए आदेशों के विरुद्ध भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी तथा अखिल भारतीय किसान सभा के नेतृत्व में आंदोलन चलाया गया. इस आंदोलन में महिलाओं ने पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर भाग लिया.
दूसरा: आदिवासियों को रजाकारों, सामंतों, निजाम, पुलिस, गुंडों और बाद में भारत सरकार के सैन्य बलों के द्वारा क्रूरता, अत्याचार, यातना इत्यादि का शिकार होना पड़ा. महिलाओं ने अपने परिवारों के सदस्यों-पतियों, युवाओं, बूढ़ों एवं बच्चों को अपने सामने प्रताड़ित व दम तोड़ते हुए होते देखा. परिणाम स्वरूप महिलाएं लामबंद होकर आंदोलन में सक्रिय रुप में भाग लेने लगी.
तीसरा: पुलिस व सैन्य बलों के यातनाओं से बचने के लिए परिवार के पुरुष सदस्य अपने-अपने घर छोड़कर जंगलों में गुरिल्ला दस्तों में शामिल हो गए. परिणाम स्वरूप पुरुषों की अनुपस्थिति में महिलाओं ने गांव की सुरक्षा के लिए आंदोलन की बागडोर संभाली और यथास्थिति के अनुसार पुरुषों के बिना आंदोलन चलाया.
चौथा: निजाम, समांतों, जागीरदारों की पुलिस व गुंडों और कालांतर में भारतीय सेना के द्वारा जब महिलाओं के साथ मानवीय व्यवहार–छेड़ छाड़, अत्याचार, क्रूरता, शीलभंग करना अथवा बलात्कार करना या बलात्कार करने का प्रयास इत्यादि के विरुद्ध महिलाओं ने अपने जीवन के गरिमा की सुरक्षा के लिए आंदोलन में भाग लेकर शौर्य, वीरता, बहादूरी, गौरव पूर्ण कहानी लिख दी.
पांचवां: जुलाई 1946 में लगभग 300 -400 गांव से ज़मीदार आंदोलनकारियों के भय अपने-अपने गांव खाली करके चले गए थे. सरकार ने ज़मीदारों की सहायता के लिए पुलिस भेजी इस दौरान एक ज़मीदार के द्वारा संघम की महिला सदस्य का अपमान किया गया. जनता ने उस ज़मीदार को मौत के घाट उतार दिया. महिला के अपमान और ज़मीदार की मौत की ख़बर समस्त तेलंगाना क्षेत्र में ज्वालामुखी अथवा जंगल की आग की तरह फैल गई. ग्रामीण जनता का आक्रोश व रोष के कारण उत्तेजित हो गई. इसी चिंगारी के परिणाम स्वरूप महिलाएं आत्मसम्मान, व्यक्तिक गरिमा और सुरक्षा के लिए लामबंद हुई और आंदोलन में सक्रिय भाग लेना प्रारंभ कर दिया.
तेलंगाना सशस्त्र विद्रोह में महिलाओं की भागीदारी की प्रकृति
तेभागा आंदोलन की भांति तेलंगाना सशस्त्र विद्रोह में महिलाओं की भागीदारी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूप में रही है. प्राथमिक चरण में महिलाओं की भागीदारी अप्रत्यक्ष थी. महिलाओं को संघर्ष की रणनीति के संबंध में नीति निर्माण करने का अथवा परिवर्तन करने में उनकी सहभागिता लगभग ना के बराबर थी. परंतु जब परिवार के पुरुष सदस्य–महिलाओं के पति, बुजुर्ग, बेटे एवं युवा वर्ग पुलिस के अत्याचारों के भय के कारण घर परिवारों को छोड़कर जंगलों में जाकर गुरिल्ला दस्तों में शामिल हो गए. यद्यपि उस समय भी कुछ युवा महिलाएं गुरिल्ला दस्तों में हथियार चलाने की ट्रेनिंग लेकर पुरुषों के साथ मिलकर गुरिल्ला युद्ध में भाग ले रही थी. परंतु पुरुषों के गांवों छोड़कर गुरिल्ला दस्तों में सम्मलित होन के पश्चात गांवों, घरों, ज़मीन, फसलों, पशुओं व अपनी गरिमा की सुरक्षा करने का कार्य महिलाओं को करना पड़ा परिणामस्वरूप महिलाओं की भूमिका में एकदम अभूतपूर्व परिवर्तन हो गया. वे ग्रामीण परिस्थिति एवं पुलिस, रज़ाकारों एवं सैन्य बलों के रणनीति के अनुसार अपनी रणनीतियों में परिवर्तन करती रहीं और स्थानीय स्तर पर आंदोलन का नेतृत्व करके वे नीति निर्माता के रूप में भी निर्णायक भूमिका में आ गईं.
इस सशस्त्र संघर्ष में महिलाओं के द्वारा अनेक कार्य किए गए. इन में जंगलों में शिविरों में रहने वाले गुरिल्ला दस्तों के संदेशवाहक का कार्य, अपने घरों, गांव, ज़मीन, फसल और पशुओं की सुरक्षा करना, गुरिल्ला दस्तों की सहायता करना, उनके लिए जंगलों में भोजन और पानी की आपूर्ति करना, विश्राम एवं सुरक्षा की व्यवस्था करना, भेष बदलकर पुलिस और सैन्य बलों की गतिविधियों की निगरानी रखना और उनके संबंध में जानकारी गुरिल्ला दस्तों तक पहुंचाना इत्यादि मुख्य कार्य थे. गुरिल्ला दस्तों और पुलिस के बीच मुठभेड़ के समय महिलाओं के द्वारा आंदोलनकारियों को गुलेल चलाने के लिए पत्थरों की आपूर्ति करना भी महिलाओं का मुख्य कार्य था. ग्रामीण महिलाओं के तेभागा आंदोलन की भांति मिर्ची पाउडर, लाठियों, डंडो, झाड़ू, मुसल, चाकू, गोफन, पत्थर इत्यादि मुख्य हथियार थे. सताधारियों के अत्याचारों से बचने के लिए महिलाओं के द्वारा उनका घेराव भी कर लिया जाता था. इनके अतिरिक्त गुरिल्ला प्रशिक्षण प्राप्त महिलाओं के द्वारा आधुनिकतम हथियारों-बंदूक और राइफ़ल का प्रयोग किया गया.
महिलाओं ने इस आंदोलन में अभूतपूर्व योगदान दिया. इन महिलाओं के प्रतिरोध के कारण पुलिस ,गुंड़े व रज़ाकर खौफ खाते थे. यह बहादुर महिलाएं इतिहास के पन्नों से ग़ायब हैं और जनता की दृष्टि में हमेशा के लिए गुमनाम हो गई है. यद्यपि इस संघर्ष में हजारों वीर बहादुर महिलाओं ने भाग लिया है. स्त्री शक्ति संगठन के द्वारा सन् 1989 में मौखिक इतिहास का प्रकाशन किया गया. मौखिक इतिहास के अनुसार महिलाओं में चित्याला एलम्मा का नाम सर्वाधिक लोकप्रिय है. चित्याला एलम्मा के द्वारा श्रमिकों तथा महिलाओं को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक किया गया और महिलाओं के भू- स्वामित्व अधिकार की वकालत की गई. हिंदू उच्च जातियों के वर्चस्व के विरुद्ध दलितों महिलाओं और श्रमिकों को जागरूक करके लामबंद करने का काम भी इनके द्वारा किया गया. चित्याला एलम्मा के अतिरिक्त सुनीति चौधरी, बीना दास, दुर्गा देवी, प्रतिभा वाडेदार, लछम्मा इत्यादि के नाम उल्लेखनीय हैं. बेली ललिता तेलंगाना प्रतिरोध की ‘कोकिला’ के रूप प्रसिद्ध हैं. इनके अतिरिक्त महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाली महिलाओं में मल्लू स्वराज्यम (आंध्र महासभा से संबंधित), पद्मा देशपांडे (नवयुवक मंडल से संबंधित), एन.सत्यवती (आंध्र युवती मंडली से संबंधित), जशोदाबेन (नवजीवन मंडली से संबंधित) इत्यादि महिलाओं ने पुरुषों और महिलाओं को शोषण और अत्याचार के विरुद्ध लामबंद करने में अभूतपूर्व भूमिका अदा की. ज़मीन के लिए लड़ने वाली असंख्य महिलाओं की जान चली गई.
इस सशस्त्र संघर्ष में ‘जमालुनिस्सा बेगम’ की भूमिका का वर्णन करना अत्यंत आवश्यक है. जमालुनिस्सा बेगम ने आज से लगभग 100 वर्ष पूर्व सन् 1926–सन् 1927 में पर्दे का परित्याग किया और विदेशी कपड़ों के बहिष्कार का निर्णय लिया. बेगम के द्वारा तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष में मुस्लिम महिलाओं को लामबंद करके भाग लेने के लिए प्रेरित किया. परंतु उनका सर्वाधिक योगदान आंध्र प्रदेश में उर्दू भाषा में अखबार प्रारंभ करने का है. इस समाचार पत्र के लिए उनको अपनी बीमा पॉलिसी से रु. 10,000 मिले. उनका यह अख़बार वस्तुतः भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के आमुख पेपर के रूप में कार्य करता था, क्योंकि बेगम की विचारधारा साम्यवादी थी. जमालुनिस्सा बेगम ने खुले तौर पर साम्यवादी विचारधारा का समर्थन करने और कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व करने का जो साहस किया है वास्तव में वह अतुलनीय और अनुकरणीय है. किसी भी मुस्लिम महिला के लिए तत्कालीन समाज में यह एक बहादुरी और शौर्य का काम था.
पुलिस, सैन्य बल व रज़ाकारों का महिलाओं के साथ क्रूर व अमानवीय व्यवहार
सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात यह पहला अवसर था जब पुलिस, रज़ाकारों और भारतीय सैन्य बलों के द्वारा महिलाओं के विरुद्ध अमानवीय और अत्याचारपूर्ण व्यवहार किया गया. महिलाओं के साथ छेड़खानी, अत्याचार हिंसा और बलात्कार महिलाओं का दमन करने के लिए व्यापक स्तर पर किया गया. गर्भवती महिलाओं (प्रसव से एक दिन पूर्व अथवा प्रसव के तीन दिन के पश्चात) बलात्कार के उदाहरण भी मिलते हैं. केवल यही नहीं अपितु दस वर्ष की बच्ची के साथ पांच से दस पुलिस वालों के द्वारा सामूहिक बलात्कार का घिनौना अपराध भी किया गया किया गया.
अनेक स्थानों पर पुलिस अथवा सेना के बलात्कारियों को महिलाओं के द्वारा घेरा डालकर उनकी पिटाई भी की गई और कुछ को मौत के घाट उतार कर उनके हथियार छीन लिए. इन क्रूर घिनौने अपराधों के विरुद्ध केवल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी अथवा अखिल भारतीय किसान सभा के द्वारा ही आलोचना नहीं गई. अपितु कांग्रेस पार्टी की नेत्री पद्मजा नायडू के द्वारा आंदोलन की अगुवाई की गई और महिलाओं के बलात्कारों तथा अपमान के विरुद्ध समस्त भारत में रोस और आक्रोश फैल गया.
आंदोलनकारियों ने 16000 वर्ग मील, 4000 गांव पर नियंत्रण स्थापित करके कम्यून द्वारा प्रशासन (समानांतर सरकार) स्थापित किया. आंदोलनकारियों की सशस्त्र सेना की संख्या लगभग 10,000 तथा 2,000 गुरिल्ला दस्तों( सैनिक बलों) की संख्या थी. इसके अतिरिक्त ग्रामीण क्षेत्र में लगभग 3 से 4 मिलियन सक्रिय कार्यकर्ताओं तथा गैर-लड़ाकू समर्थकों का यह एक अतुल्य आंदोलन हो गया. तेलंगाना किसान आंदोलन में अगस्त 1949 के अंत तक सशस्त्र और निहत्थे लगभग 2,000 किसान मारे गए और 25,000 को गिरफ्तार कर लिया गया. सन् 1951 में सरकार से समझौते के पश्चात भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने हिंसा के मार्ग का परित्याग कर दिया और तेलंगाना सशस्त्र किसान आंदोलन समाप्त हो गया.
क्या था भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी का चर्चित ‘लैंगिक पवित्रता’ का दृष्टिकोण?
यह सशस्त्र किसान आंदोलन जातिवाद, सामंतवाद, जागीरदारी व्यवस्था, निजाम, जागीरदारों, ज़मीदारों इत्यादि के द्वारा किए जाने वाले शोषण पुलिस, गुंडों, रज़ाकरों व कालांतर में भारतीय सैन्य बलों के दमन व अत्याचारों के विरूद्ध था. यद्यपि महिलाओं का योगदान पुरुषों से कम नहीं रहा है इसके बावजूद पितृसत्तात्मक व्यवस्था और पुरुषवादी सोच के कारण यह आंदोलन लैंगिक समानता स्थापित करने में असफल रहा. तेलंगाना सशस्त्र विद्रोह में महिलाओं की भूमिका के संबंध में यह भी महत्वपूर्ण बात है कि आंदोलन के पश्चात महिला कामुकता, प्रजनन, बच्चों के पालन-पोषण, परिवार के सदस्यों के लिए भोजन तैयार करना, घरेलू कार्यों के साथ-साथ खेत व और खलिहान में अथवा कारखानों या दफ्तरों में काम करना भी महत्वपूर्ण था. आंदोलन के समय पुरुष कामरेडों द्वारा महिलाओं की “लैंगिक पवित्रता’’ रखने के लिए तथा ‘बदनामी’ से बचने के लिए कामरेडों के मध्य वैवाहिक संबंध बनाने के लिए भी प्रेरित किया जाता था. आलोचकों के अनुसार भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का ‘लैंगिक शुद्धतावादी’ दृष्टिकोण ‘भारतीय पुरुषवादी’ अथवा ‘पितृसत्तात्मकवादी’ दृष्टिकोण पर आधारित है. हमारा अभिमत है कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का ‘लैंगिक शुद्धतावादी’ दृष्टिकोण भारतीय सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल था तथा महिला कामरेडो के द्वारा आंदोलनों में पुरुष कामरेडों के साथ भाग लेने में किसी भी प्रकार की आलोचना की सम्भावना नहीं रहती और आंदोलन को सामाजिक औचित्यपूर्णता प्राप्त होती है. ‘लैंगिक शुद्धता वादी’ दृष्टिकोण महिलाओं की व्यक्तिगत गरिमा की रक्षा के लिए भी औचित्यपूर्ण है.
व्यक्तिगत गरिमा की रक्षा के लिए महिलाओं ने वीरता पूर्ण जो प्रतिरोध किया वह प्रेरणादायक है. तेलंगाना आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी की सर्वोत्तम विशेषता यह है कि महिलाओं के व्यक्तिगत नेतृत्व की अपेक्षा सामूहिक नेतृत्व के रूप को महत्व प्रदान किया गया. महिलाओं की यह सामूहिक संघर्षशील, जुझारू एवं लड़ाकू छवि इतिहास के पन्नों में दर्ज है. महिला सशक्तिकरण व शस्त्रीकरण का यह सशस्त्र किसान आंदोलन महिलाओं की भूमिका के परिणाम स्वरूप भारतीय इतिहास का एक गौरवपूर्ण पृष्ठ है. केवल यही नहीं अपितु इस आंदोलन ने कालांतर में महिलाओं को किसान आंदोलनों, ट्रेड यूनियंस आंदोलनों, महिला आंदोलनों इत्यादि में भाग लेने के लिए प्रेरित किया. तेलंगाना आंदोलन के बाद आने वाले लगभग सभी किसान और श्रमिक आंदोलनों में महिलाओं की भूमिका अहम रही है. यहां हम महाराष्ट्र के आदिवासी किसानों के आंदोलन का वर्णन करेंगे जब सन् 2018 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और अखिल भारतीय किसान सभा के नेतृत्व में नासिक से मुंबई तक 35000 से 50000 तक आदिवासी महिलाओं और पुरुषों ने पैदल मार्च किया. इसे भारतीय किसान आंदोलन के इतिहास में ‘भारतीय लांग मार्च’ के नाम से पुकारा जाता है. इस आंदोलन के सबक बाद में किसान आंदोलन सन् 2020-सन् 2021 में भी लागू किए गए तथा इस आंदोलन में महिलाओं की भूमिका अतुलनीय रही है.