जुलाहे की तरह बारीक़ी से रिश्तों के धागे बुनने का हुनर अगर हम सबको आता तो हमारी ज़िंदगी वाक़ई गुलज़ार हो जाती. जुलाहे से इसी हुनर को सिखाने की गुज़ारिश कर रही है गुलज़ार साहब की यह चर्चित कविता.
मुझको भी तरकीब सिखा दे यार जुलाहे
अकसर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया या ख़त्म हुआ
फिर से बांध के
और सिरा कोई जोड़ के उसमें
आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने में लेकिन
इक भी गांठ गिरह बुन्तर की
देख नहीं सकता कोई
मैंने तो एक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहें
साफ़ नज़र आती हैं मेरे यार जुलाहे
मुझको भी तरकीब सिखा दे यार जुलाहे
Illustration: Pinterest
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