• होम पेज
  • टीम अफ़लातून
No Result
View All Result
डोनेट
ओए अफ़लातून
  • सुर्ख़ियों में
    • ख़बरें
    • चेहरे
    • नज़रिया
  • हेल्थ
    • डायट
    • फ़िटनेस
    • मेंटल हेल्थ
  • रिलेशनशिप
    • पैरेंटिंग
    • प्यार-परिवार
    • एक्सपर्ट सलाह
  • बुक क्लब
    • क्लासिक कहानियां
    • नई कहानियां
    • कविताएं
    • समीक्षा
  • लाइफ़स्टाइल
    • करियर-मनी
    • ट्रैवल
    • होम डेकोर-अप्लाएंसेस
    • धर्म
  • ज़ायका
    • रेसिपी
    • फ़ूड प्लस
    • न्यूज़-रिव्यूज़
  • ओए हीरो
    • मुलाक़ात
    • शख़्सियत
    • मेरी डायरी
  • ब्यूटी
    • हेयर-स्किन
    • मेकअप मंत्र
    • ब्यूटी न्यूज़
  • फ़ैशन
    • न्यू ट्रेंड्स
    • स्टाइल टिप्स
    • फ़ैशन न्यूज़
  • ओए एंटरटेन्मेंट
    • न्यूज़
    • रिव्यूज़
    • इंटरव्यूज़
    • फ़ीचर
  • वीडियो-पॉडकास्ट
ओए अफ़लातून
Home ज़रूर पढ़ें

साइज़ ज़ीरो और सिक्स पैक्स के बीच पेंसिल थिन होती फ़िल्म पत्रकारिता

विनोद तिवारी by विनोद तिवारी
June 28, 2021
in ज़रूर पढ़ें, नज़रिया, सुर्ख़ियों में
A A
साइज़ ज़ीरो और सिक्स पैक्स के बीच पेंसिल थिन होती फ़िल्म पत्रकारिता
Share on FacebookShare on Twitter

समय के साथ-साथ किस तरह से फ़िल्म पत्रकारिता में बदलाव आए. किस तरह कलाकारों की अभिनय कला पर, किरदारों में संवेदनशीलता से जान फूंक देने पर की जानेवाली फ़िल्म पत्रकारिता ज़ीरो फ़िगर और सिक्स पैक्स के बीच फंस गई. और इसी पर हाल ही में एक बड़े अख़बार के फ़िल्म पर आधारित परिशिष्ट में पूछे गए इस सवाल पर कि क्या ज़ीरो फ़िगर हिरोइन्स का ज़माना ख़त्म हो रहा है? यहां हम पेश कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार विनोद तिवारी का नज़रिया, जो लंबे समय तक फ़िल्मी पत्रिका माधुरी के संपादक भी रह चुके हैं.

एक बड़े अख़बार के उस परिशिष्ट ने, जो सिनेमा और सेलिब्रिटीज़ पर ही केंद्रित है, अभी कल ही लीड स्टोरी के साथ एक बड़ी बहस की शुरुआत की है. इस बहस का मक़सद यह जानना है कि क्या इंडियन सिनेमा में बरसों से राज कर रहा `ज़ीरो फ़िगर’ हीरोइनों का ज़माना ख़त्म हो रहा है? इस स्टोरी में यह बताया गया है कि विद्या बालन ने दर्शकों को `डर्टी पिक्चर’ के जरिए जिस `वलप्चुअस वुमन’ का दीवाना बना दिया उसने तो सिने सुंदरी की परिभाषा ही बदल दी है. अख़बार ने सवाल उठाया है कि कल तक जो दर्शक करीनाओं, प्रियंकाओं और बिपाशाओं पर जान छिड़क रहा था, आज उसी ने विद्याओं और सोनाक्षियों को सिर पर क्यों बिठा लिया है? अख़बार का अनुमान है कि मांसल सौंदर्य और भरपूर शारीरिक गोलाईयों का जमाना लौट आया है और उसने दर्शकों से ही सवाल किया है,`आपका क्या कहना है?’

कितने दर्शक इसका जवाब देंगे और किस तर्ज पर देंगे यह सवाल क्या आपको व्यथित करता है? करता है तो और नहीं करता तो, दोनों ही स्थितियां सिने पत्रकारिता का वह बैरोमीटर हैं, जो उसके स्वास्थ्य के प्रति चिंता प्रकट करती हैं. अगर आप इस चर्चा में भाग लेना नहीं चाहते तो शायद आप हिंदुस्तानियों के सबसे बड़े क्रेज़, सिनेमा, के प्रति उदासीन हैं और अगर भाग लेना चाहते हैं तो आप पर सिनेमा के सिर्फ़ उस पक्ष के प्रति जागरूक होने का इल्ज़ाम लग सकता है, जो उसकी आत्मा से संबंध न रखकर सिर्फ़ उसके शरीर को महत्व दे रहा है. यही वह दीमक है, जिसने धीरे-धीरे और अंदर ही अंदर एक समय की स्वस्थ फ़िल्म पत्रकारिता को खोखला करके उसे इस स्तर पर ला खड़ा किया है, जिसमें सारा ज़ोर शरीर पर है और जो इस बात को दरकिनार करने में ही गौरवान्वित अनुभव कर रही है कि सिनेमा का सच्चा सौंदर्य उसकी उसकी आत्मा में निहित है, बाक़ी की सजावट कॉस्मेटिक है. अगर ऐसा न होता तो संवेदनशील फ़िल्म अभिनय की परख का पैमाना अभिनेताओं के सिक्स पैक्स न बनते और न ही अभिनेत्रियों के लिये अभिनय की कठिन राह मिस इंडिया, मिस ब्यूटिफ़ुल हेयर, मिस सॉफ़्ट स्किन और मिस बिकिनी फ़िगर के ज़रिए उतनी आसान हो गई होती, जितनी पिछले कुछ दशकों से हो गई है.

स्वर्गीय गुरुदत्त को वहीदा रहमान जैसी प्रतिभा को तलाशने और तराशने में जो समय लगा था या वी. शांताराम ने `झनक झनक पायल बाजे’ में गोपीकृष्ण को नायक बनाने में जिस सूक्ष्म दृष्टि से काम लिया था, उसकी उस समय की फ़िल्म पत्रिकाओं ने भरपूर सराहना की थी. यहां पर सिर्फ़ पत्रिकाओं की बात इसलिए की जा रही है कि उस समय प्रतिष्ठित दैनिक अख़बारों में फ़िल्मों के बारे में ज़्यादा जानकारी या सामग्री देना अख़बार की प्रतिष्ठा को कम करने जैसा माना जाता था. फ़िल्म के लिए फ़िल्म के अख़बार, जो आमतौर पर साप्ताहिक होते थे, पर्याप्त माने जाते थे. इन अख़बारों के साथ जो पाक्षिक और मासिक फ़िल्म पत्रिकाएं नियमित प्रकाशित होती थीं, उनमें से सभी में सभी कुछ सार्थक ही छपता था ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन उनकी फ़िल्म पत्रकारिता इतनी निरर्थक भी नहीं थी, जितनी वह बाद के वर्षों में होती चली गई.

यह मानने वाले कि टेलीविज़न ने फ़िल्म की प्रिंट पत्रकारिता की जड़ों में मट्ठा डाल दिया भी उसका ऊपरी आकलन ही कर पाएं हैं. यहां भी दिक्कत वही है- शरीर और आत्मा की. पत्रिकाओं का ग्लॉसी, फ़ोर कलर पेजेज़ से सजा रूप, पृष्ठों के लेआउट में अमूर्त आर्ट की झलक, इस सब कुछ ने उन्हें स्टार्स के अनुकूल तो बनाया, लेकिन सिनेमा की वह संवेदना पीछे छूटती चली गई, जिसको पढ़ने समझने के लिए जिज्ञासु पाठक उत्सुक रहा करते थे. टेलीविज़न की फ़िल्म पत्रकारिता ग्लॉसी मैगज़ीन का छोटे पर्दे पर रूपांतरण मात्र है.

सितारों का ग्लैमर फ़िल्म पत्रकारिता पर सदा से हावी रहा है, यह सच है, लेकिन सितारों से इतर जो है, लेखन कौशल, नृत्य-गीत संयोजन, छायांकन, संपादन और सर्वोपरि निर्देशन यानी वह सब कुछ जो किसी नवोदित कलाकार को दर्शक की उत्सुकता का केंद्र बनाता है और यह उत्सुकता जिस तरह उसे स्टार बनाती है, वह सब भी एक समय फ़िल्म पत्रकारिता का उतना ही आकर्षण हुआ करता था, जितना कि कोई स्टार. यही वजह है कि फ़िल्म पत्रिकाओं के पुराने पाठक उन पत्रिकाओं को आज भी भूले नहीं हैं, जिन्होंने उनकी सृजनात्मकता को कोई दिशा देने की कोशिश की थी. फ़िल्म के प्रति दीवानगी रखनेवालों के बारे में यह सोचना कि उनमें सिर्फ़ हीरो हीरोइन्स के प्रति जिज्ञासा होती है, उनको कमतर आंकने जैसा है. असलियत यह है कि फ़िल्म कला की बारीक़ियों को जानने -समझने और उनके सहारे जीवन में अपने लिए एक अलग-सी जगह बनाने की तमन्ना दर्शक में सदा से रही है और इस जानकारी के लिए उसने फ़िल्म पत्रिकाओं की ओर आशा भरी निगाहों से देखा है, लेकिन वहां पहले आशा की जो किरण नजर आती थी, अब उसका अभाव है.

सृजनात्मक आकलन
सिने कला की ख़ूबियों के संदर्भ में बिमल रॉय का सिनेमा, राज कपूर का सिनेमा, बी.आर. चोपड़ा का सिनेमा…जैसे उदाहरण अक्सर दिए जाते हैं, लेकिन सिनेमा समय के साथ जिस तरह बदलता और संवरता रहा है, फ़िल्म पत्रकारिता उस तरह उसका साथ देने में असफल दिखाई देती है. तकनीकी कौशल और नरेशन के नए स्टाइल की वैसी व्याख्याएं कम होती चली गईं जैसी देव आनंद के रोमांटिक रोल्स से चलकर `गाइड’ जैसी सुलझी हुई फ़िल्म तक आने पर की गई थीं. उस समय की पत्रकारिता ने केंद्रीय चरित्र देव और निर्देशक विजय आनंद दोनों के कलात्मक पक्षों की सटीक व्याख्या करके दोनों को ही स्टार से भी ऊंचा उठा कर वैसा कलाकार स्थापित करने में सहायता की थी, जिसकी आज भी विश्व स्तर पर सराहना की जाती है. शरतचंद्र के `देवदास’ को बिमल रॉय ने उदासी का जो रंग दिया, उसकी पैठ दर्शक तक पहुंचाने और दिलीपकुमार के अभिनय की बारीक़ियों की समीक्षकों ने सार्थक व्याख्या करके उसे अमर कर दिया. लेकिन वही देवदास शाहरुख खान के साथ जुड़ कर कोई कमाल नहीं दिखा सका. फ़िल्म की भव्यता कथ्य पर हावी हो गई और उन दर्शकों को उसमें अपना वह देवदास दिखाई नहीं दिया, जिसे वे उपन्यास पढ़कर दिलों में बसाए हुए थे. तब फ़िल्म पत्रकार भी किस चित्रण की व्याख्या करते?

इस तरह के सृजनात्मक आकलन का कितना महत्व होता है इस बात का अनुभव उन सभी फ़िल्मकारों ने किया है, जिन्होंने विदेशी फ़िल्म समारोहों और पुरस्कारों के लिए अपनी फ़िल्में भेजीं. इसके बाद तो सूक्ष्म अभिनय सिक्स पैक बॉडी के क्रेज़ में गुम हो गया और फ़िल्म पत्रकारिता के लिये उन स्टंट्स की बातों पर निर्भर रहना मजबूरी हो गई, जिन्हें हीरो डबल्स की जगह ख़ुद करके वाहवाही लूटने की कोशिशें करने लगे थे या फिर पारो अथवा चंद्रमुखी की आत्मा में झांकने की जगह, उनके पेंसिल थिन फ़िगर्स और डिज़ाइनरर कॉस्ट्यूम्स की सराहना में अपने ख़ुद के अस्तित्व के महत्व को गुम कर देना ही श्रेयस्कर लगने लगा.

इधर कहने को तो यही कहा गया था कि `तारे ज़मीन पर’ की तरह आमिर ख़ान गज़नी में एक बार फिर एक बीमारी की गंभीरता को हाईलाइट करेंगे, लेकिन फ़िल्म में छाए रहे उनके सिक्स पैक्स! उसका प्रचार भी इतना किया गया कि फ़िल्म प्रेस के सामने भी बीमारी की उलझनों की जगह सिक्स पैक्स बनाने की तैयारियों का विवरण ज़्यादा प्रमुख हो गया. अपनी पहली फ़िल्म `कोई मिल गया’ में हृतिक रोशन ने जिस क्षमता का परिचय दिया था, आज वह भी उनके सिक्स पैक्स फ़िज़ीक में दबी दिखाई देती है. तब बेचारी पत्रकारिता ही अकेली क्या क्या करे!

इन्हें भीपढ़ें

फ़िक्शन अफ़लातून#9 सेल्फ़ी (लेखिका: डॉ अनिता राठौर मंजरी)

फ़िक्शन अफ़लातून#9 सेल्फ़ी (लेखिका: डॉ अनिता राठौर मंजरी)

March 16, 2023
vaikhari_festival-of-ideas

जन भागीदारी की नींव पर बने विचारों के उत्सव वैखरी का आयोजन 24 मार्च से

March 15, 2023
पैसा वसूल फ़िल्म है तू झूठी मैं मक्कार

पैसा वसूल फ़िल्म है तू झूठी मैं मक्कार

March 14, 2023
Fiction-Aflatoon_Dilip-Kumar

फ़िक्शन अफ़लातून#8 डेड एंड (लेखक: दिलीप कुमार)

March 14, 2023

प्रयत्नों का अभाव
फ़िल्म पत्रिका ‘माधुरी’ के पूर्व संपादक अरविंद कुमार ने हिंदी फ़िल्मों के शिलालेख नाम से एक लेखमाला लिखकर फ़िल्म पत्रकारिता को जिन नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया था, उन्हें पार करना तो क्या उन तक पहुंचने का कोई प्रयत्न मात्र तक उन युवा पत्रकारों में दिखाई नहीं देता, जिन्होंने फ़िल्म पत्रकारिता को अपनाया तो बड़े शौक़ से है, लेकिन कहीं न कहीं इस भ्रम से भी ग्रस्त हैं कि गॉसिप और ग्लैमर ही इस क्षेत्र की सीमाएं हैं. अरविंद जी की लेखमाला में अपने समय की श्रेष्ठतम फ़िल्मों को उदाहरण स्वरूप लेकर फ़िल्म कला की ऐेसी विशद् और रोचक व्याख्या होती थी, जिसे पढ़ते-पढ़ते पाठक को यह समझ आने लगता था कि फ़िल्म को सिर्फ़ देखभर लेने और फ़िल्म का रसास्वादन करते चलने में कितना अंतर है. फ़िल्म का रसास्वादन कराने का यह प्रयत्न किसी ऐसे सुलझे हुए फ़िल्म पत्रकार की कलम से ही निकल सकता था, जिसने अपने विषय का गंभीरता से अध्ययन किया हो और उसकी संभावनाओं का पता लगाने की कोशिश की हो.

ऐसी फ़िल्में, जिनकी रचनात्मकता का विभिन्न दृष्टिकोणों से विश्लेषण किया जा सकता है, कम भले ही बनती हों, बनती तो निरंतर ही रही हैं, लेकिन विनोद भारद्वाज तथा तथा आनंद गहलोत द्वारा की जाने वाली समीक्षाओं में जो गहराई होती थी, उनका अभाव तब और खटकता है जब `जिस्म-2′ की समीक्षा में पढ़ने को तो यह मिलता है कि `फ़िल्म में सिवा जिस्म के और कुछ नहीं’, लेकिन साथ ही उसे तीन स्टार भी दिए होते हैं. विरोधाभासों से भरी ऐसी समीक्षाएं सभी हिंदी अख़बारों में मिलने लगी हैं. शायद इसलिए कि संपादकों ने फ़िल्मों या फ़िल्म समीक्षाओं को किसी महत्व का मानना छोड़ उनको सिर्फ़ लाइट रीडिंग तक सीमित कर दिया है. वे फ़िल्मों के उस प्रचार से ग्रस्त लगते हैं, जिसमें सलमान खान श्रेणी के नायकों के अभिनय का सबसे प्रबल पक्ष उनका शर्ट उतार देना है, जिसमें जॉन अब्राहमों को हाईलाइट करने की वजह इतनी ही समझ आती है कि उन्होंने फिल्मों में प्रवेश के लिये महज़ बॉडी शेप का सहारा लिया हुआ है. बगैर जिम गए और बगैर वर्कआउट्स के संजीव कुमार अभिनय सम्राट कैसे हो गए, यह जानने की उन्होंने कोशिश भी नहीं की. मीनाकुमारी और पेंसिल थिन फ़िगर के बीच कभी कोई ताल्लुक़ नहीं रहा फिर भी भारतीय फ़िल्म इतिहास की कुछ श्रेष्ठतम फ़िल्मों में उनके अभिनय को सराहने वाली फ़िल्म पत्रकारिता संभवत: इन्हीं कारणों से आज स्वयं ही पेंसिल थिन नजर आने लगी है.

फ़ोटो: गूगल

Tags: film journalismfilmsformer editor of MadhurijournalismMadhuripencil thinPerspectiveperspective of former film journalistssix packssize zeroVinod Tiwariनज़रियापत्रकारितापूर्व फ़िल्म पत्रकारों का नज़रियापेंसिल थिनफ़िल्म पत्रकारिताफ़िल्मेंमाधुरीमाधुरी के पूर्व संपादकविनोद तिवारीसाइज़ ज़ीरोसिक्स पैक्स
विनोद तिवारी

विनोद तिवारी

पत्रकारिता के हर क्षेत्र, अख़बार, पत्रिकाओं, रेडियो, टेलीविज़न और फ़िल्मों का सघन अनुभव रखने वाले विनोद तिवारी लंबे समय तक टाइम्स ऑफ़ इंडिया ग्रुप की पत्रिका माधुरी के संपादक रहे. वे सोनी एंटरटेन्मेंट टेलीविज़न के सीनियर मैनेजर के पद से सेवानिवृत हुए और मुंबई यूनिवर्सिटी में 20 वर्षों तक पत्रकारिता पढ़ाते रहे. उनकी लिखी किताबें कई विश्वविद्यालयों के मीडिया के पाठ्यक्रम में शामिल हैं. फ़िलहाल वे श्री राजस्थानी सेवा संघ, मुंबई, की एकेडमी ऑफ़ ऑडियो विशुअल आर्ट्स ऐंड जर्नलिज़्म (आवाज) के निदेशक हैं.

Related Posts

gulmohar-movie
ओए एंटरटेन्मेंट

गुलमोहर: ज़िंदगी के खट्टे-मीठे रंगों से रूबरू कराती एक ख़ूबसूरत फ़िल्म

March 12, 2023
Fiction-Aflatoon_Meenakshi-Vijayvargeeya
ज़रूर पढ़ें

फ़िक्शन अफ़लातून#7 देश सेवा (लेखिका: मीनाक्षी विजयवर्गीय)

March 11, 2023
hindi-alphabet-tree
कविताएं

भाषा मां: योगेश पालिवाल की कविता

March 9, 2023
Facebook Twitter Instagram Youtube
ओए अफ़लातून

हर वह शख़्स फिर चाहे वह महिला हो या पुरुष ‘अफ़लातून’ ही है, जो जीवन को अपने शर्तों पर जीने का ख़्वाब देखता है, उसे पूरा करने का जज़्बा रखता है और इसके लिए प्रयास करता है. जीवन की शर्तें आपकी और उन शर्तों पर चलने का हुनर सिखाने वालों की कहानियां ओए अफ़लातून की. जीवन के अलग-अलग पहलुओं पर, लाइफ़स्टाइल पर हमारी स्टोरीज़ आपको नया नज़रिया और उम्मीद तब तक देती रहेंगी, जब तक कि आप अपने जीवन के ‘अफ़लातून’ न बन जाएं.

संपर्क

ईमेल: [email protected]
फ़ोन: +91 9967974469
+91 9967638520
  • About
  • Privacy Policy
  • Terms

© 2022 Oyeaflatoon - Managed & Powered by Zwantum.

No Result
View All Result
  • सुर्ख़ियों में
    • ख़बरें
    • चेहरे
    • नज़रिया
  • हेल्थ
    • डायट
    • फ़िटनेस
    • मेंटल हेल्थ
  • रिलेशनशिप
    • पैरेंटिंग
    • प्यार-परिवार
    • एक्सपर्ट सलाह
  • बुक क्लब
    • क्लासिक कहानियां
    • नई कहानियां
    • कविताएं
    • समीक्षा
  • लाइफ़स्टाइल
    • करियर-मनी
    • ट्रैवल
    • होम डेकोर-अप्लाएंसेस
    • धर्म
  • ज़ायका
    • रेसिपी
    • फ़ूड प्लस
    • न्यूज़-रिव्यूज़
  • ओए हीरो
    • मुलाक़ात
    • शख़्सियत
    • मेरी डायरी
  • ब्यूटी
    • हेयर-स्किन
    • मेकअप मंत्र
    • ब्यूटी न्यूज़
  • फ़ैशन
    • न्यू ट्रेंड्स
    • स्टाइल टिप्स
    • फ़ैशन न्यूज़
  • ओए एंटरटेन्मेंट
    • न्यूज़
    • रिव्यूज़
    • इंटरव्यूज़
    • फ़ीचर
  • वीडियो-पॉडकास्ट
  • टीम अफ़लातून

© 2022 Oyeaflatoon - Managed & Powered by Zwantum.

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist