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दलिया छोड़ दिए हो, इसलिए रोग पकड़े हुए हो

खानपान में वापस लौटा लाएं दलिया, यह न्यूट्रिशन से भरपूर होता है!

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
July 26, 2023
in डायट, हेल्थ
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दलिया छोड़ दिए हो, इसलिए रोग पकड़े हुए हो
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अच्छा ज़रा बताइए कि वर्ष 1990 के बाद से हिंदुस्तान में लाइफ़ स्टाइल डिसऑर्डर्स की भरमार होने क्यों लगी? डायबिटीज़, आर्थ्राइटिस, कैंसर, हार्ट डिसीसेस, मोटापा और तरह-तरह के टीमटाम वाले रोग हर परिवार में पैर पसारने लगे, क्यों? आज भी ग्रामीण तबकों में ये सब समस्याएं काफ़ी कम हैं या ना के बराबर हैं, क्यों? क्योंकि ये लोग आज भी पारंपरिक खानपान को अपनाए हुए हैं और दलिया ऐसा ही न्यूट्रिशन से भरा व्यंजन है. डॉक्टर दीपक आचार्य बता रहे हैं कि आपको इसे अपने खानपान में क्यों शामिल करना चाहिए.

 

मेरी प्राइमरी की पढ़ाई मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले के रामपायली गांव में हुई है और उस दौर की बहुत सी नन्ही नन्ही यादें अब तक मेरे साथ हैं. सबसे प्यारी यादों में जो है, वो है स्कूल के रिसेस टाइम पर मिलने वाला मिड डे मील यानी दलिया. यक़ीन मानिए, मेरे जैसे सारे बैक बेंचर्स सिर्फ़ एक वजह से रोज स्कूल जाते थे, मिड डे मील वाला दलिया खाने. उस दौर में हम किलोमीटर की स्कूल की दूरी पैरों से नाप लिया करते थे. टिफ़िन-विफ़िन का झंझट भी नहीं था, बस पेल कर दलिया खा लिया करते थे. स्कूल में मिलने वाला मिड डे मील हमेशा दलिया ही होता था. अक्सर मैं सोचा करता था कि हमें दलिया ही क्यों देते हैं? ढेर भर के आइटम्स छोड़-छाड़कर सिर्फ़ दलिया ही क्यों परोस देते हैं?

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ख़ैर, वक़्त बीतता गया और दलिया हमारे रोज़ के खानपान से दूर होता गया. थोड़ी पढ़ाई-लिखाई की हमने और फिर जंगलों की तरफ़ रुख़ किया. आदिवासियों के साथ रहने लगा और देखते ही देखते मेरे खानपान में दलिया एक बार फिर लौट आया और जब दलिया से जुड़ी जानकारियां गांव-देहात के जानकारों से मिलने लगीं तो समझ आया कि दलिया तो जन्नत है! शुक्रिया है उन पॉलिसी मेकर्स का जिन्होंने मिड डे मील में दलिया इनकॉरपोरेट करवाया होगा.

दलिया बेहद पौष्टिक आहार है. यदि आप 100 ग्राम दलिया खा लेंगे तो दिनभर के लिए आवश्यक फाइबर्स का 75% हिस्सा आपको मिल जाएगा. मैग्नेशियम भी खूब होता है इसमें, जो हार्ट के लिए ज़रूरी है. इसमें आयरन और विटामिन B6 भी अच्छा खासा मिल जाता है. हड्डियों को मज़बूत बनाने के लिए भी दलिया हमारे शरीर में ताबड़तोड़ मेहनत करता है. इतने सारे गुण हैं इस दलिये में तो फिर हमारी रसोई से क्यों नदारद है ये? मुझे याद आ रही है एक घटना, उस वक्त मेरी उम्र करीबन 16 साल रही होगी. क्रिकेट खेलने का चस्का लग चुका था. मेरे दोस्त के पिताजी बड़े सरकारी ओहदे पर थे, सरकारी बंगला मिला हुआ था उन्हें. घर में एकाध दो नौकर-चाकर भी थे. अक्सर उनके घर पर मैं और मेरे कुछ दोस्त क्रिकेट खेला करते थे. एक दिन उनके कुक ने दलिया परोसकर हमें खाने के लिए बुलाया. मैं दलिया पाते ही ख़ुश हो गया, स्कूल वाला मिड डे मील याद आ रहा था. दोस्त के पिताजी ने हमें दलिया खाते हुए देख नौकर को अच्छी-ख़ासी फटकार लगा दी, ‘ये भी कोई चीज है जो बच्चों को दे रहे हो? कोई ढंग की चीज बना लेते…’ मैं बड़ा एन्जॉय कर रहा था दलिया को लेकिन प्लेट हाथों से ले ली गई और हमें नूडल्स खाने के लिए दिया गया. बस ऐसे ही सत्यानाश हुआ होगा हमारे पारंपरिक भोज दलिया का. नूडल्स ने निगल लिया सेहत से भरा दलिया.

आदिवासी तबकों में अलग-अलग प्रकार के दलिया बनते हैं. कहीं दरदरे गेंहू का दलिया, कहीं चावल या किनकी का दलिया और कहीं कुटकी का दलिया. दक्षिण गुजरात में आदिवासी नागली (रागी) का दलिया भी बनाते हैं. औषधीय गुणों की खान होता है दलिया, लेकिन भागती-दौड़ती ज़िंदगी में हम शहरी लोग इस कदर भागे कि देहाती खानपान को तुच्छ समझने लगे. हम गब्दू और आलसखोर हो गए और जल्दबाज़ी के चक्कर में फ़ास्टफ़ूड की तरफ़ रीझने लगे. हमारा फ़ूड तो बेशक फ़ास्ट हुआ लेकिन बॉडी का सिस्टम स्लो हो गया. हम बीमार होने लगे, शारीरिक और मानसिक रूप से. यहां मानसिक बीमार इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि कुछ खानपान को हमने निम्नस्तर का या ग़रीबों का खानपान मान लिया, बस वहीं ग़लती हो गई.

वर्ष 1990 के बाद से हिंदुस्तान में लाइफ़ स्टाइल डिसऑर्डर्स की भरमार होने लगी. डायबिटीज़, आर्थ्राइटिस, कैंसर, हार्ट डिसीसेस, मोटापा और तरह-तरह के टीमटाम वाले रोग हर परिवार में पैर पसारने लगे, क्यों? बताइए क्यों? आज भी ग्रामीण तबकों में ये सब समस्याएं काफ़ी कम हैं या ना के बराबर हैं, क्यों? बताइये क्यों? क्योंकि ये लोग आज भी पारंपरिक खानपान को अपनाए हुए हैं. इनका ग़रीब होना या भीड़भाड़ और भागते-दौड़ते वाले समाज से दूरी होना, इनके लिए ‘ब्लेसिंग इन डिस्गाइज़’ है. अगर हमारे गांव देहात लाइफ़ स्टाइल डिसऑर्डर्स से काफ़ी हद तक दूर हैं, उनके जीवन में तनाव कम है और उनके नसीब में पिज़्ज़ा, बर्गर, चाउमीन और अट्टरम-सट्टरम चीज़ें नहीं हैं तो ये उनके विकसित होने का प्रमाण है, फिर हम लोग लाख कहते रहें कि वो देहाती हैं, आदिवासी हैं या ग़रीब हैं लेकिन सच्चाई ये है कि वे हमसे लाख गुना बेहतर हैं!

गांव, देहातों में आज भी दलिया और दलिया जैसे कई पौष्टिक व्यंजन अक्सर बनते हैं, इन्हें बड़े शौक़ से खाया जाता है. बाज़ारवाद ने दलिया को ओटमील बना दिया और आपकी पॉकेट ढीली करवा दी. आप घर में ही दलिया तैयार करें या पता कीजिए आसपास में आटा चक्की कहां है और दलिया बनवा लाइए. अब मुझसे ये न पूछना कि आटा चक्की क्या होती है? दलिया बनता कैसे है? इतना भी तेज़ ना भागो कि लौटने की गुंजाइश ख़त्म हो जाए. अपने घर-परिवार के बुज़ुर्गों से पूछिए, वे सब समझा देंगे, गूगल के दादा-परदादा या दादी-परदादी सब आपके घर में ही हैं, उनसे बात कीजिए, सीखिए, इसी बहाने उनका मान भी बढ़ेगा और उन्हें अच्छा लगेगा. भागती-दौड़ती लाइफ़ में हम दलिया तो भूल ही चुके हैं, बुज़ुर्गों से संवाद भी तो नदारद है पता नहीं किधर भागे जा रही है दुनिया? वापसी करो उस पगडंडी की तरफ़ जो आपको फार्मेसी और अस्पताल नहीं, अच्छी सेहत की ओर पहुंचाए. अब फिर से दलिया खाना शुरू करें, कम से कम दस दिन में एक बार ही सही.

फ़ोटो साभार: फ्रीपिक

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